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ख़ुशियाँ अपनी-अपनी

ख़ुशी और संतुष्टि हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है। यह उसके नज़रिये पर निर्भर करती है कि उसे किस चीज़ में ख़ुशी और संतुष्टि मिलती हुई दिखती है। 

भई! पैमाने अपने-अपने! 

मसलन जो राजनीति के ज़रिये परिवर्तन का आकांक्षी है, उसके ख़ुश होने की अपनी वज़हें हैं और जो क़लम से घर बैठे क्रांति करने के सपने देख रहा है, उसकी अपनी वज़हें हैं। किसी को सन्तुष्टि जनकल्याण में मिलती है, तो किसी को ख़ुद के कायापलट में। किसी की ख़ुशी जनता की लड़ाई लड़ने में होती है, तो किसी को आपस में ही लड़वाने में मज़ा आता है ताकि गोलबंदी वोटों में तब्दील होकर उसकी ख़ुशियों में इज़ाफ़ा कर सके। अपने यहाँ ख़ुशी और संतुष्टि के इतने विविध स्रोत हैं कि इसके आधार पर ही भारत के विविधतापूर्ण समाज की अवधारणा को पुष्ट किया जा सकता है। 

ख़ुशियाँ अपने चारों तरफ़ बिखरी पड़ी हैं, बस ज़रूरत है उनको देखने की, महसूस करने की। तरह-तरह की ख़ुशियाँ हैं। 

अब जैसे कि राजनीति के मैदान में अपने विरोधी के विस्थापन से और ख़ुद के स्थापन से ख़ुशी मिलती ही है। यह सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह उत्फुल्लता की दशा है। परम संतुष्टि भी मिल सकती है, यदि आप विपक्ष मुक्त की अवधारणा से प्रेरित हो विपक्ष का उन्मूलन कर सकने में समर्थ हों। 

इस तरह छोटी-छोटी ख़ुशियों का जो सुख है, वह जीवन को मरने नहीं देता। प्रायोजित तरीक़े से जब अपने विरोधी के चरित्र हनन की भ्रामक ख़बरें परवान चढ़ने लगें तो उससे मिलने वाली ख़ुशी कुछ और ही होती है! जब अपने घर के नेता कुछ बताने लायक़ न किये हों या जो किये हों वो छुपाने लायक़ हों तब गाँधी-नेहरू के फोटोशॉप करके लोगों को भरमाने की जो ख़ुशी मिलती है वह किसी उपलब्धि से कम नहीं! 

जहाँ तक हमारी बिरादरी की ख़ुशी की बात है तो हम लोगों की ख़ुशी इसी में है कि लिखा हुआ छप जाए और छपा हुआ बिक जाए। प्रगतिशील होने पर अगर आप चाहे तो ख़ुद बिककर भी छप सकते हैं। 

कई बार ख़ुशी अल्पकालिक होती है, महत्त्वाकांक्षी तो ख़ैर होती ही है वह। एक ख़ुशी मिलने पर वह दूसरी और बड़ी के लिए तरसने लगती है। और हाँ, कई बार ख़ुशियाँ ईर्ष्यालु भी होती हैं। दूसरे को सम्मान मिलता देख प्रायः ख़ुशियाँ ख़ुदकुशी कर लेती हैं, बशर्ते उनके जलन का स्तर कुछ ख़ास टाइप के राजनीतिक-मज़हबी संगठनों की प्रतिबद्धता जैसा हो। लेकिन छोड़िए, हम यह सब क्यों कहें? हम उनमें से नहीं! हम तो सबकी बढ़ती चाहते हैं। सम्मान तो अपने को मिलने से रहा, फिर काहे को खुले में कहकर बदनामी मोल लें। 

संतुष्टि का थोड़ा स्थायी मामला है। यह थोड़ी स्थायी ख़ुशी है। संतुष्ट होना भी प्रवृत्तिगत है। कभी-कभी लोग अच्छा लिखकर संतुष्टि महसूस कर सकते हैं। लोगबाग आपके लिखे की तारीफ़ झोंके तो संतुष्टि स्वाभाविक है। आप मन में सोचेंगे कि धोखे से ही सही पर अच्छा लिख गया। कभी-कभी संतुष्टि इस बात से भी हो सकती है कि फलाँ लाख कोशिश करने के बावजूद पुरस्कार की दौड़ से बाहर हो गया। 

कभी-कभी दूसरे के महत्त्वपूर्ण अवदान को दो कौड़ी का साबित करके जो सन्तुष्टि मिलती है, उसे सिर्फ़ महसूस ही किया जा सकता है। यह वह ख़ुशी है जो कलेजे को ठंडक देती है। यह परमानन्द की अवस्था है। ऐसे ही जब तमाम घोर सन्तुष्टियाँ हस्तगत होने लगें, तब समझ लीजै कि आप सफल जीवन जी रहें हैं। 

जब अपने लिखे हुए की ख़ूब वसूली होने लगे और ख़ूब मानदेय मिलने लगे तब समझिए कि आप सफल जीवन जी रहे हैं। आपके ज़िन्दा रहते लोग किसी साधारण साहित्यिक सभा तक के सभापति बनने को तरस जाएँ और लोग आपके मरने की कामना करने लगें तो समझिए कि आप सफल जीवन जी रहे हैं। 

कुछ लोग महज़ संतुष्टि के लिए ही लिखते हुए पाए गए हैं। कहते हैं कि हमको ख़ुशी मिलती है। भगवान जाने! वह इसे तुलसी की तरह स्वां० सुखाय बताते हैं। इशारे-इशारे में वे अपने लिखे के लेवल का भी संकेत कर देते हैं। 

ये लोग बड़े काइयाँ होते हैं। संतुष्टि की आड़ लेकर ये भाई लोग इसलिए लिखते हैं कि लोगों को पढ़ने के काम पर लगाया जा सके। मने एक तरह से दूसरों को फँसाने की ख़ुशी, जिसके उत्पाद रूप में विचारक कहलाने की ख़ुशी तो शामिल हैय्ये है। ख़ुद को बड़े विचारक जताने की इच्छा क़लम हाथ में पकड़ा ही देती है। और हाँ, लिखना तब और आवश्यक हो जाता है, जब मन में यह चिंता भर जाए कि फलाँ विषय पर हमसे पहले कोई और न लिख डाले और मिलने वाली वाहवाही की ख़ुशी कोई और झटक ले। 

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