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गालियाँ अहिंसा तो नहीं, पर अहिंसा से कम भी नहीं 

 

कुछ अपवादों को छोड़कर हिंसा किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। हमने पढ़ रखा है कि हम अहिंसा में विश्वास करते हैं। 

वेद पुराणों तक में अहिंसा की विरुदावलियाँ गाई गईं हैं। 

देखिए बौद्ध और जैन धर्म तो अहिंसा पर ही टिके हैं। अगर अहिंसा का कॉन्सेप्ट न होता तो भगवान जाने इन धर्मों का क्या होता? 

कहते हैं कि अहिंसा हमारे डीएनए में हैं। अहिंसा हमको परंपरा से मिली है। बस अहिंसा के पालन में एक शर्त है कि सामने वाला भी इंसान हो। अहिंसा का पालन तभी सम्भव है, जब सामने वाला इंसान हो, अन्यथा मरकहा बैल के सामने अहिंसा सद्गति दिलाने के लिए पर्याप्त है। 

इसीलिए कहीं-कहीं हिंसा के भी उदाहरण हैं। पर वे आख़िरी विकल्प के रूप में होंगे, ऐसा अपना अखंड विश्वास है। जहाँ पर शक की गुंजाइश हो, वहाँ अपने मन की ही बात रखनी चाहिए। 

कुलमिलाकर कहने का मतलब यह कि हम स्वभावतः अहिंसावादी हैं। हम जब तक हिंसा नहीं करते, अहिंसावादी ही रहते हैं। 

हिंसा का प्रयोग हम तभी करते हैं, जब बहुत ही ज़रूरी हो जाय। अगर बात अहिंसा से नहीं बन पा रही है, तो अन्य विकल्पों पर उदारतापूर्वक विचार करते हुए हम न्यूनतम हिंसा के तहत उपलब्ध तरीक़ों को प्रयोग में लाते हैं। कहने का मतलब अहिंसा पहला प्यार है। जब पहला प्यार हासिल नहीं होता, तभी हम दूसरे प्यारों की तरफ़ मुड़ते हैं। 

ऐसे में उपलब्ध विकल्पों में ‘गालियाँ’ न्यूनतम हिंसा के बेहतरीन विकल्प के रूप में सामने आती हैं। सो न्यूनतम हिंसा के सिद्धांत के तहत हम लोग ख़ुद को सिर्फ़ गारी-फक्कड़ी तक ही सीमित रखते हैं। इस तरह दूसरे प्यार के रूप में गारी-फक्कड़ी गाढ़े समय में हमारा सहारा बनती हैं। 

पर कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि लोग सामने वाले की मज़बूत स्थिति को देख, भिड़ने के बजाय या तो मन ही मन गालियाँ देते हैं, या फिर पीठ पीछे। अपने को कमज़ोर मान ख़ुद को गालियों तक महदूद रखना कमज़ोरी की निशानी है। यह विवशता कि उपज है, इसलिए मूल्यों की दृष्टि से इसे श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। अगर मजबूरी में अपनाया तो फिर सिद्धांत ही कैसा? हम पिटते रहें, गालियाँ देते रहें, पर हाथ न उठाएँ, तब तो बात है। 

जिस तरह गाँधी जी कहा करते थे कि अहिंसा कमज़ोरों का नहीं, वरन्‌ शक्तिशालियों का अस्त्र है। उसी तरह गालियों को भी हल्के में न लिया जाय। 

उत्कृष्ट स्थिति वही है जिसमें हम समर्थ होते हुए, विकट से विकट परिस्थितियों में भी शिशुपालवादी बने रहें। चौंकिए नहीं, न्यूनतम हिंसा के तहत श्रेष्ठ गालियों की निर्भीक अभिव्यक्ति ही शिशुपालवाद है। इस संदर्भ में महाभारत के शिशुपाल इकलौते हमारे आराध्य हैं, अनुकरणीय हैं। वे सबसे पुराने अहिंसावादी हैं। जहाँ पूरे महाभारत में चारों तरफ़ लड़ाई-भिराई की ही बातें बिखरी पड़ी हैं, वहाँ शिशुपाल हिंसा से कोसों दूर हैं। वे चाहते तो कृष्ण पर हमला भी कर सकते थे, पर नहीं उन्होंने ख़ुद को गाली-गलौज तक सीमित रखा। यह उनका बड़प्पन था। इसके अलावा इसे अहिंसा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के रूप में भी देखा जा सकता है। एक तरह से उन्होंने अहिंसा के लिए ख़ुद का बलिदान कर दिया। शिशुपाल को पता था कि एक सीमा के बाद कृष्ण उनकी नहीं सुनेंगे। और वही हुआ! कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल की गर्दन उड़ा दी। जो भी हो शिशुपाल ने मरना स्वीकार किया लेकिन मारना नहीं। 

बताते हैं कि आधुनिक काल में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेताजी सुभाष बोस की प्रेरणा से उनके अनुयायियों ने न्यूनतम हिंसा के तहत बंगाल में महासभाइयों को अमृत वचन सौंपते हुए सड़कों पर ख़ूब दौड़ाया था। महासभाइयों को सुनने की आदत थी, सो उन्होंने बोस के अनुयायियों को सुनाने के तमाम मौक़े मुहैया कराए। इस दरमियाँ छुटपुट मारपीट भले हुई हो, लेकिन कोई बड़ी वारदात सुनने में नहीं आई। यह बात बोस के शुरूआती राजनीतिक जीवन की है। 

