अजब-ग़ज़ब निर्णय
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी संजीव शुक्ल1 Oct 2022 (अंक: 214, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
पहली बार इतने अजब-ग़ज़ब निर्णयों से सामना हुआ कि अब लगता है कि कुछ भी सम्भव हो सकता है, असम्भव कुछ भी नहीं। अब जैसे कि बिना आई ए एस परीक्षा के भी भारत में सिविल सेवकों की कल्पना की जा सकती है। सेना की भर्ती भी संविदा पर हो सकती है। शुरू-शुरू में लोग-बाग बेचैन हुए कि सेना में भी संविदा!! यह तो बहुत ग़लत है!! फिर इस नैरेटिव को तोड़ने के लिए सामने आया हमारा खाया-पिया-अघाया और सेवारत वर्ग जो वर्तमान सत्ता के कुशल नेतृत्व में भारत के विश्वगुरु बनने के प्रति लगभग आश्वस्त हो चुका था। इस वर्ग ने इस कालजयी योजना के फ़ायदे बताने शुरू किए और फिर देखते-देखते यह योजना हम सभी को क्रांतिकारी लगने लगी। निर्णय तो यह भी लिया गया कि अबसे तक्षशिला बिहार में स्थित माना जाएगा। पाकिस्तान चिल्लाया करे कि तक्षशिला हमारे यहाँ है, हम नहीं मानते तो नहीं मानते। अब तक की सरकारें पाकिस्तानपरास्त थीं, इसलिए उनसे इस तरह घोषणा की उम्मीद की भी कैसे जाती? इसके अलावा पिछली सभी सरकारें लीज़ पर थीं, कहने का मतलब वह पूर्ण संप्रभु सरकारें नहीं थीं। नेहरू को पूर्ण आज़ादी नहीं मिली थी, वह तो कांग्रेसियों ने सिर्फ़ भरम फैला रखा था कि हमने आज़ादी पा ली। लिहाज़ा तक्षशिला के भारत में होने की घोषणा करना उनके बस में नहीं था। हमने वर्बल स्ट्राइक की। हमने दिखा दिया कि एक जुमले से भूगोल का इतिहास कैसे बदला जा सकता!! हालाँकि इसके पीछे इतिहास बदलने की हमारी पुरानी कारिस्तानियों का एक लंबे अनुभव का भी योगदान रहा है। अब देखिए न कि किस कुशलता से हमने अपने उन नायकों को जिन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को कुचलने में महती भूमिका निभाई, को परे रखकर, गाँधी और नेहरू की राष्ट्रभक्ति पर सवाल खड़े कर दिए। और सिर्फ़ यही नहीं आप देखिए कि किस तरह हमने गाँधी और नेहरू की क़ैदों को रेस्टहाउस में आरामतलबी बताकर उनके योगदान को सिरे से ख़ारिज कर दिया।
द्विराष्ट्रवाद के तहत बँटवारे की माँग हमारे पुरखों की थी, लेकिन देखिए किस कुशलता से हमने नेहरू एंड कम्पनी को बँटवारे का ज़िम्मेदार बता दिया। और तो और इनका इतिहासबोध भी ग़ज़्ज़ब का है। कई नई जानकारियाँ भी हासिल हुई, जैसे कि राणाप्रताप के चेतक की माँ गुजराती थी और नानक, कबीर और गोरखनाथ जी में खुलकर शास्त्रार्थ हुआ था।
ख़ैर . . .
हाँ तो बात अजब-ग़ज़ब निर्णयों की थी।
इसी क्रम में एक निर्णय योजना आयोग नाम बदलने का भी था। यह निर्णय हमें थोड़ा अधिक तर्कसंगत और कार्य-कारण परंपरा से जुड़ा हुआ लगा। सही बात है जब योजनाएँ ही नहीं बनानी तो योजना आयोग का मतलब भी क्या? जब दूसरे देश के फ़्लाईओवर और पुल की फोटो दिखाकर काम चल जाता है तो भारतीय संसाधनों का क्या दुरुपयोग करना! जब आधे-अधूरे अस्पतालों, यहाँ तक कि बिना बने एम्स तक का लोकार्पण हो जाता है, तो स्टॉफ़ रखकर भारतीय राजस्व पर अतिरिक्त भार डालना कहाँ की बुद्धिमत्ता होगी? अभी-अभी पाठक भाईसाब की पोस्ट से पता चला कि नए सीडीएस जो तीनों सेना प्रमुखों के ऊपर होंगे, ऐसे व्यक्ति को बनाया गया है, जो कभी किसी सेना का प्रमुख नहीं रहा। इसको लेकर लोग-बाग चिंता ज़ाहिर कर रहें हैं और वरिष्ठता को लेकर भी चिंताकुल हैं। समस्या वाजिब है पर हमें इसे सकारात्मक दृष्टि से देखना चाहिए। इसके लिए थोड़ा सा आपको कल्पनाशील होना होगा।
जब आप वर्तमान परेशानी की तुलना में और बड़ी परेशानियों की कल्पना करेंगे तो वर्तमान मुश्किलें आसान लगने लगेंगी। यह समस्या भी आसान दिखेगी जब आप यह सोचेंगे कि अरे यह क्या कम है कि सीडीएस पूर्व सेनाधिकारी ही है। सोचिए अगर किसी नेतापुत्र को बना दिए होते तो? इसलिए परेशान न हों इसलिए सकारात्मक बनिये।
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