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धर्म ख़तरे में है

 

“अरे दद्दा कहाँ से आ रहे हो?” 

“कहीं नहीं, बस यहीं चक्की पर घानी पिराने गए थे और साथ ही शाम के लिए थोड़ी सब्ज़ी भी ले आए। घर में तेल बिलकुल ख़त्म हो गया था, तुम्हारी भौजी कल से तबा किये थीं,” मैंने अपनी घरेलू ज़िम्मेदारियों से उसको प्रभावित करना चाहा। 

पर वह अप्रभावित रहा। 

“क्या आप भी दद्दा सिर्फ़ घरेलू कामों में ही उलझे रहते हैं। कभी देश, समाज और धर्म की भी सुध ले लिया करिये।” 

मैं इस इस अप्रत्याशित लांछन से हकबका गया और साइकिल से उतरकर खड़ा हो गया। झेंप को दबाते हुए उससे पूछा, “काहे देश, समाज और धर्म को क्या हुआ? सब तो ठीकै है।” 

“अरे कहाँ ठीक है! आप लोगों को तो बस लोन, तेल औ लकड़ी के आगे सूझता ही कहाँ है!” 

“यहाँ धर्म ख़तरे में है और आप हैं कि . . .” इतना कहकर वह मुझे दुत्कार भरी नज़रों से से देखने लगा। “अब देखिए न, आजकल के लड़के गुरुपूर्णिमा की जगह वेलेंटाइन मनाते हैं। गोपूजा की जगह अब कुत्ते पाले जाते हैं। दद्दा ऐसे ही रहा तो अपनी संस्कृति की बातें सिर्फ़ किताबों में ही पढ़ने को मिलेगीं और इसके ज़िम्मेदार हम-आप होंगे।” यहाँ उसके ‘हम-आप’ में हम तो सिर्फ़ कहने के लिए था, नाकारेपन का असली ज़ोर ‘आप’ शब्द पर ही था। 

“अगर आप लोग अभी न जागे, तो यहाँ सब विदेशी सभ्यता पसर जाएगी,” कहकर उसने कल के कार्यक्रम का परचा अपनी जींस से निकालकर हमारे आगे बढ़ा दिया। “नई पीढ़ी को अपने धर्म के प्रति जागरूक करने के लिए कल हम लोग रैली निकालते हुए जगह-जगह भजन-कीर्तन करेंगे। 

“दद्दा आप भी रहिये कल, मज़ा आएगा। 

“अपना काम तो सभी करते हैं, कुछ धर्म के लिए भी समय दीजिए,” जगेश ने हमको धरम की रीति समझाई। 

“तो मतलब अब रैली से धर्म को मजबूत किया जाएगा,” मैंने पूछा। 

उसने कहा, “नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है। धर्म तो अपना मजबूत हैय्ये है। बस हमको अपने लोगों को मजबूत करना है। हम लोग कमज़ोर हुए हैं। देखो न 10 आदमी अगर हैं तो 4 आदमी दूसरे धर्म की अच्छाइयाँ बताते घूमते हैं। अरे इतनी मेहनत अपने धर्म के लिए करते तो जीवन सफल हो जाता। 

“रैली सब लोगों को जोड़ने का काम करेगी। बहुत लोग रहेंगे कल।” 

मैं समझ गया था कि कल के कार्यक्रम की सफलता का दारोमदार बेरोज़गार पीढ़ी के कंधों पर रहेगा। युवाओं के हाथ में झंडा औ डंडा इस बात की तस्दीक़ करेंगे कि मौजूदा सरकार में हर हाथ को काम मिला है। 

जब बेरोज़गारी और महँगाई सत्ता के अस्तित्व को चुनौती देने लगे तब इस तरह के करतब बहुत काम आते हैं। 

मैंने कहा, “रैली-वैली तो ठीक है, पर भाई जगह-जगह कीर्तन क्यों? साधना और भजन-कीर्तन तो मंदिर में ही ठीक रहता है। सो किसी मंदिर में प्रोग्राम रखो। 

“तुम्हारी भौजी को भी ले आएँगे साथ में। वो तो कर्री वाली भगतिन हैं।” 

