समकालीन की पीड़ा और चेतावनी
काव्य साहित्य | कविता पवन त्रिपाठी1 Jan 2025 (अंक: 268, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
सदियों से इस धरती में समाया हूँ
पीढ़ी दर पीढ़ी मुझे लोगों ने अपनाया है।
संस्कार मुझसे ज़िन्दा हैं,
यहाँ तक कि इतिहास में भी ज़िंदा हूँ!
मुझे लोगों ने इस धरती का धरोहर माना है!
मैं कोई मानव नहीं, बल्कि समकालीन समाज बोल रहा हूँ!
मेरे ज़माने के विचारों का डंका हमेशा बजा है,
कभी गीतों में, कभी गाथाओं में
तो कभी फ़िल्मों में, कभी धर्म में
जज़्बातों में, प्रेम में,
हर लम्हे में, मेरी आत्मा गहरी बसी है।
संस्कृति का प्रतीक, सभ्यता का चेहरा,
कभी मन्दिरों में, कभी मस्जिदों में अटका।
जहाँ-जहाँ मैं गया, वहाँ ख़ुशियाँ फैलती चली गई
मेरे माध्यम से लिखी गयी प्रत्येक रचना
लोगों के दिल में घर बनाती चली गयी!
इतनी सदी के बाद
न जाने कहाँ से मेरे भीतर
इस आधुनिकता ने जन्म ले लिया।
और बड़े ही कम समय में इसने
मुझे तोड़ना शुरू कर दिया
जिस सभ्यता को मैंने शिद्दत से पाला
उसे इसने एक झटके में बिखेरना शुरू कर दिया
इसका असर इतना बढ़ रहा है
कि वे ही लोग जो मुझे अपना वर्चस्व मानते थे
आज मुझसे मनमुटाव करने लगे है
मैंने चार लोगों को जोड़ना सिखाया
और मुस्कुराना सिखाया
मुसीबत आने पर मदद का सिद्धांत सिखाया
स्त्री और पुरुष के भीतर सभ्यता और मर्यादा
का पाठ बतलाया
गर इसने लोगों को एक एक कोने में बिठाया
और अकेलेपन का हुनर सिखाया
गली मोहल्लें सब कुछ इसने
सूने कर दिए
घरों के टूटने का काम भी इसने शुरू कराया।
गर फिर भी मैं इसे चेतावनी दे रहा हूँ
जन्मों से यात्रा पर हूँ, अनंत दिशाओं में,
नई पीढ़ियों के संग, हर्षित विचारों में।
मुझे कोई नहीं मिटा सकता, न ये वक़्त के थपेड़े,
क्योंकि मैं हूँ एक अमर धारा, जो कभी न रुकते।
और एक दिन तुझे मैं जीतूँगा!
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