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आत्मसाक्षात्कार का ट्रेंड

इधर साहित्य जगत में एक ट्रेंड सा चल रहा है, आत्मसाक्षात्कार देने का। 

अब मंत्रियों या राजप्रमुखों की तरह इन बेचारों से तो कोई साक्षात्कार लेता नहीं, सो ख़ुदै अपना साक्षात्कार लेने या देने की परंपरा बैठा दिए। अब बैठा दिए तो कोई बात नहीं लेकिन हमको काहे लाइन में खड़ा कर दिए। 

साहित्यकारों के एक गुट का कहना है कि हम लोग मंत्रियों की तरह फीता औ कैंची जेब में रखके तो चलते नहीं, जो राह चलते उद्घाटन-अनावरण करके जयजयकार करवा लें। बात सही है। नेताओं की बात और है, उन्हें तो अपना-बिराना किसी का भी प्रोजेक्ट हो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बस कैंची-फीता अपना हो। हम लोग ज़्यादा से ज़्यादा अगर कुछ करेंगे भी तो किसी की रचना को अपना बता सकते हैं, वह भी दबे-छुपे बस। ग़ालिब बहुतों के काम आए। पर कॉपीराइट क़ानून के चलते अब वह भी गुंजाइश कहाँ . . .

वो कहते हैं कि अपने पास तो बस क़लम है, सो उसी का सहारा। यदि क़लम से अपने बारे में लोगों को बताया जाए तो बात ही कुछ और होगी। क़लम आज अपनी जय बोल! 

इस निगाह से आत्मसाक्षात्कार में ख़ासी गुंजाइश है। आत्मसाक्षात्कार को "ख़ुद से ख़ुद की मुलाक़ात" या "आईना में हम" जैसे ख़ूबसूरत नाम भी दिए गए। शायद उन्होंने इसमें ख़ुद के उछलने-उछालने की असीम संभावनाएँ देख लीं हों। 

हाँ, तो ऐसा ही एक आत्मसाक्षात्कार देने की पेशकश हमसे भी की गई। वजह जो भी हो, लेकिन इस अयाचित सम्मान के लिए हम क़तई तैयार न थे, लिहाज़ा डर व था। 

यद्यपि साहित्यकार होने की अपनी बाहरी तैयारी पूरी थी, मसलन फ्रेंच कट दाढ़ी, फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल के लिए बिखरी किताबों के बीच चिंतित मुद्रा में खिंचवाई गयी फ़ोटो आदि-आदि। इसके अलावा टी स्टालों पर खड़े होकर साहित्य की अनदेखी करती नई पीढ़ी पर चिंता व्यक्त करने की नियमित कार्यवाही करता ही था। लोग चेहरे पर चिंता की गाढ़ी लकीरें देखकर नई पीढ़ी को दुत्कारने लगते। हालाँकि चेहरे पर चिंता की मुख्य वजह कई बार आगे बढ़कर चाय के भुगतान को लेकर के ही होती। 

ख़ैर इन सब चीज़ों के बावजूद आत्मसाक्षात्कार आत्महत्या जैसा कुछ लग रहा था। 

आत्मसाक्षात्कार, मने ख़ुद ही पूछो और ख़ुदै जवाब दो। 

भई जे का बात हुई!! अब इसमें क्या मज़ा? 

हम साक्षात्कार के इस फ़ॉर्मैट के लिए क़तई तैयार न थे। 

हम तो उस साक्षात्कार की राह तक रहे थे, कि कोई डायरी लेकर आए और हमसे कहे कि साहब आपका इंटरव्यू लेना है। हम तो वीआईपी वाली फ़ीलिंग में थे। हम उन साहब वाला फ़ॉर्मैट चाह रहे थे, जिसमें सब कुछ पहले से तयशुदा हो। मसलन ऐसे सवाल हों, जैसे कि आप आम चूसकर खाते हैं या काटकर। आप चाय दूध वाली पीते हैं या नींबू वाली। 

मगर सबका नसीब ऐसा कहाँ होता है! 

यहाँ तो तब भी पास होते-होते बचे, जब उत्तर प्रदेश सरकार ने सबको पास करने की ज़िद सी ठान ली थी। छात्रों के बीच हद से ज़्यादा लोकप्रिय इस सरकार द्वारा छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए परीक्षाओं में सपुस्तकीय योजना का लोकार्पण किया गया था। मने बीच इम्तहान में आप पुस्तक खोलकर हर प्रश्न का उत्तर पेज नम्बर सहित तक छाप सकते थे और इग्ज़ामिनर शुरूआत में कॉपी देने और आख़िर में जमा करने के अलावा कुछ न कर सकते थे। लेकिन हाय क़िस्मत . . . जवाब तब भी ढूँढ़े न मिले। बताइये ऐसी सरकार के कार्यकाल में भी मैं लुढ़का जो परीक्षार्थियों को अगली कक्षा में धकेलने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध थी, पर नियति के आगे कब-किसकी चली है! 

