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उनको अखरता है रावण का जलना

 

“रावण का यह अपमान, नहीं सहेगा हिंदुस्तान।”

“अरे ये कैसा नारा है भाई? 

“ये नारा नहीं, आह्वान है भाईसाऽऽऽहब, आह्वान!” 

“यह कैसा आह्वान?” 

“रावण के दहन को लेकर हमारी भावनाएँ आहत हो रहीं हैं। इसको तत्काल बंद किया जाय। रावण को इस तरह हर साल जलाना अनुचित है। यह हमारे रावण के साथ अन्याय है। ‘रावण का यह अपमान, नहीं सहेगा हिंदुस्तान’।”

“ठीक है, ठीक है। मगर रावण तो राक्षस था, तो उसे जलाने में कैसी आपत्ति? 

“आपत्ति है, तभी तो आपत्ति कर रहे हैं। राक्षस तो और भी थे, यथा कंस, हिरण्यकशिपु आदि आदि, पर वे तो नहीं जलाए जाते हैं, फिर रावण जी के साथ ही ऐसा अत्याचार क्यों? ब्राह्मण होने के नाते रावण को हर साल जलाया जाए, यह हमें स्वीकार नहीं। ‘रावण का यह अपमान, अब नहीं सहेगा हिंदुस्तान’।” 

“मगर एक राक्षस भस्मासुर के जलने की कहानी तो सर्वविदित है।” 

“अरे वो धोखे से जल गया था। भगवान विष्णु की सब कारिस्तानी थी। इसके अलावा कोई उदाहरण हो तो बताइए?” 

“हमें लग रहा है कि तुम रावण को लेकर कुछ ज़्यादा ही भावुक हो रहे हो।” 

“नहीं यह भावुकता नहीं, अस्मिता का प्रश्न है।” 

“ये कैसी अस्मिता?” 

“आप नहीं समझेंगे! ये है, जातीय अस्मिता। अब धर्म ही नहीं, जाति भी ख़तरे में है। अब गर्व को विस्तार देना है। धर्म पर ही नहीं, जाति पर भी गर्व करना है। लिखा भी है कहीं पर ‘जिस देश जाति में जन्म लिया बलिदान उसी पर हों जाएँ’।” 

“मगर इस गर्व में, सद्भाव खंडित हो गया तो?” 

“वो कैसे?”

“भाई राक्षस होते हुए भी यदि तुम रावण की पैरवी करोगे तो भगवान राम की बिरादरी वालों को बुरा नहीं लगेगा?” 

“नहीं बुरा क्यों लगेगा? भाईसाब हम सिर्फ़ रावण जी की सम्मानित मौत चाहते हैं बस, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। इसमें राम जी की बिरादरी के लोग बुरा क्यों मानेंगे? और फिर राम जी तो ख़ुद रावण को बहुत सम्मान देते थे। देखा नहीं आपने किस तरह भगवान राम ने लक्ष्मण को मृत्युशैया पर पड़े रावण से सीख लेने के लिए उसके पास भेजा था। यह था अपने रावण जी का जलवा।” 

“नहीं भाई भगवान राम रावण का नहीं उसकी विद्वता का सम्मान करते थे।” 

“ये आपका दिमाग़ी फ़ितूर है भाईसाहब। भगवान राम की तरफ़ क्या कम विद्वान थे। सुग्रीव, जामवंत, हनुमान आदि की विद्वता क्या किसी से कम थी! और फिर भगवान राम से बढ़कर कौन विद्वान था। पर रावण जी का अलग ही स्थान था।” 

“रावण अत्याचारी था, राक्षस था। उसके आगे बारंबार जी क्यों लगाते हो?” 

“भाईसाहब हम वो नहीं कि संस्कार भूल जाएँ! रावण जी महापंडित थे।” 

“तो आख़िर चाहते क्या हो?” 

