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एक अदद पुरस्कार की ज़रूरत

बड़ी ग़ज़ब चीज़ है पुरस्कार!! यह स्वयं में उपलब्धि है। उपलब्धि इस मायने में कि कई बार आदत न होने के बावजूद अच्छे काम करने की भरसक कोशिश इसलिए की जाती है, ताकि कोई पुरस्कार झटका जा सके; और अगर कोशिश न भी हो पाए (और नहीं ही हो पाती है) तो कम से कम काग़ज़ तो पूरे होने ही चाहिएँ ताकि पुरस्कार लेने में कोई दिक़्क़त न पेश आए। पुरस्कार लेने के लिए समर्पण होना चाहिए। तय मानक और शर्तें पूरी होनी चाहियें। रूप-विन्यास होना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे जनसेवा के लिए एक अदद सफ़ेद कुर्ता-पैजामा होना चाहिए। फिर जनसेवा तो ख़ुद-ब-ख़ुद दिल में उछाल मारती है और दलित और प्रताड़ित उनके ख़ास निशाने पर रहते हैं। आपदा में अवसर देखने को निगाहें बेचैन रहती हैं। 

एक भूखे आदमी को एक केला पकड़ाते हुए फ़ोटो खिंचवाना और फिर उसे सोशल मीडिया पर डाल देना बताता है कि बंदे के अंदर अब करुणा की उत्ताल लहरें सुनामी बन चुकी हैं जो उसे कभी भी जनसेवा के भँवर में डूबा सकती हैं। अब इस पवित्र भावना के लिए एक अदद पुरस्कार तो बनता ही है। यह पुरस्कार सिर्फ़ इसलिए नहीं कि उसने जनसेवा में अप्रतिम योगदान दिया है, और इसलिए भी नहीं कि उसने जनसेवा को एक ग्लैमरस लुक दे दिया बल्कि इसलिए भी कि उसने एक केले से पता नहीं कितने लोगों की क्षुधा शांत की होगी!! यह करिश्माई हुनर सिर्फ़ हम भारतीयों के पास है। इसीलिए सर्वाधिक पुरस्कार हम भारतीयों की झोली में आते हैं। अब इस हुनर पर कोई देश जले तो जलता रहे। 

अब पुरस्कार हमारी आदत बन चुके हैं। इसके लिए ज़रूरी वैचारिक फ़्लेक्सिबिलिटी की पर्याप्त समझ बाहरी लोगों को आश्चर्यचकित करती होगी। सत्ता के हिसाब से लिखने-पढ़ने-बोलने की आदत डाल लेने पर पुरस्कार ख़ुद पुरस्कृत होने के लिए आपके पास चलकर आएँगे। 

हाँ, पहले ज़रूर हम पुरस्कारों को लेकर कंगाल थे पर अब समय बदल चुका है। अब जागरूकता बढ़ी है। 

क्योंकि पुरस्कार आख़िर पुरस्कार है। 

पुरस्कार एक तरह से सम्मान है। हम भारतीयों के जीवन में सम्मान का विशिष्ट महत्त्व होता है। इस नश्वर संसार में एक सम्मान ही तो है जिसके कारण मरने के बाद भी अपने नाम के जीवित रहने के सुख से आनन्दित रहा जा सकता है। 

एक सम्मान की ख़ातिर ही हम खेतों की मेड़ को लेकर या तुच्छ नाली के बहाव को लेकर भिड़ जाते हैं। और तो और सम्मान के कारण ही शंकर भगवान जगदीश हुए। वह दोहा है न “मान सहित विष खाय के शम्भु भये जगदीश।” 

इसीलिए हमारा सम्पूर्ण जीवन पुरस्कार रूपी सम्मान के इर्द-गिर्द ही घूमता है। पुरस्कारों के औचित्य के मूल में यही सम्मान है। वैसे तो हर क्षेत्र में पुरस्कारों की ख़ास माँग रहती है, पर साहित्य सृजन और जनसेवा की फ़ील्ड में इसका ज़बरदस्त स्कोप है। ओढ़ाने वाली शाल, माला और राशि इसके आवश्यक तत्त्व हैं। इनके बिना पुरस्कार की क्रियाविधि सम्पूर्ण नहीं मानी जाती है, इसलिए कई बार जब पुरस्कार प्रदाता के पास देने के नाम पर सिर्फ़ अपने कर-कमल ही होते हैं, पुरस्कार प्राप्तकर्ता को यह व्यवस्था स्वयं के प्रयासों से जुटानी पड़ती है . . .