सो अपनी क़िस्मत आज भी ख़राब थी। रिक्वेस्टकर्ताओं ने एक न सुनी। बोले यही तो कसौटी है ख़ुद को परखने की। यह सब के बस की बात नहीं, यह आप जैसे पढ़-लिखे ही कर सकते हैं, कहकर पानी पर चढ़ाया। 

मैं जानते-समझते गिरफ़्त में आ ही गया। 

मैंने अपनी दुबली सी जान को हौसला देते हुए कहा ठीक है। पर सवाल? ? 

मैं कुछ क्लू चाह रहा था। 

लोगों ने बताया कि सवाल आपकी अंतरात्मा की तरफ़ से आएँगे। 

मैं दुविधा में फँसा, क्योंकि आत्मा से तो कब की बोलचाल बन्द थी अपनी। पता नहीं, है भी कि नहीं। 

फिर मैंने सुविधा के लिए सवाल-जवाबों के कई एपिसोड देखे और आत्मा का आह्वान किया। आत्मा जाग उठी थी, जैसे वह मुझसे बतियाने की बाट ही जोह रही थी। उसके ख़ुद के भी कई सवाल थे। 

मैंने ख़ुद को आईने के सामने खड़ा कर दिया। और फिर शुरू हो गया ख़ुद से ख़ुद का साक्षात्कार। 

अब दिमाग़ में जो पहला प्रश्न उभरा वह यह था कि आख़िर आपके क़दम साहित्य की ओर मुड़े कैसे? मेरा प्रश्नकर्ता मन अब खुलकर उभरने लगा! 

अब तक मैं सहज हो चुका था। मैंने बताया कि इसके मूल में सिर्फ़ लोकप्रियता को हड़पने की चाहत भर थी। दरअसल बहुत पहले पड़ोस की एक लड़की की एक कहानी फोटो सहित किसी अख़बार में छपी थी, सो पूरे मोहल्ले में हल्ला हो गया। वह देखते-देखते अपने मोहल्ले की सेलिब्रिटी हो गयी। कोई उसे कल की शिवानी, तो कोई कुछ बताता। हमने तभी से तय कर लिया था कि आधी आबादी के बराबर आकर ही रहेंगे। हमारे भी सपने जुड़ गए थे। इसलिए भविष्य के सपनों को साकार करने के लिए अब क़लम ही एक सहारा थी। 

मैंने सोचा, अब हम भी कुछ क्रांतिकारी जैसा लिखकर दिखाएँगे। ख़ुद क्रांतिकारी बनने में पुलिस के सक्रिय असहयोग के चलते पिटने-पिटाने का भय था, लिहाज़ा वह आइडिया ड्राप करना पड़ा। 

ख़ैर, हमने लिखा और मित्रों को दिखाया। दोस्तों ने दोस्ती निभाते हुए ख़ूब वाह-वाह की। फिर क्या था! एक बार जो साहित्यसेवा का हौसला बढ़ा तो फिर क़दम बहकते ही चले गए। 

अच्छा तो व्यंग्य की तरफ़ कैसे आना हुआ? आत्मा ने अगला सवाल उछाला! आत्मा पेशेवर पत्रकार की तरह पेश आ रही थी। 

मैंने भी मंजे हुए प्रवक्ता की तरह अपने को पेश करते हुए बताया कि यह भी एक महज़ संयोग है। कुछ मित्रों ने कहा कि आपका लहज़ा व्यंग्यात्मक है, इसलिए व्यंग्य में हाथ आज़माइये। और फिर व्यंग्य का प्लॉट ख़ाली पड़ा है, वहाँ खुलकर उछलकूद मचाइये। वहाँ लोग ज़्यादा बाल की खाल नहीं निकालते। वह तो यहाँ आने पर पता चला कि यहाँ तो सबै परसाई हैं। सच पूछो तो साहित्यिक मित्रों के उकसाने पर ही इस फ़ील्ड में आ गया। 

इसे उकसाना क्यों कहा जाना चाहिए? यह तो प्रेरित करना है, आत्मा ने तुरंत टोका! 

मैंने आत्मा को समझाते हुए कहा कि भाई ये साहित्यिक-मित्र अपने बाप के भी सगे नहीं हैं। ये सोचते थे, इनकी साहित्यिक यात्रा का अंतिम संस्कार व्यंग्य की पथरीली सड़क पर हो। पर आप देखते ही हैं कि हमने व्यंग्य में किस तरह असीम संभावनाएँ जगाई हैं। 

लेकिन प्रश्नकर्ता मन तुरंत बेचैन हुआ उसने शंका ज़ाहिर करते हुए कहा कि लोग तो आपके प्रतिद्वंद्वी उन अमुक जी की तरफ़ इशारा करके कहते हैं कि व्यंग्य के क्षेत्र में वे अंगद के पाँव की तरह स्थापित हैं। आपका क्या कहना है? 

