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एक लिहाज़ ही है जो लिहाज़ है

हम लोग लिहाज़ प्रिय हैं। हम सभी कभी उम्र का तो कभी महिला का तो कभी परिवार का लिहाज़ करते पाए जाते हैं। यह कांग्रेस पार्टी का लिहाज़ ही है कि वह गाँधी परिवार के आगे और किसी को अपना नेता नहीं मानती।  हम भारतीय लिहाज़ करना नहीं छोड़ते, चाहे जो हो जाय। परीक्षा में परीक्षार्थी टीचर का पूरा लिहाज़ करते हुए नक़ल करता है, तो करवाचौथ के दिन पत्नी पूरे लिहाज़ के साथ पूरा दिन निपटा ले जाती है। बड़ों के सामने सिगरेट पीते हुए भी उनको धुएँ की जड़ का पता न लगने देना लिहाज़ नहीं तो और क्या है? 

इसी तरह भारत का वोटर कभी जाति तो कभी धर्म, तो कभी एक अदद अद्धे का लिहाज़ करता हुआ वोट दे आता है। और यह एकमात्र लिहाज़ ही तो है कि हमारे नेता सर्वशक्तिमान होते हुए भी अपने को जनसेवक कहते हैं। अन्यथा क्या वजह है कि किसी को भी देशद्रोही घोषित कर देने की क्षमता से युक्त शीर्ष नेतृत्व  स्वयं को जनता का सेवक कहे!! यह उसकी विनम्रता ही है जो लिहाज़ से जन्मी है। अभी लिहाज़ के चक्कर में ही पूर्व मुख्य न्यायाधीश रिटायर होने के बाद राज्यसभा की सीट को मना नहीं कर सके। यह सत्ता का लिहाज़ है! यद्यपि यह सिंहासन से उतर कर चौकी पर बैठने जैसा है। पर लिहाज़ को क्या कहें? वह ऊँच-नीच कब देखता है? वह तो बस हो ही जाता है। अगर आंतरिक और बाह्य सारे समीकरण सटीक बैठ जाते हैं तो लिहाज़ बन ही जाता है। लिहाज़ हमारे ख़ून में है। इसलिए कई बार न चाहते हुए भी लिहाज़ करना पड़ता है। अब पार्टी नेतृत्व को ही देख लीजिए। वह कई बार दुराचारी, भ्रष्टाचारी व्यक्ति को चाहते हुए भी इसलिए दण्डित नहीं कर पाता क्योंकि वह ख़ुद की पार्टी का है। यह पार्टी के आदमियों का लिहाज़ है।

अँग्रेज़ियत को भरपूर जीते हुए हम विशिष्ट मौक़ों पर मातृभाषा हिंदी का लिहाज़; उसका सम्मान करना नहीं भूलते। हम कितना भी आगे बढ़ जाएँ मगर अपने पुरखों का लिहाज़ करना नहीं छोड़ते। हम पितृ पुरुषों का लिहाज़ करते हुए उनके बताए रास्ते पर चलने की हर संभव कोशिश करते हैं। अब बीच रास्ते में ही क़दम बहक जाएँ और आदमी मनमर्ज़ी पर उतर आए तो अलग बात है। बाक़ी ज़्यादातर मामलों में हम लिहाज़ बरक़रार रखते हैं।  हमने अपने पूर्वजों की इस वैचारिक सूत्र "पाप से घृणा करो पापी से नहीं" को हमने सर आँखों पर लिया और पापियों को गले लगाते हुए संसद व विधानसभाओं में थोक के भाव में पहुँचाया। हम उनमें से नहीं है कि सिद्धान्तों को सिर्फ़ किताबी ज्ञान मानकर व्यवहार में उनसे दूरी बना लें। हमने इस आकाशीय थ्योरी को धरातल पर उतारते हुए संभावित सीमाओं तक जाकर उपयोग किया। विश्वगुरु दुनिया हमें ऐसे ही नहीं मानती। 

भले ही हम गाँधी या गाँधीवादी मूल्यों की हत्या कर दें पर उससे पूर्व उनको प्रणाम कर उनका लिहाज़ करना नहीं भूलते।

हमारी गुरु-शिष्य की पूरी की पूरी परम्परा लिहाज़ केंद्रित रही है। लिहाज़ को लेकर भारत आदिकाल से ही बहुत संवेदनशील रहा है। यद्यपि यहाँ सम्बन्धों की ऊष्मा में कब कोई किस पर पानी उलीचकर चला जाय और कब कोई किसको ठंडा कर दे पता नहीं, पर लिहाज़ तब भी क़ायम रहता है। कभी गुरु बहुतै बड़ा वाला बनकर गुरुदक्षिणा में अँगूठा माँग लेता है, तो कभी चेला अपने गुरु का गुरुत्व झाड़ते हुए ख़ुद उस्ताद बन गुरु को गुरुदक्षिणा में मार्गदर्शक मंडल थमा देता है। पर इन सबके बावजूद लिहाज़ तब भी क़ायम था और लिहाज़ अब भी क़ायम है। पब्लिकली एक-दूसरे को कोई कुछ नहीं कहता। यह विशुद्ध लिहाज़ है!! अजब प्रेम भाव है!!  दरअसल सम्बन्धों की यही असल ख़ूबसूरती होती है कि दिल में चाहे जितनी छुरियाँ चलें पर जबान पर तल्ख़ी नहीं आती। किसी बड़े शायर ने कहा भी है कि 

"दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये  गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों।" 

यह लिहाज़ ही हमें शर्मिंदगी से बचाता है। यह गुंजाइश ही ग़लत करने से रोकती है हमें। अन्यथा गुरुदेव अँगूठे की जगह सीधे प्राण ले लेते और शिष्य गुरु को किसी मंडल की जगह कारागार में डाल देता तो कोई क्या कर लेता?

हम इस बेहिसाब लिहाज़ और ग़ज़ब की गुंजाइश पर जान  छिड़कते हैं।

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