गारी अपने यहाँ हमेशा बुरी नहीं मानी जाती है, बल्कि शादी-ब्याह जैसे शुभ मौक़ों पर तो गालियाँ गाए जाने का रिवाज़ है। गाली खाने का भले ही किसी को शौक़ न हो, लेकिन गाली सुनने का शौक़ बहुतेरे रखते हैं। कुछ लोग तो शादी ही इसीलिए करते हैं कि कम-से-कम चलो इसी बहाने गालियाँ तो सुनने को मिलेंगी। कुछ के लिए तो यह डेब्यू होता है, वो इसके बाद फिर ज़िन्दगी भर सुनते हैं। 

जनकपुर में भगवान राम सपरिवार न्यौते (गरियाए) गए थे। 

“जेवंत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी।”

दस्तावेज़ी गीत इसकी गवाही देते हैं। कुलमिलाकर गालियों का गीतों में बहुत सम्मानजनक स्थान है। 

हालाँकि ऐसे मौक़ों का फ़ायदा वे अवांछनीय तत्त्व भी उठा अपनी हसरत पूरी कर लेते हैं, जो अन्य किसी मौक़े पर जुतियाये जाने के डर से कतराते रहते हैं। 

गालियों का शुरूआत से ही बड़ा क्रेज़ रहा है। कुछ साधू बाबा तो धाराप्रवाह देते हैं। बिना गाली के सीधे मुँह बात न करते। लोगों की मान्यता है कि फ़लाँ बाबा अगर खुलकर गरियायें, तो समझो तुम्हारा बिगड़ा काम बन गया। अगर वे गाली न दें, तो मासूम भक्तजन मायूस हो जाते हैं। वे समझते हैं कि आज बाबा जी उनसे कुछ नाराज़ हैं। पता नहीं अपनी तपस्या में कौन सी कमी रह गई। 

ऐसे ही एक बार एक बाबा अपने पास एक समस्या लेकर आए पीड़ित से ग़ुस्से में बोल रहे थे—

“&##%%के! अबकी ख़ाली हाथ यहाँ आए तो माड्डलूंगा साले तुझे। आधा किलो पेड़ा तक न जुरे तुझसे।” 

“क्षमा बाबा ग़लती हुई। मन परेशान था। ध्यान न रहा।” 

“ख़ैर! प्रभु तेरा कल्याण करेगा। जा चिंता न कर! तेरा बेटा कल तक घर आ जाएगा। दक्खिन दिशा गया है।” 

ख़ैर! इस तरह के क्रेज़-वेज और मांगलिक गीतों की छोड़ दें, तो न्यूनतम हिंसा के तहत गारी-फक्कड़ी खून-खराबे से बढ़िया है। बढ़िया बात यह है कि इसमें शारीरिक टूटन नहीं होती। कहीं दर्द नहीं होता, सो किसी भी प्रकार का चित्सकीय ख़र्चा भी नहीं आता। बार-बार अस्पताल के चक्कर नहीं लगाने पड़ते। डॉक्टरों की ख़ुशामद नहीं करनी पड़ती। 

इसके अलावा गारी-फक्कड़ी से बिना प्रयास किए ही सामाजिक शब्दकोश बहुत समृद्ध हो उठता है। जितना सशक्त/समृद्ध आपका शब्दकोश होगा, उतना ही आप सामने वाले को नरभसियाने में समर्थ होंगे। ऐसे में हिंसा की नौबत ही नहीं आएगी। 

बिना समृद्ध शब्दकोश के आप असहाय हो जाते हैं। मान लिया कोई आपको अनूठी भाषा सौंप गया, लेकिन जानकारी के अभाव में आप सिवाय सुनने के कुछ नहीं कर सकते। जानकारी होगी तभी न आप जवाबी क़व्वाली करके अपनी छाती को ठंडक पहुँचा पाएँगे। नहीं तो ‘हाय हम कुछ न कर सके’ का अपराधबोध अपनी छाती पर लिए आप ताउम्र मर-मर के जीने को विवश होंगे। सामने वाला क्या कह गया, यह जानने की उत्कंठा ही आपको जिज्ञासु-मन बनाती है और जितना आप जिज्ञासु-मन होंगे भाषा-लालित्य उतना ही निखरेगा। 

ख़ैर ये तो इसके व्यावहारिक लाभ हैं। शास्त्रीय ढंग से विचार करें तो यह हिंसा का निषेध है। जब बिना हिंसा किए सामने वाले को हर्ट किया जा सकता है, तो क्यों न इस ऐतिहासिक प्रविधि को अपनाया जाय। 

इसलिएअपना मानना है—शाब्दिक हिंसा, हिंसा न भवति। इसे अहिंसा की तरफ़ चला गया एक क़दम भी मान सकते हैं। हिंसा पाप है! इससे बचें! सनातनी बने! बस यही निवेदन है। 

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