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रावण की लोकप्रियता

बहुत समझाने के बावजूद वे अपने अंदर के रावण को मारने के लिए तैयार नहीं हुए। ऐसा नहीं कि उन्हें राम से चिढ़ है या वह सत्य को जीतते हुए नहीं देख सकते। और ऐसा भी नहीं कि नैतिकता उन्हें फूटी आँख न सुहाती हो। सच पूछो तो वह साध्य के आराधक हैं। साधनों का क्या वह तो . . . अगर नैतिकता उनकी चाहतों में अवरोध न बने तो उन्हें नैतिक मान्यताओं से भी कोई ख़ास दिक्कत कभी नहीं रही।

उन्हें पता है नैतिक मान्यताएँ उनके भले न बहुत काम आएँ लेकिन जनता को अमर्यादित नहीं होने देगीं।

दरअसल अपने अंदर के रावण को न मारने की वज़ह बस इतनी सी है कि वह अपनी पहचान नहीं खोने देना चाहते। वे अपनी पहचान के प्रति घोर संवेदनशील हैं। इतने संवेदनशील कि कुछ भी हो जाए पर पहचान बनी रहे। बात भी सही है। अगर अंदर का रावण मर गया तो फिर उनके पास बचेगा क्या? 

जीते जी किसी की आत्मा को इस तरह मारना हमें भी पसंद नहीं। 

इसके अलावा रावण ने क्या ख़ुद अपने आप को मारा था? नहीं न! तो फिर इन नए रावणों से ऐसी अपेक्षा क्यों? 

क्या यह संविधान-प्रदत्त जीने की स्वतंत्रता का खुलेआम उल्लंघन नहीं होगा? और फिर एक बात और है जो उन्हें रावण से परहेज़ करने को रोकती है, वह यह कि "पाप से घृणा करो पापी से नहीं"। यह आध्यात्मिक कहावत उन्होंने अपने पुरखों से सुन रखी थी और गाँठ बाँध ली। उनका स्पष्ट मानना है कि रावण में ऐसा कुछ था ही नहीं जिसके चलते उस महात्मा से घृणा की जाय। उसे तो बस यूँ ही बदनाम कर दिया गया। 

उसने तो कभी अपनी प्रजा से झूठे वायदे भी नहीं किये थे। और सड़कों को गड्ढा मुक्त करने की घोषणा की तो ख़ैर कोई आवश्यकता ही नहीं थी स्वर्णपुरी में, क्योंकि लंका में तो सब के सब ’खुदै हवाई जहाज’ थे। हवाई मार्ग से चलते थे! 

मने सब आत्मनिर्भर थे। 

और हाँ, उनका कहना था कि रावण अपने समय से बहुत आगे की सोच रखता था। वह आधुनिक सोच का समाजवादी था। वह पुरुष की प्रभुत्ववादी मानसिकता से ऊपर उठ चुका था। उसने अपनी बहन को मनचाहा विवाह करने की पूरी स्वतंत्रता दे रखी थी। वह जहाँ चाहे जिससे चाहे विवाह करने को स्वतंत्र थी। यह सुविधा सभी बहनों के लिए आरक्षित थी।

पूरे राज्य में लगभग-लगभग सभी को अपना वर तलाशने हेतु देशाटन पर जाने की स्वतंत्रता थी, यहाँ तक कि नाक-कान कटने की स्थिति में भी। 

बताइये कितना उदार रहा होगा रावण!! हाँ वह अनुशासन प्रिय अरूर था जो कि अच्छी बात थी। सुनते हैं कि सीता को वापस भेजने के विषय को रावण द्वारा अवादयोग्य घोषित कर दिए जाने के बावजूद विभीषण नहीं माने और रावण से बहस करने लगे। रावण ने विभीषण के इस असंसदीय व्यवहार का त्वरित संज्ञान लेते हुए भीषण पदप्रहार द्वारा उन्हें बिना पीछे मुड़े सीधे लंका से चलायमान कर दिया। जिसे विभीषण के समर्थकों द्वारा बिना रुके वॉकआउट वाली गतिविधि बताया गया। जो भी हो पर लंका में अनुशासन बचा रह गया।