उसने कहा. “नहीं, हमको तो अपने धर्म के सोए हुए नौजवानों को जगाना है। उनमें जोश भरना है। एक जगह ठहरकर पूजा करने से बात नहीं बनेगी। 

“हम लोग जयकारा लगाते हुए बढ़ेंगे। 

“और हाँ, आगे वाले लड़के बोलेंगे, ‘जो हमसे टकराएगा चूर-चूर हो जाएगा’ पीछे वाले इसी लाइन को दुहराएँगे।” 

यह लाइन बोलते हुए वह खुद एकदम से जोश में आ गया। हालाँकि उसके इस तरह जोश में आने से खाँसी बढ़ गयी और दमा का दौरा ज़ोर पकड़ गया। 

हमने तुरंत साइकिल पास टेलीफोन के खम्भे के सहारे खड़ी कर, उसको सहारा दिया। उसकी पीठ पर हाथों से मालिश की। थोड़ी देर में इसका असर दिखा। उखड़ती साँस लाइन पर आते ही वह धीरे से बोला, “तो दद्दा कल का प्रोग्राम फिर पक्का रहा . . .। 

“और हाँ, कल जित्ते लोग भी आएँ सब एक-एक हनुमान चालीसा साथ में डाले लावैं।” 

मैंने गर्व से कहा, “अरे इसकी क्या ज़रूरत? हमें औ तुम्हारी भौजी को पूरी हनुमान चालीसा कंठ है। उन्हें तो पूरा सुंदरकांड भी याद है।” 


“अरे दद्दा आप भी . . . ये तो जो नए लौंडे आएँगे उनके लिए है। दद्दा आप तो जानते हैं कि आजकल के लौंडों को दो चौपाई सुनाने के लिए कह दो तो खीसें काढ़ देते हैं। ये सब व्यवस्था इन जैसों के लिए है।” वह व्यवस्थापक की भूमिका में आ गया था। 

उसने कहा, “प्रोग्राम की शुरूआत संगठन मंत्री कैटभ लाल जी के यहाँ से शुरू होगी। 

“दद्दा क्या भाषण देते हैं अपने कैटभ जी। उनको सुनकर मन खुदै ललकारने लगता है। मन करता है कोई सामने आ जाय तो पहले दो-दो हाथ कर लूँ, तब घर चलूँ। ऐसा जोश भर देते हैं अपने कैटभ जी। धर्म औ संस्करित की ऐसी कोई बात नहीं जो उन्हें पता न हो। 

“उन्होंने सुबह 8 बजे का टाइम दिया है। इसके बाद उनको दूसरी जगह झंडी दिखाने जाना होगा।” 

“उनके बच्चे तो इस धरम-करम में योगदान देंगे ही, वे तो रहेंगे ही पूरे दिन साथ में,” मैंने अपनी जिज्ञासा खोली। 

“नहीं दद्दा उनके दो ही बच्चे हैं और वे भी कहीं बाहर पढ़ते हैं। कोई कैलीफोनिया टाइप की जगह है शायद। वहाँ बड़ी टफ पढ़ाई होती है दद्दा, सबके बस की बात नहीं।” 

“काहे यहाँ स्कूल नहीं हैं जो वहाँ पढ़ने गए?” मैंने पूछा। “और फिर वहाँ कौन सी पूरब की संस्कृति की पढ़ाई होती होगी? वहाँ तो घोर अँग्रेजियत है।” 

“अरे दद्दा इन्हें आगे चलकर भारत को विश्वगुरु भी तो बनाना है। विदेशों में अपने धर्म को फैलाना है। तो जब तक ये लोग अंग्रेजी पढ़ेंगे नहीं तो बिदेशों में अपने देश की बात को कैसे रख पाएँगे। देखना एक दिन ऐसा आएगा कि वहाँ भी सब संस्कृत में शपथ लेंगे। 

“हम लोग यहाँ अपनी संस्करति को मजबूत करेंगे और बिदेशों में ये लोग।” उसका इशारा संगठनमंत्री के होनहार लड़के की तरफ़ था। 

