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एक पाती पत्रकार भाई के नाम

 

हे पत्रकारिता के दिपदिपाते दीपक, हे चाटुकारिता के शिखर, कल जो तुम्हारे साथ हुआ, जो तुम्हारी सरेआम उतारी गयी, उसे देखकर हम बहुतै दुखी हैं। नहीं होना चहिये था। अकेले में अगर कोई किसी को मुर्गा भी बना लेता तो भी इतना नहीं खलता। कई बार तो ये धंधेबाज़ इतने स्मार्ट होते हैं कि सामने वाले की सदिच्छा भाँप, पहले ही मुर्गा बन जाते हैं और मालिक को अपने इस अप्रत्याशित क़दम से भौचक्का कर देते हैं। मालिक उनके समर्पण को देख भावुक हो उठता है। वह क्षमा भाव से पुचकारने लगता है। 

पर आप न कर सके ऐसा। मस्तिष्क में कहीं पड़े हुए, मरे हुए संस्कार जीवित हो उठे होंगे। बहुत ग़लत हुआ उस दिन आपके साथ। 

माना कि लोगों की निगाह में आप बहुत पहले ही गिर चुके थे, पर फिर भी सबके सामने और ज़्यादा नहीं गिराना चाहिए था उन्हें। कल कुछ ज़्यादा ही दुत्कारीकरण हो गया। मेहमान सबके सामने मेहमान न रह सका, वो मालिक बन गया। 

हालाँकि आपने अपनी तरफ़ से बहुत ही मुलायमियत से और बहुत हल्का सा सवाल पूछा था। नहीं तो पूछने को तो आप उनसे उनके मंत्रालय से संबंधित घोटालों पर भी पूछ सकते थे, पर आपने लिहाज़ किया। आपने तो सिर्फ़ उनसे यही पूछा था कि टमाटर इतने महँगे क्यों हैं; ग्राहकों की जेब पर इतने लाल क्यों हैं? 

ख़ैर . . . 

लेकिन फिर भी हम यह कहेंगे कि आपके सवाल आम काटकर खाएँगे या चूसकर, जैसे रसीले नहीं थे। ये सवाल उनकी तुलना में तो सूखे ही कहे जाएँगे। 

जब आपके सामने पिछले वाले की कोमल पर अक्षय पत्रकारिता की बेहतर नज़ीर सामने थी, तब भी आपने उससे कुछ नहीं सीखा। आपने अपना ट्रैक बदला ही क्यों, जबकि इस ट्रैक पर आपका बीता रिपोर्ट कार्ड ठीकठाक था? नए लौंडों के लिए आप रोलमॉडल जैसे थे। नई आज़ादी (लीज वाली से हटकर) में सत्ता की जगह विपक्ष से सवाल पूछे जाने की परंपरा डालने वाले कुछ चुनिंदा लोगों में से आप एक थे। आप हमेशा विपक्ष से ही सवाल किए और इनाम पाए। हाँ उधर ज़रूर एक हादसा हो गया था, जब आप न्यूज़ रूम से घर जाने के बजाय, सीधे जेल चले गए थे। अब आप सबके सामने कैसे बताते कि हम पर एक ख़बर को प्रसारित न करने के एवज़ में 100 करोड़ माँगने का आरोप लगा था। 

हम जानते हैं कि यह सब ग्रहदशा का चक्कर था और कुछ नहीं। पर उसके बाद तो आपकी पत्रकारिता में ज़बरदस्त निखार आया। आप बात-बात पर विपक्ष पर पिल पड़ते थे। जिस क्रांतिकारी तेवर के साथ आप सरकार के कामों का हिसाब विपक्ष से माँगने लगे, पूरा विपक्ष सन्नाटे में था। लोकतंत्र में दहशत फैल गयी थी। आपके समर्थक श्रोता आपकी जयजयकार करते थे। 

पर फिर हम यह कहेंगे कि उस दिन आपने अपना ट्रैक क्यों बदला? क्या ज़रूरत थी, बैलेंस दिखने की, जब आप किसी एंगल से ऐसे नहीं हैं। यह हया! ये शर्म तो कभी आपको छू तक न सकी थी, फिर पता नहीं आप कैसे संक्रमित हो गए। हम दावे के साथ कह सकते हैं कि आपके चेहरे पर तो वही . . . ज़्यादा फबती थी। ज़रा सी सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना घट गयी। 

मंत्री जी ने आपके सवालों को दिल पर ले लिया। और सबके सामने आपसे जेल के संस्मरण सुनाने का आग्रह करने लगे। अरे भाई आप स्वतंत्रता संग्राम या लोकतंत्र की रक्षा के पुनीत कार्य में तो जेल गए नहीं थे, जो सबके सामने अपनी वीरगाथा सुनाने लगते। 

हे पत्रकारिता के अधीर प्रौढ़! आपके साथ अन्याय हुआ। हम तो कहते हैं कि अगर आप बदले थे तो बदले ही रहते। जो होता देखा जाता। अब तो एक ग़लत परंपरा और पड़ गयी। 

अब तो जिससे भी आप सवाल पूछेंगे, वो ही आपकी जेलयात्रा पर आपसे कुछ सुनाने का आग्रह करने लगेगा। लेकिन ख़ैर अब आप घबड़ाइये नहीं, हिम्मत से काम लीजिये। इतनी जल्दी झेंपेंगे तो अपने अंदर की बची हुई बाक़ी की पत्रकारिता का अंतिम संस्कार कैसे कर पाएँगे! 

आपने तो कई बार नेहरू और गाँधी के जेलजीवन पर प्रोग्राम किये हैं। आपको तो सब पता है। आपने बताया था कि किस तरह नेहरू और गाँधी ऐशोआराम से जेल में रहते थे। वे जब घर में रहते-रहते ऊब जाते थे, तो जेल चले जाते थे, वगैरह-वगैरह। सो अपने लिए भी कुछ अच्छी सी मनमुताबिक कहानी गढ़ लीजिये। आपने तो खोजी पत्रकारिता के कई आयाम गढ़े हैं। 

हाँ, आगे से मेहमान की प्रकृति देखकर ही सवाल पूछा करिये, ये व्यक्तिगत सलाह है। जब आपको पता था, कि मंत्री जी किस तरह एक पत्रकार द्वारा सवाल पूछने को लेकर उसके सवाल को सीधे क्षेत्र और जनता के अपमान से जोड़ दिए थे और चेतावनी दी थी कि इस धृष्टता के लिए आपके मालिक से बात की जाएगी। आप तब भी ख़्याल नहीं किये। आप बैलेंस बनाने के चक्कर में डिसबैलेंस हो गए। ख़ैर आगे से ख़्याल रखियेगा। हमारी शुभकामनाएँ हमेशा से आपके साथ चस्पा रहेंगी। नौकरी पहले है बाक़ी सब बाद में। 

आपका शुभेच्छु, आपका हमदर्द। 

—संजीव शुक्ल

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