नहीं मुझे कुछ नहीं कहना है, मैं किसी की ज़ाती राय पर टिप्पणी नहीं करता। मैंने निरपेक्ष भाव से कहा। 

नहीं-नहीं फिर भी कुछ तो बोलिये, प्रश्नकर्ता मन ने ललकारते हुए कहा! 

भई! यही तो आप लोग ग़लती करते हैं। आप लोग स्थापित मान्यताओं के हिसाब से निष्कर्ष निकालने लगते हैं। अंगद के पाँव स्थिरता का प्रतीक है। जड़ता का प्रतीक है। साहित्य जड़ता का नहीं गतिशीलता का नाम है। हमारी लंबी साहित्यिक यात्रा गतिशीलता का पर्याय है। मैं अपनी दार्शनिकता पर मन ही मन मुग्ध हो रहा था। 

आपको लिखना ही क्यों पसन्द है? आत्मा ने पेशेवर अंदाज़ में सवाल उछाला। 

भाई पसन्द जैसी कोई बात नहीं, लेकिन जितना इस शरीर से बन पड़ता है, करते हैं। विचार कहीं जन्मते ही न मर जाएँ, इसलिए उनको अमरता दिलाने के लिए लेखनी उठानी ही पड़ती है। मैंने सहज भाव से जवाब दिया। 

आप इतनी व्यस्तताओं के बीच कैसे समय निकालते हैं? एक और सवाल आया। 

जी समय तो निकालना पड़ता है। समाज की विसंगतियों पर हम नहीं लिखेंगे, तो फिर कौन लिखेगा? ऐसा कहकर मैंने अटल जी की तरह लम्बा पॉज़ ले लिया। 

जी लिखने का कोई ख़ास समय? 

मुझे यह सवाल औपचारिक पर ज़रूरी लगा। मैंने मुस्कराहट लाते हुए बताया कि वैसे तो कोई ख़ास समय नहीं है। जब-जब अन्याय हुआ क़लम कब अपने दायित्व से पीछे हटी है? 

इतिहास गवाह है क्रांति की शुरूआत ही क़लम से हुई। साम्यवादी क्रांति को अपनी प्रेरणा कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो से ही मिली। जब दुनिया सोती है, तब क़लम जागती है। मन दर्शन के गहरे गोते में उतर गया। 

अच्छा एक प्रश्न और बताइये कि इतने काग़ज़ों का मुँह काला करने के बाद, क्या वजह रही कि आपको अभी तक एको पुरस्कार नहीं मिला? शायद आत्मा ने अपनी उपेक्षा का बदला लिया इस सवाल से। 

लेकिन मैं अब तक अभ्यस्त हो चुका था। 

मैंने कहा कि दरअसल बात यह रही कि इधर पुरस्कार वापसी गैंग की हरकतों के चलते सरकार बहुत सोच-समझकर पुरस्कार बाँटने लगी है। यद्यपि सरकार को बुरा लगने जैसा तो कुछ नहीं लिखा है, पर विरोधी गुट की सेटिंग इस समय ज़्यादा बढ़िया है। ख़ैर हमें इससे क्या? जनता का स्नेह ही हमारे लिए पुरस्कार है। मैंने नहले पे दहला मारा। 

इधर आप सोशल मीडिया पर ज़्यादा लिख रहे हैं, अपेक्षाकृत अख़बारों के। आत्मा ने जैसे मुझे फँसाने की कोशिश की। 

लेकिन ईमानदार को काहे का डर! मैंने खुलकर कहा कि अरे भाई जब अख़बार वाले नहीं छाप रहे, तो क्या लटक रहें, और वैसे भी हम जनता से सीधा संवाद स्थापित करने के पक्षधर हैं और सोशल मीडिया इसके लिए बेहतर मंच है।

सवाल अब कड़ुवे होते जा रहे थे। मुझे लगा यह प्रश्नकर्ता-मन अपनी हदें पार कर रहा है, और पता नहीं क्यों मन में खुली प्रेस कांफ्रेंस का डर सा बैठ गया। लगाकि पता नहीं कौन सा अनचाहा सवाल बनी-बनाई बिगाड़ दे। इसलिए अगला सवाल आए उससे पहले मैंने पेशेवराना ढंग से समय की तरफ़ इशारा करते हुए हाथ जोड़ लिए।

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टिप्पणियाँ

मधु 2022/01/20 10:49 PM

ठहाकों व करतल की गूँजती ध्वनी में अंतरात्मा को दिया गया आपका आत्मसाक्षात्कार न जाने कितने रचनाकारों की सोई 'आत्मा' को जगा गया होगा। और क्या मालूम इसे पढ़ते ही एक-आध साहित्यकार अपनी-अपनी 'आत्मा' ढूँढने निकल पड़े हों, जिन्होंने मान-सम्मान या किसी पुरस्कार पाने ख़ातिर उसे बेच डाला था!

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