“तो हाँ दद्दा, संगठन मंत्री जी कह रहे थे कि हमें अपने, वो क्या कहते हैं कि हाँ, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाना है। अभी तक की तो सबैं सरकारें पच्छिमी संस्कृति को ही आगे बढ़ाती रहीं। 

“पहले हम हिन्दू लोग बहुत मजबूत थे। इत्ते मजबूत की एक बार बौद्ध राजा से बिगाड़ हो गया तो हमारे राजा शशांक ने बौद्ध राजा को निपटाकर वहाँ स्थित बोधिवृक्ष को ही खोद डाला। 

“बिलकुल वही वाला हिंदू धर्म चाहिये अपन को। 

मैंने टोका, “यह तो बहुत गलत हुआ। हिन्दू धर्म तो बहुत उदार है। हिन्दू धर्म की लोकतांत्रिकता के चलते ही तो हमारे यहाँ सब धर्म और पंथ फले-फूले। यही तो अपने देश और धर्म की असली खूबसूरती है।” 

उसने कुछ सोचते हुए कहा कि चलो उतनी मजबूती न सही, लेकिन थोड़ी तो मजबूती होनी ही चाहिए दद्दा। 

मैं अब निकलने के मूड में था, क्योंकि अंदरमने तो घर पहुँचने की सट्ट सवार थी। घर में राह देखी जा रही होगी, यह सोचकर दिल में बेचैनी बढ़ने लगी। मैंने बात को वहीं ख़त्म करने की गरज से जगेश को उसके जनजागरण के लिए शुभकामनाएँ देते हुए साइकिल के पैडल पर दाहिना पैर रखकर उस पर सवार होने लगा। पर अधबीच में ही पट्ठे न हैंडल पकड़ लिया। हम गिरते-गिरते बचे। हमने कहा, “यार घर में तेल नहीं है। तुम्हारी भौजी नाराज होगी। लौट के चर्चा करते हैं।” 

जगेश ने कहा, “दद्दा ज्यादा नहीं बस सिर्फ दो मिनट। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चर्चा को घर के तेल से न हल्का करिये।” मजबूरी में साइकिल को एक खम्बे से टिकाकर उसकी तरफ़ मुख़ातिब हुआ। 

उसने कहा, “तो दद्दा हमारा कहना यह है कि हमारे एजेंडे में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सबसे ऊपर होना चाहिए। न्यू इंडिया, इंडिया शाइनिंग और मेक इन इंडिया जैसे नारों से हम भारत के सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना करेंगे।” ऐसा कहकर उसने लगभग पूरा का पूरा घोषणापत्र खोल दिया। वह कुछ और ज्ञानवर्धन करता कि तभी पीछे से हड़ा-हड़ा की आवाज़ आई। पलटकर देखा तो अपने गुप्ताजी थे। वे लगभग दौड़ते हुए अपना बेंत पटक रहे थे। उन्होंने चिल्लाते हुए कहा कि शुक्लाजी आपकी लौकी। मैंने घबड़ाकर अपने झोले की तरफ़ देखा तो दिल बैठ गया। आधी की भी आधी लौकी हमारे झोले में और शेष गऊ माता के मुँह में। मैं बेबस था। मैंने बची लौकी भी गऊ माता को समर्पित कर दी। 

गाय उसी जगेश की थी। मैंने कहा, “यार गाय को इस तरह छोड़ देते हो। इसको बाँध के क्यों नहीं रखते? तमाम छोटे बच्चे निकलते हैं।” जगेश बोले कि दद्दा अब छुटा गयी है। सो कहाँ तक बाँध के खिलाएँ इस महँगाई के जमाने में। 

दद्दा इधर आ जाओ। गाय मरकही है। का फायदा सींग घुसेड़वा लो। 

हमने कहा, “तुम तो गऊ रक्षा की बात कर रहे थे। यही तरीक़ा है तुम्हारा।” 

उसने कहा, “दद्दा अब ये तो जानवर हैं। ये तो सब हमारे-आपके सहारे ही जिन्दा है।” अब अपना रुकना वहाँ सम्भव नहीं था और मैं धर्म की उन्नति और गौ रक्षा के बारे में सोचता हुआ साइकिल पर सवार हो लिया॥

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