अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हम फिर शर्मसार हुए

 

अबकी बहुत कष्ट हुआ कि ओलंपिक में हम लोग कुछ ख़ास नहीं कर सके, ख़ासकर फेंकने के मामले में। पूरा विश्व हमारी तरफ़ हसरत भरी निगाहों से देख रहा था, पर हम स्थिर विकास की तरह एक दुःस्वप्न बन कर रह गए। 

और कोई प्रतियोगिता हो तो चलो ग़म खा लें लेकिन फेंकने के मामले में . . .। नहीं-नहीं! इसे बरदाश्त नहीं किया जा सकता। कम से कम फेंकने के मामले में हम इतने बे-ग़ैरत कैसे हो सकते हैं? जिस पहचान के लिए हम जाने जाते हैं, हम उसी के प्रति इतने लापरवाह कैसे हो सकते हैं? हम अनजाने में ही सही, अपनी अस्मिता से खिलवाड़ कर रहे हैं। 

ध्यान रहे, यहाँ हम भाला-वाला फेंकने की बात नहीं कर रहे हैं। भाई हम ठहरे पक्के गाँधीवादी। अहिंसा से हमारा बहुत गहरा किताबी रिश्ता रहा है। बताते हैं कि अहिंसा कमज़ोरों की ताक़त रही है, सो जब तक हम कमज़ोर रहते हैं, इसको सीने से चिपकाए रहते हैं, पर जैसे ही मज़बूत होते हैं, अपरिग्रह सिद्धांत के तहत हम तत्काल अहिंसा को पालनार्थ दूसरे कमज़ोरों को सौंप देते हैं। इसलिए यहाँ भाला की बात क़तई नहीं। यह एक हिंसक खेल है। 

और फिर हम भाला फेंकें ही क्यों? जो काम हम मुँह से कर सकते हैं, उसके लिए भाले-वाले की ज़रूरत भी क्या? ख़ामख़ां ऊर्जा क्षय करने की क्या ज़रूरत? भाई जब पहले से ही हम ऊर्जा के मामले दूसरे देशों का मुँह तकते रहते हैं, ऐसे में बची-खुची अपनी ऊर्जा को भाला फेंकने में व्यय करना, क्या यूँ ही उचित होगा? आप ही बताइए! 

हमने कई बार, कई मौक़ों पर, बल्कि बेमौक़ों पर भी ख़ूब फेंका है, बेधड़क फेंका है। अपने यहाँ की छोड़िए, हम तो दूसरों के यहाँ भी (मने दूसरी देशों में) खुलकर फेंकते हैं। बल्कि वहाँ तो और खुलकर फेंकते हैं। ऐसी ही एक अंतरराष्ट्रीय फेंक हमने गत वर्ष फेंकी थी, जब बतौर मेहमान एक देश में हमने हर मिनट में एक स्कूल, हर घंटे में एक कॉलेज, हर दूसरे-तीसरे दिन एक यूनिवर्सिटी और हर सप्ताह एक नया आई आई एम या आई आई टी खोलने का दावा कर आए थे। यह तो एक छोटी सी नजीर दी हमने। बाक़ी अपन का इतिहास तो न जाने ऐसी कितनी ऊँची और लंबी फेंकों से भरा हुआ है। कुल मिलाकर गौरवशाली इतिहास कहा जा सकता है अपना। 

इसलिए हम फिर कहते हैं कि फेंकने में हमारा कोई सानी नहीं। लेकिन ओलंपिक ने हमें शर्मसार किया। हम मुँह छुपाते घूम रहे हैं। हमें आत्मपरीक्षण करना चाइए। निःसंदेह समस्या हमारे प्रतियोगियों में नहीं, समस्या चयन में है। समस्या प्रतिभाओं के चयन में हैं। अगर सही प्रतिभा का चयन किया होता तो क्या ये दशा होती। हमारी भूमि अभी फेंकने वालों से शून्य नहीं हुई है। बल्कि हमें अपनी उर्वरा भूमि पर नाज़ है। बस चयन में थोड़ी सावधानी बरतिये। कामयाबी पैरों में न लोटे तो हमसे कहिए। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं