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काँइयाँ मेज़बान

 

आजकल मेज़बान भी बहुत काँइयाँ हो गए हैं। पहले बुलाते हैं और फिर ख़ुदै किसी काम से बाहर निकल लेते हैं। कई बार तो भाईसाब, ये मेज़बान इत्ते बड़े वाले होते हैं कि वे आपको बुलाकर आपको आपके हाल पर छोड़कर, ख़ुद दूसरे के मेहमान बनने निकल पड़ते हैं। आप चाहे जित्ते तीसमारखाँ हों, चाहे जित्ता आपका डंका बज रहा हो वे इसका तनिक ख़्याल न करेंगे, वे आपकी लंका लगाकर ही मानेंगे। 

इस तरह की घटनाएँ इधर के कालखंड में कुछ ज़्यादा ही हो रही हैं पहले ऐसा नहीं था। पहले का तो यह आलम था कि अगर आप अपनी ससुराल जाते, तो पूरा का पूरा गाँव आपको हाथों-हाथ लेता। पूरा गाँव आपको दामाद या बहनोई की तरह प्रोटोकॉल देता। अब होंगे बहनोई औ दमाद किसी के; उनके ठेंगे से। पुराने ज़माने में अगर आपके आने की ख़बर ससुराल वालों को है, तो बाक़ायदा खटिया पहले से ही कालीनमय मिलती थी, अब तो कहो, ख़ुदै बिछाओ औ ख़ुदै बैठो। अब तो पावैं उल्टे खटिया खड़ी कर दें। ख़ैर . . .

यह हवा अब गाँव-गौहान तकै सीमित नहीं है, बल्कि अब तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यही हाल है। सुनते हैं, वहाँ भी बेहयाई पसर गयी। अब देखो न इधर कई बार ऐसा हुआ कि अपने वे गए और वहाँ हवाई अड्डे पर सब हवा-हवाई मामला!! वहाँ कोई ज़िम्मेदार तक नहीं। बताओ भला कहीं ऐसा होता है! वहीं के किसी अधिकारी को गुलदस्ता पकड़ा के बिजूका की तरह खड़े करवा दिए। वो तो कहिये अपने वाले बहुत होशियार हैं, अपने साथ गाने-बजाने औ नाचने-कूदने वाले संग ले जाते हैं, तो कम से कम सन्नाटा तो नहीं रहता। पूरा इवेंट वाली फ़ीलिंग रहती सो अलग! फुल धूमधड़क्का। 

इसके अलावा इस उछलकूद की कवरेज के लिए रफूगर भी साथ होते हैं, जो दीन-दुनिया के सामने स्थिति सँभाले रहते हैं। 

यह अच्छा तरीक़ा है। भाई अपनी इज़्ज़त अपने हाथ। 

लेकिन सुना इस बार तो मेज़बान ने हदै कर दी! जब हमारे वो गए तो उस जहाँ के मुखिया ने दूसरों की देखादेखी में हमाए उनकी अगवानी में फिर से एक छुटभैये को भेज दिया और ख़ुद किसी और की अगवानी में निकल लिया। अब चारों तरफ़ तो हल्ला मच गया कि इनकी तो कोई पूछै नहीं है समाज में। अब इसकी तो कोई रफूगिरी भी नहीं। सो हमाए वाले ने इसे दिल पे ले लिया। उन्होंने जहाज़ से उतरने से ही मना कर दिया। लेकिन बिचारे कित्ती देर उसमें बैठते। सो मानमनौव्वल से तुरंत मान भी गए। 

वैसे कुछ जानकार लोग कहते हैं कि अपने देश की स्वतंत्रता की लीज़ ख़त्म होने वाली है और यह बात लोगबाग जान भी गए हैं, सो वे अब इज़्ज़त देने में टाराबराई करने लगे हैं। 

हालाँकि हमें यह बात बहुत वज़नदार नहीं लगती। कुछ लोग भले ही इसे दस्तावेजी प्रमाण के रूप में देखते हों, लेकिन हमारी देशभक्ति इसको स्वीकारने से बग़ावत करती है। हम इसे कोरी अफ़वाह ही मानेगें। 

दरअसल इज़्ज़त न बख्शने के इन मामलों के पीछे असली वजह तो हमें दुनियावी हवा लगती है। आजकल की नई पीढ़ी पढ़ाई-लिखाई के बावजूद जाहिल होती जा रही है। अब संस्कार नाम की कोई चीज़ रही ही नहीं। आजकल हर आदमी अपने को डंकापति समझे बैठा है। 

हम तो कहते हैं कि भाई अब थोड़ा अपनी सोच में तब्दीली लाओ और ज़्यादा कहीं आने-जाने से बचो। 

अब आप ही बताइये कि अगर हम किसी के दरवाज़े पर जाएँ और वह कमबख़्त उठकर अगवानी के लिए भी न आए, तो ऐसी जगह जाने से का फ़ायदा?? हम तो कहते हैं कि इस तरह की बढ़ती वारदातों के चलते अगर कहीं जाना निहायत ज़रूरी ही हो, तो पहले से एफिडेविट भरवा लेना चाहिए कि आप रिसीव करने ख़ुद आएँगे और अगर नहीं, तो हम आने से रहे। 

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