सो रावण जैसी ही अनुशासनप्रियता वह अपनी पार्टी में भी स्थापित करना चाहते थे। जो ज़बान लड़ाए उसे लात मारकर बाहर किया जाय का व्हिप जारी किया गया।

रही बात कुछ कमियों की तो कमियाँ किसमे नहीं होती।

अब कोई राम जैसा सच्चरित्र न हो तो क्या उसे लानतें भेजी जाएँगी? 

भाई अब हर आदमी एक जैसा तो नहीं होता न!

वह रावण को अनोखी प्रतिभाओं का पुंज मानते थे। बस इसीलिए वह रावण को धीरे-धीरे पसंद करने लगे। और फिर एक दिन पसंद आदत में बदल गयी। फिर क्या था जब एक बार रावण उनके जीवन में आ गया तो बस उनका ही होकर रह गया! 

रावण के प्रति उनके पैदाइशी अनुराग होने की एक वज़ह यह भी है कि शास्त्रों में रावण को महापंडित बताया गया है। चूँकि वह ख़ुद को ज्ञानी मानते हैं और विद्वता को महत्त्व देते हैं, इसलिए वह अंदर के रावणत्व को ज़िंदा रखना चाहते हैं।

रावण से शिक्षा लेने के लिए लक्ष्मण को भेजे जाने की घटना उनको रोमांचित कर जाती। जब-तब इसका ज़िक्र छेड़ ही देते हैं।

उनका स्पष्ट मानना है कि एक सिर वाला दस सिर वाले क्या मुक़ाबला करेगा? 

वे रावण के वेश बदलने की कला के बहुत बुरी तरह से क़ायल हैं। वे रावण की हरकतों को ख़ुद में उतारने के लिए व्यग्र रहते हैं।

रावण के वेश बदलने की प्रतिभा से प्रेरणा ले वे जनता को भरमाने लगे।

कहना न होगा कि आम चुनाव में स्वर्ण मृग दिखाकर सब कुछ हड़पने के हुनर के पीछे भी दशानन की ही प्रेरणा थी। राम राज्य की स्थापना की तुलना में रावण राज्य उन्हें ज़्यादा सुलभ लगा।

रावण के तरीक़े समय के साथ कहीं पिछड़ न जाएँ इसके लिए वह रावण संहिता में कुछ फेरबदल के पक्ष में हैं। उनके हिसाब से रावण को वर्तमान सन्दर्भों में प्रासंगिक बनाने के लिए ऐसा करना ज़रूरी होगा। उन्होंने कहा कि अब प्रजातंत्र है, रावण का राजतंत्र नहीं। सो बदलाव ज़रूरी है।

वर्तमान में चुनाव जीतने के लिए वायदे बहुत ज़रूरी हैं। संभव-असंभव चाहे जैसे हों, बस वायदे हों। वायदे पूरे भले न हों, लेकिन उनसे से फ़ायदा यह है कि इससे लक्ष्य कभी धूमिल नहीं होता। बढ़िया सा बहाना बनाकर वही वायदे अगले चुनाव में काम आ सकते हैं।

आज के समय में रोज़गार का वायदा ज़रूरी है। रावण के समय तो ऐसी कोई समस्या ही नहीं थी। राक्षसों को काहे का रोज़गार। यह रावण शैली का नवीनीकरण है।

वह महज़ सिद्धांतों की ख़ातिर अपने अंदर के रावण को मारकर जंगल-जंगल भटकने वाले सिद्धांतवादी वनवासी राम नहीं बनना चाहते। वह जन-स्वेद से बनी स्वर्णमयी लंका को छोड़ना आला दर्जे की मूर्खता मानते हैं।

उनके तर्क अकाट्य थे और हम लाचार जनता की तरह विवश!!

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