तमाम ख़ूबियों से पटे पुरस्कारों की एक ख़ूबी यह भी है कि पुरस्कार देने वाले और पाने वाले दोनों ही यश के भागी होते हैं। इसीलिए सरकारें मुक्त हस्त से पुरस्कारों का वितरण करती है। आप इसे एक तरह से पुरस्कारों का लोकतांत्रिकीकरण भी कह सकते हैं। यह विशिष्ट से सामान्यीकरण तक की यात्रा है। भाई बात भी सही है, हर आदमी को पुरस्कृत करने और होने का अधिकार है। विशिष्टता के नाम पर पुरस्कारों को दबाकर रखना बहुत ही असहनीय है। ध्यातव्य है, जनचेतना के विकास और दबाव से सरकारें इस दिशा में काफ़ी संवेदनशील भी हुईं हैं और वे अब पुरस्कारों के मानकों में ढील देकर उन्हें सांत्वना पुरस्कारों की हद तक घसीट लाईं हैं। इन पुरस्कारों ने बहुतों के मुरझाए चेहरों पर रंगत लौटाई है। मरणोपरांत पुरस्कार देने का चलन अब बीते दिनों की बात हो गयी। और वैसे भी, ऐसे चलन नकारात्मक दुष्प्रभाव की संभावनाओं के चलते लोककल्याणकारी राज्य में ठीक नहीं। कारण, लोग पुरस्कार झीटने के लालच में आत्महत्या तक कर सकते थे। 

कुलमिलाकर पुरस्कार सिर्फ़ आनंद और पहचान ही नहीं देता बल्कि साहित्य-सृजन के लिए उर्वर परिस्थितियाँ भी तैयार करता है, एक उत्साहपरक माहौल देता है। प्रायः देखा गया है कि पुरस्कार की चाहत ने ऐसों-ऐसों को लेखक बना दिया है जो ‘मसि कागद छुयो नहि, क़लम गह्यो नहि हाथ’ की धारणा में खुलकर यक़ीन रखते थे। कुछ लोग तो पुरस्कार के चक्कर में कई किताबें लिख मारते हैं। वह रचनात्मक होते-होते दर-रचनात्मक हो जाते हैं। उनके विपुल साहित्य सृजन के पठन का भार पाठक वर्ग के कोमल कंधों पर आ गिरता है जो पहले से ही पठन-पाठन की निस्सारता को समझ अपने कंधे को भारमुक्त रखने की प्रतिज्ञा ले चुका है। यद्यपि यह साहित्यिक संस्कारों के अंतिम संस्कार के और मूल्यहीनता के लक्षण हैं, तथापि हमारी सामाजिक चेतना अभी इतनी कमज़ोर नहीं हुई है कि वह अपने किसी भाई के पुरस्कार हासिल करने पर ख़ुशी न जता सके। और यही पुरस्कार की महत्ता भी है कि लोग यह जाने बिना कि अमुक एवार्ड किस लिए दिया गया है, सिर्फ़ घोषणा सुनते ही पुरस्कृत व्यक्ति के प्रति श्रद्धावनत हो जाते हैं। 

इसके अलावा पुरस्कार के अपने फ़ायदे हैं। सोसायटी में चार लोग जानने लगते हैं, लोगों की दुआ-सलाम बढ़ जाती है। कोई शासकीय प्रोग्राम है तो मंच पर भी जगह मिल ही जाती है। कई बार सभा की अध्यक्षता भी हाथ लग जाती है। 

पुरस्कार रूपी उत्तोलक से लेखक की प्रतिष्ठा में भारी उछाल आ जाता है। पुरस्कार लपकते ही बल्कि यह कहिए कि घोषणा होते ही उस विशिष्ट जीवधारी की शारीरिक संरचना में परिवर्तन आने शुरू हो जाते हैं। मसलन अगर कोई एक-आध महीने से तिरछा-तिरछा चलने लगे और बात-बात में उसके मुँह की भंगिमाएँ कथकली करने लगें तो जान जाइये कि यह पुरस्कार या तो झपट चुका है या झपटने वाला है। इससे चेहरे पर रौनक़ बढ़ जाती है, चाल बदली-बदली सी नज़र आती है, बोलना बेहद कम हो जाता है, बहुत बुलकारने-पुचकारने पर साहब गिनती के शब्द बोलते हैं। पुरस्कार की घोषणा होते ही कुछ लोग ऐसी तीतुर चाल में फुदकने लगते हैं जैसे अब वह पुरस्कार भी चुगकर ही उठाएँगे। 

पुरस्कार मिलते ही ख़ुद के बुद्धिजीवी होने और लोगों के बेवक़ूफ़ होने का अहसास होने लगता है। पुरस्कार किसी भी क्षेत्र का हो, पाने से बित्ता भर छाती ख़ुद-ब-ख़ुद चौड़ी हो ही जाती है। यह शरीर में झुरझुरी पैदा कर देता है। आदमी चाहे जितना कमज़ोर हो, लाख चलने-फिरने में नाकाबिल हो पुरस्कार का नाम सुनते ही व्हीलचेयर पर बैठकर दनदनाता हुआ चला आता है। कुछ लोग पुरस्कार मिलने में लेटलतीफ़ी देख पहले से ही व्हीलचेयर बनवा लेते हैं ताकि इसके लिए उन्हें अपने श्रवण कुमारों की चिरौरी न करनी पड़े। व्हीलचेयर पर पुरस्कार लेने का रोब ही अलग ग़ालिब होता है। 

पुरस्कार का एक फ़ायदा यह भी है कि आप कभी भी वापसी की घोषणा कर घर बैठे हाइलाइट हो सकते हैं। 

सो जाइये और कम से कम एक अदद पुरस्कार ज़रूर जुगाड़िये! 

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