मंत्री जी की चुप्पी
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी संजीव शुक्ल1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
"क्यों भाई, मंत्री जी ने मंत्रिपद की शपथ लेते समय क्या चुप रहने की भी शपथ ली थी? विपक्ष में थे, तो कम से कम बोलते तो थे बेचारे," निष्ठावान कार्यकर्ता ने चिंतित स्वर में बहुत मासूमियत से पूछा।
"और हाँ, अब तो किसी की निंदा भी नहीं करते, जिसके लिए एक समय मशहूर थे अपने नेताजी!
"अब देखिये न! जबकि एक से एक बेहतरीन मौक़े आए, सब के सब गँवा दिए! एक वह समय था जब निंदा अभियान को आकाशीय ऊँचाइयाँ देने के लिए साहब ऐसी घटनाओं की तलाश में रहते थे।
"और हाँ, पहले बताते थे कि हम पैदाइशी किसान हैं, पर आज किसान आंदोलन भी मंत्री जी की ज़ुबान न खुलवा सका।"
एक दूसरे कार्यकर्ता ने अपनी चिंता को किसान आंदोलन से जोड़ते हुए बताया। वहाँ मौजूद लोगों ने भी सामयिक चिंता में घुलते हुए हाँ में हाँ मिलाई।
"समस्या तो वाक़ई में गंभीर है," तीसरे ने कहा। "विपक्ष में रहते समय भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, जमाख़ोरी, अपराध और काला धन जैसे मुद्दे जो कभी अपने नेताजी के बहुत प्रिय मुद्दे हुआ करते थे, जिन पर वह घण्टों बोल सकते थे और बोल सकते क्या बल्कि बोलते ही थे, पर आज सब के सब बेअसर साबित हो रहे! इधर एक बार बोलने की कोशिश भी की तो हकलाने से लगे।
"कहीं अपने मंत्री जी की आवाज़ ही तो नहीं चली गई।
"चलो मन्त्रियाइन से बताएं चलकर कि साहब को किसी बढ़िया डॉक्टर को दिखाएं, नहीं तो क्या पता मर्ज़ कितनी बढ़ जाए," ऐसा कहकर वह इस पर और गम्भीर विमर्श की चाहत में बैठा रह गया।
"सही कहा अर्सा हो गया अपने मंत्री जी को बोले हुए। पहले तो ऐसे न थे। बात-बात पर भरी सभा में बहस के लिए ललकारते थे। पता नहीं कितने आंदोलन तो अपनी लपलपाती जिभ्या से कर दिए!
"पर अब क्या हो गया?
"पता नहीं घर में बोलते हैं या वहाँ भी कालिदास-विद्योतमा स्टाइल में संवाद करते हैं," दूसरे कार्यकर्ता ने मंत्री जी के व्यवहार में आए इस अप्रत्याशित परिवर्तन की तरफ़ सबका ध्यान खींचा।
तभी अचानक मंत्री जी किसी काम से पार्टी कार्यालय में दाख़िल हुए। सब खड़े हो गए। लोग मंत्री जी की तरफ़ सहानुभूति से देखने लगे। मंत्री जी ने सदाशयता में बैठने का इशारा किया।
"क्या मर्ज़ वाक़ई में लाइलाज़ है?" मंत्री के इशारे को अपनी समझ देते हुए एक ने बग़ल वाले से दबी आवाज़ में पूछा।
तभी मंत्री जी ने बहुत धीमी आवाज़ में पूछा, "क्या बात है भाई, एकदम सब लोग चुप क्यों हो गए?"
कुछ लोग आवाज़ सुनकर चहके।
एक ने बोलने का प्रस्ताव पेश करने के अंदाज़ में कहा कि सर आजकल आप राजनीतिक मुद्दों पर कुछ बोलते नहीं हैं।
मंत्री जी ने बताया कि अब बोलें कि काम करें। ईश्वर ने मौक़ा दिया काम करने का, इसे बोलकर गँवाना नहीं है। हम सरकार के साथ बँधे हैं। ऐसा कहकर उन्होंने कुछ अपने को खोला।
"सर अब तो आंदोलन भी कुचले जा रहे हैं। क्या अब लोकतंत्र में यह भी होगा! किसान आंदोलन भी . . . कुछ तो बोलिये सर!"
"और सर निंदा . . . "तभी एक और कार्यकर्ता ने सवाल दागा।
मंत्री जी ने समझाते हुए कहा कि निंदा दूसरों की जाती है, अपनों की नहीं। इधर तो जितने भी निंदनीय कार्य हुए सब अपने ही कर रहे हैं, तो अब किसको क्या कहें? हम तो इंद्रप्रस्थ के सिंहासन से बँधे हैं। और रही बात बोलने की तो भई, यह अपने विभाग का मामला नहीं है। हम तो दूसरे विभाग के मंत्री हैं। फिर भी हमें आंदोलनकारियों से पूरी सहानुभूति है। उन्हें ऐसी जगह जाने से बचना चाहिए जहाँ उन्हें नुक़सान हो। बचाव ही रक्षा है। और फिर सरकार भी लॉ एंड ऑर्डर से बँधी है। ऐसा कहकर मंत्री जी ने किन-किन परिस्थितियों में क़ानून का राज लागू हो सकता है, को बताने की कोशिश की।
"सर जी बताते हैं कि सरकार के कई निर्णय आपको भी नहीं पसंद हैं, अगर ऐसा है तो आपको खुलकर कह देना चाहिए। सर जी कम से कम ग़लत निर्णयों को तो ग़लत कहा ही जाना चाहिए," एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने अपने मन की बात कही। मन की बात का जनता की तरह उन पर भी असर न हुआ।
नेताजी ने बताया कि मंत्री होने के नाते हमारे हाथ बँधे हैं। हम इतना ही कर सकते हैं कि हम चुप रहें, इसीलिए हम चुप रहते हैं। हमारी चुप्पी बोलती है।
"सच के लिए क्या कहना! देर से ही सही वह तो ख़ुद-ब-ख़ुद सबके सामने आ जाएगा," मंत्री जी के दार्शनिक अंदाज़ से सभी कार्यकर्ता लहालोट होने ही वाले थे कि तभी नेता जी ने बड़े निर्विकार भाव से विमर्श को वहीं छोड़ते हुए कहा कि ख़ैर छोड़िए इन बातों को, आप लोग अपने-अपने काम बताइये।
कार्यकर्ता मंत्री को ढेर सारा बोलते देख ख़ुश हुए। वह समझ गए कि उनके न बोलने की भी कुछ अपनी वज़हें हैं।
उनमें सच बोलने की क़ुव्वत भले न हो पर खुलकर झूठ बोलने की आदत अभी नहीं पड़ी है। 70 साल के लोकतंत्र में यह उपलब्धि क्या कम है! वह ज़िंदाबाद के नारे लगाने लगे।
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