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सहयोग को लांछित करने से बाज़ आइए

 

आलोचक लोग कह रहे हैं कि चुनाव आयोग की तरफ़ से कोई और बैटिंग कर रहा है और सदन में सभापति की ओर से कोई और। काम किसीका और कर कोई और रहा है। 

यह सरासर ज़्यादती है। 

ऐसा न कहें। शब्द चयन बताते हैं कि आप आहत हैं। आहत मन से कोई बड़ा नहीं होता। आहत होकर आहत करना ठीक नहीं। 

बैटिंग कर रहा/ कर रही है, कहना ठीक नहीं। ऐसे कथन घोर असंसदीय है। सहयोग देने को बैटिंग कहना उचित नहीं। मूलतः तो यह सहयोग ही है, जो एकात्मवाद से उपजा है। जहाँ परायेपन का भाव होगा, सहयोग हो ही नहीं सकता। 

अब देखिए न, सभापति की ओर से एक पार्टी अध्यक्ष द्वारा सदन की कार्यवाही के रिकार्ड में क्या जाएगा और क्या नहीं, यह तय किए जाने को लेकर लोग ख़ासी नाराज़गी व्यक्त कर रहे हैं। 

कोई इसे सभापति के अधिकारों में हस्तक्षेप बता रहा है, तो कोई सीमाओं का अतिक्रमण। 

वास्तव में न तो यह किसी प्रकार से अधिकारों का अतिक्रमण है और न ही किसी तरह का कोई हस्तक्षेप, बल्कि विशुद्ध सहयोग है। 

इधर यह सहयोग ख़ूब फल-फूल रहा है। 

गर सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे तो यह किसी अन्य के अधिकारों का विस्तार ही कहा जाएगा। 

अभी हाल में यह विस्तार इतना बढ़ा कि एक जने को पदमुक्त तक करना पड़ा। उन्हें बीमार होने तथा उस स्थिति में तत्काल इस्तीफ़ा देने के लिए प्रेरित किया गया, ताकि विस्तार अबाध रहे। क्या यह सहयोग के बिना सम्भव था? बिलकुल नहीं। सहयोग और विस्तार एकदूसरे के पूरक हैं। अगर इस्तीफ़ा देने वाला सहयोग न देने पर अड़ जाता, तो क्या यह विस्तार हो पाता? 

इसी तरह के सहयोग की उम्मीद में हाल में ही जब आयोग में मनमाफ़िक संशोधन कर अपने वाले को बिठाकर सहयोग किया गया, तो लगा कि अब सहयोग के नए कीर्तिमान स्थापित होंगे। 

लेकिन आज उसी आयोग के लिए जब विरोधियों द्वारा संकट खड़ा किया जा रहा है, तो क्या उसे अकेला छोड़ देना चाहिए? 

ग़ैरों पे करम अपनों पे सितम . . . 

यह तो सनातनी संस्कृति नहीं! 

सहयोग ही संबंधों की ऊर्जा है और यह ऊर्जा तब अपने चरम पर होगी जब हम आपस में “तुम हमारे लिए, हम तुम्हारे लिए” के भाव से एकनिष्ठ हो जाएँगे। यह सूत्र द्वैत को नष्ट करता है। 

ख़ैर दुःख इस बात का है कि लोगबाग जान-बूझकर इस स्नेह की डोर की अनदेखी कर रहे हैं। लोग सद्भाव में भी राजनीति खोज रहे हैं। सच कहें तो यह भारतीय दर्शन का मूल है। दर्शन की भाषा में इसे अद्वैतवाद कहते हैं। इसका मूल मंत्र है “हम दो नहीं, एक हैं।” जिस तरह आत्मा और ब्रह्म में कोई द्वैत नहीं है; दोनों एक ही हैं, उसी तरह सरकार और अन्य संवैधानिक संस्थाओं में कोई द्वैत नहीं। 

तो कहने का मतलब चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई और सदनों को अलग-अलग करके देखना एक अलगाववादी दृष्टि है। ऐसी दृष्टि किसी टुकड़े-टुकड़े गैंग की ही हो सकती है। 

सच कहा जाय तो विविध विभागों के बीच यही वो आंतरिक एकता है, जिसे सच्ची में विविधता में एकता कहा जा सकता है। अब जैसे दिखने में तो भिन्न-भिन्न आयोग और संस्थाएँ हैं, पर अंदर से सब एक हैं। 

हम यह न कहेंगे कि यह नारा नेहरू से जुड़ा है, क्योंकि फिर कुछ लोग नेहरू का नाम ख़ारिज करके उसकी जगह ट्रंप धर देंगे, जो ठीक नहीं। 

तो कुल-मिलाकर कहने का मतलब यह है कि भिन्नता में एकता ही हमारी शुरूआती नीति रही है। 
 
इसलिए कट्टर निवेदन है कि “सहयोग” को लांछित करने से बाज़ आइए और चीज़ों को समग्रता में देखिए। 

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