यह वर्ष हमें स्वीकार नहीं
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी संजीव शुक्ल15 Jan 2025 (अंक: 269, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
कुछ लोग नए साल पर यह गीत गाकर कि “यह वर्ष हमें स्वीकार नहीं” पाश्चात्य सभ्यता के प्रति अपने गहरे रंजो-ग़म व भारतीय संस्कृति से अपने खुले लगाव को एक साथ स्वर दे रहे हैं। अगर वह ऐसा नहीं करते तो एक बड़ा वर्ग उनके इस गहरे प्रेम और उससे भी गहरे पाश्चात्य-विरोध से अनजान ही रह जाता।
हालाँकि यह प्रेम उस टाइप का प्रेम नहीं है जैसा कि स्थापित प्रेम की अवधारणा में माना जाता है। इस प्रेम में चैत्र माह से शुरू होने वाले भारतीय नववर्ष से आंतरिक लगाव चाहे न भी हो, पर अंग्रेज़ी साल से बेपनाह दिक़्क़त होनी बहुत ज़रूरी है।
वसुधैव कुटुंबकम की भावना कहीं हृदय में घर न कर जाए, इसलिए दुत्कार का वार्षिक अभ्यास ज़रूरी है।
प्रेम के लिए विरोध ज़रूरी है। बग़ैर विरोध के, किसी दूसरे के प्रति प्रेम दर्शाना वैसे ही है, जैसे प्रेमियों की भीड़ में खो जाना।
इस भीड़ में तुम्हें कौन जानेगा। इसलिए पहले बताना होगा कि हम उसका विरोध, तुम्हारे लिए कर रहे हैं।
हम चाहे तो बिना अंग्रेज़ी साल का विरोध किए ही, हिंदू नव वर्ष को अपना मान सकते हैं। पर नहीं, यह तो प्रेम का सरलीकरण है। बिना किसी विरोध के हासिल प्रेम भी कोई प्रेम है! हम प्रेम को आसान नहीं बनाएँगे।
हिंदू संस्कृति के प्रति प्रेम दर्शाने के लिए पहले हमें लाठी-डंडों के साथ गली, चौराहों और पार्कों में निकलकर देखना होगा कि कहीं कोई पाश्चात्य तरीक़ों से तो प्रेम को अभिव्यक्ति नहीं दे रहा है, अगर दे रहा है, तो तत्काल उसके पश्च भाग को लाल कर दिया जाय। श्रमपूर्वक दौड़ा-दौड़ाकर मारने से जहाँ इससे अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम बढ़ता है, वहीं दूसरी तरफ़ इसमें त्याग और श्रम की गरिमा के प्रति हमारी सनातन प्रतिबद्धता भी दिखती है।
भई नववर्ष मनाने के लिए कोई चिरौरी करे न करे, हमें अपना विरोध बरक़रार रखना है।
इस कथित नए साल के मौखिक विरोध से पते की एक बात यह पता चली कि “यह वर्ष हमें स्वीकार नहीं” कविता दिनकर ने लिखी थी। कहने का मतलब यह कि कविता लिखकर असल में दिनकर ने ही इस नए साल के विरोध को हवा दी थी।
हालाँकि दिनकर साहित्य में यह कविता अभी तक ढूँढ़े न मिली। ज़रूर आपने ग़ालिब की तरह मरने के बाद ही लिखी होगी। ग़ालिब के तो कई दीवान उनके मरने के बाद ही वुजूद में आए।
अब अगर ग़ालिब और दिनकर स्वर्ग से इन्हें अपनी रचना मानने से इंकार करें तो करें। आख़िर भक्तों की भावनात्मक श्रद्धांजलि भी तो कोई चीज़ होती है। अब जैसे अमिताभ बच्चन लाख कहते रहे कि “कोशिश करने वालों की हार नहीं होती” नाम की रचना हमारे पिताजी की नहीं है, यह सोहन लाल द्विवेदी जी की है, पर उससे क्या?
क्या श्रद्धालु इत्ते भर से मान जाएँगे? वह श्रद्धा ही क्या जो एक इंकार से बहक जाय! मना करना उनका फ़र्ज़ है और न मानना हम श्रद्धालुओं का।
हाँ तो इस अंग्रेज़ी साल में है ही क्या ख़ूबी?
माना कि हम जन्मतिथि संवत के हिसाब से न बताकर अंग्रेज़ी सन् के हिसाब से बताते हैं।
माना कि परीक्षाएँ अंग्रेज़ी महीनों के हिसाब से लेते और देते हैं।
माना कि वेतन भी इन्हीं महीनों के हिसाब से लेते-देते हैं।
माना कि लोकतांत्रिक पर्व, चुनाव भी अंग्रेज़ी कलेंडर के हिसाब से होने पर हमें कोई ऐतराज़ नहीं है।
और तो और चलो यह यह भी मान लिया कि हमारे पुरखे ‘अयम निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम, उदार चरितानां तू वसुधैव कुटुम्बकम’ का नारा दे गए हैं। पर उससे क्या? क्या हम मात्र इसीसे विरोध करने के अपने स्वाभाविक लोकतांत्रिक अधिकार को खो देंगे? वसुधैव कुटुम्बकम की भावना में बहकर हम अपने सांस्कृतिक प्रेम को यूँ ही बह जाने दें? सांस्कृतिक-प्रेम-प्रदर्शन के साल में एक-आध बार आने वाले मौक़ों को यूँ ही हाथ से जाने देना, क्या कोई अच्छी बात है भला?
कोट-पेंट, टाई-साई, दवा-दारू, ऑपरेशन-वापरेशन व खान-पान के कुछ अंग्रेज़ी तरीक़ों को अपना लेने भर से क्या हमारे वैचारिक विरोध करने का अधिकार ख़त्म हो जाता है?
और बात भी सही है। इस नए साल में ऐसे कौन से लाल लगे हैं जो हम मनाते घूमें। हमारे विरोध को तो फ़ैज़ साहब ने हवा दे दी है। उन्होंने कहा है:
“ऐ नये साल बता तुझ में नयापन क्या है,
हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यों शोर मचा रखा है।
तू नया है तो दिखा, सुबह नयी शाम नयी
वर्ना इन आँखों ने देखे हैं, नये साल कई”
फ़ैज़ साहब की बात में तो दम है।
बस यहीं से हमने भी इस मुए साल का विरोध करने की ठान ली।
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