“आप सुनना ही चाहते हैं तो अपना कहना यह है कि रावण के दहन में जल्दबाज़ी क़तई न की जाए, बल्कि भावनाओं का ख़्याल करते हुए उनके काल कवलित कराए जाने के अन्य विकल्पों पर भी सद्भावपूर्ण विचार कर लिया जाना चाहिए, ताकि किसी संतोषजनक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सके और कहीं ‘कोई विवाद की गुंजाइश न रहे’। अगर सद्भाव और सम्मानजनक तरीक़े से रावण को मारा जा सकता है, तो उसमें बुराई ही क्या है भाईसाब? लोकतंत्र में मामलों को सहमति से ही निपटाया जाना चाहिए।” 

“लेकिन इतने दिनों से हमारे-तुम्हारे पुरखे तो इसी तरह की रामलीला का आनंद लेते रहे और रावण-दहन करते रहे हैं, उन्होंने तो कभी इस तरह की आपत्ति न की। वे तो उत्साह से रावण दहन करते आ रहे हैं। नहीं तो इतने बरसों तक यह परंपरा ज़िन्दा कैसे रहती।” 

“भाईसाहब ज़रूरी नहीं कि पुरखे ग़लती करें तो हम भी उसीको दुहराएँ। ये नई चेतना का समय है। हम इतिहास की ग़लतियों को दुरुस्त करेंगे।” 
 
“ठीक है, पर इसके बाद एक सामूहिक शपथ भी लेनी चाहिए आप लोगों को।” 

“वो किसलिए?” 

“वो इसलिए, ताकि कल को राम-रावण से संबंधित कोई और मामला नहीं बने। आप लोग शपथ लें कि भविष्य में रामलीला में कोई बदलाव नहीं होगा। इसमें मरना रावण को ही होगा और वह भी रामजी के हाथों से।” 

“ऐसा क्यों भाईसाहब?” 

“भाई ज़रूरी है, क्योंकि इतिहास बदलने के दौर में कहीं परंपराओं का इतिहास ही न इतिहास हो जाए।” 

“हमने कब बदला इतिहास भाईजी?” 

“अरे भाई कल ही तो तुमने एक मैसेज फ़ॉरवर्ड किया था कि, ‘सच्चे अर्थों में देश 1947 को नहीं बल्कि 2014 में आज़ाद हुआ है! 47 वाली आज़ादी सच्ची आज़ादी नहीं थी, बल्कि लीज़ पर मिली आज़ादी थी’ और परसों एक जने फ़ेसबुक वॉल पर कह रहे थे कि नेहरू की पत्नी का इलाज विदेश में सुभाष बाबू करवा रहे थे और नेहरू यहाँ अय्याशी कर रहे थे। और तो और कमला नेहरू की मृत्य पर उनका अंतिम संस्कार भी नेताजी ने ही किया था। नेहरू को इत्ती भी फ़ुरसत न मिली कि कम से कम अंतिम संस्कार ही कर आते। पर संस्कार हों तब न!” 

“काहे भाईसाहब ये सही नहीं है क्या?” 

“अब क्या कहें? तुम्हारे हिसाब से तो सहिये है। ग़लती सब नेहरू की है। अगर नेहरू अंतिम संस्कार में तुम सबके परबाबाओं को भी अपने साथ ले गए होते, तो आज यह नौबत न आती।” 

“भाईसाहब सुना है, नेहरू क्रांतिकारियों की जासूसी करवाते थे।” 

“कहाँ पढ़ा? किसी क्रांतिकारी ने ऐसा कहीं लिखा है क्या?” 

“नहीं भाईसाहब वो तो नहीं पता!” 

“फिर कहाँ पढ़ा?” 

“वो . . . वो . . . भाईसाहब पार्टी के आई टी सेल के मुखिया का ट्वीट आया था! हम सिर्फ़ उन्हीं को पढ़ते हैं।” 

“तब तुम्हें किसी शपथपत्र की ज़रूरत नहीं।” 

मैंने भाई के सम्मान में दोनों हाथ जोड़ लिए। 

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