और बेताल उड़नछू हो गया
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी संजीव शुक्ल1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
आज बेताल राह चलते एक जनवादी की पीठ पर जा चढ़ा। जनवादी कुछ समझ पाता इससे पहले ही बेताल ने अपनी पकड़ मज़बूत बनाते हुए पीठ पर बैठे-बैठे एक ऐतिहासिक सवाल दागा—महाभारत का युद्ध किसकी वजह से हुआ?
“पहले यह बताओ कि तुम हो कौन जो बिन बुलाए शैतान की तरह सर पर सवार हो गए। तुम्हारे लंबे गंदे बाल हमारी आँखों के सामने आ जा रहे हैं। इनको सही करो यार, चलने में दिक़्क़त हो रही। बदबू भी बहुत है इनमें।”
“मैं बेताल हूँ। पहले मुझे अपने जवाबों से संतुष्ट करो, नहीं तो मैं तुम्हें छोड़ने वाला नहीं, ऐसे ही सवारी करूँगा,” गोल-गोल आँखें नचाता हुआ बेताल बोला।
“ठीक है पूछो भाई,” बचने की कोई और जुगत न पाते हुए जनवादी ने विवशता में कहा।
“पूछा तो?”
“मैंने सुना नहीं, फिर से पूछो!”
“महाभारत का युद्ध किसकी वजह से हुआ?” बेताल ने दोहराया।
“युद्ध कौरवों की हठधर्मिता के चलते हुआ। कुरु श्रेष्ठ धृतराष्ट्र ने अंध प्रेम में पांडवों के साथ न्याय नहीं किया। धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने हस्तिनापुर पर पांडुपुत्रों के किसी भी तरह के राज्याधिकार को नकार दिया, जबकि युधिष्ठिर बड़े भाई होने के नाते सर्वाधिक सुपात्र थे,” जनवादी ने पूरी विनम्रता से उत्तर दिया।
“वैसे हमारे हिसाब से राज्य पर असली हक़ दुर्योधन का ही था। वह राजा का पुत्र था, सो उसका अधिकार पहले था। पांडव भाईचारा निभाते हुए यदि कुछ समझौता कर लेते तो यह युद्ध टाला भी तो जा सकता था? दोष सारा पांडवों का है”।
“बिलकुल टाला जा सकता था। पांडवों ने तो पूरे राज्य के बदले सिर्फ़ पाँच गाँवों की माँग तक ख़ुद को सीमित कर लिया था और कितना समझौता करते। पर दुर्योधन से तो वह भी देते नहीं बना।”
“पाँच गाँवों पर कौन महाभारत करता है भाई? पांडव ही लड़ने पर आमादा होंगे। पांडवों ने अगर वाक़ई में गंभीर कोशिशें की होतीं तो शायद युद्ध न होता।”
“अरे भाई दुनिया-जहान को मालूम है कि पांडवों ने समझौते के लिए ही कृष्ण को भेजा था। कृष्ण ने भरी कुरुसभा में कहा कि पांडवों को यदि पाँच गाँव भी मिल जाएँ, तो पांडव उसी में संतुष्ट हो जाएँगे। वे किसी भी अतिरिक्त राज्याधिकार की माँग नहीं करेंगे। पर दुष्ट दुर्योधन ने इस पर भी असहमति जताई और कहा कि वह पाँच गाँव तो क्या, सूई की नोक के बराबर भी ज़मीन नहीं देगा इन मंगतों को!” कहने की ज़रूरत नहीं कि जनवादी पांडवों में सर्वहारा वर्ग की छवि देख रहा था।
“अव्वल तो हमें लगता नहीं कि पाँच गाँव माँगे होंगे, अगर माँगे भी होंगे, तो वे पाँच गाँव ज़रूर पाँच देशों के बराबर रहे होंगे। अन्यथा इतने उदारमना शासक को अपने ही भाई के पुत्रों को पाँच गाँव देने में क्या दिक़्क़त हो सकती थी। आख़िर महाराज धृतराष्ट्र ने यूँ ही तो नहीं दुर्योधन की राय पर मुहर लगाई होगी। और फिर यह भी तो सोचिए कि पांडवों की तरफ़ से पाँच गाँव माँगने कौन आया था? वही जगत छलिया कृष्ण न! जिस पर उसके ख़ुद के नंदगाँव वाले तक भरोसा नहीं करते थे और तुम दुर्योधन से उम्मीद कर रहे हो कि वे कृष्ण पर भरोसा करते। भरोसा जीतने के लिए पहले भरोसे लायक़ बनना पड़ता है।” बेताल बातचीत को नया आयाम देते हुए बोला, “महाराज धृतराष्ट्र और कुछ हो न हो, पर दूरदर्शी तो अवश्य थे।”
“यह कैसी दूरदर्शिता?” जनवादी ने बेताल से असहमति जताई।
“अगर हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र को दुर्योधन की समझ पर ज़रा भी शंका होती तो यक़ीन मानो वे तुरंत एक्शन लेते। इससे पहले भी दुर्योधन कई बार महाराज के पैमाने पर खरा उतर चुका था। उतरता भी क्यों न, महराज ख़ुद उसको ट्यूशन देते थे। आख़िर राजपाट हड़पने की इच्छा पाले पांडवों को वनवास भेज देना दूरदर्शिता नहीं तो और क्या थी।
“सोचिए वामन भगवान ने राजा बलि से मात्र तीन पग भूमि ही माँगी थी और जैसे ही राजा बलि ने हामी भरी, तुरंत ही उस बौने ने विशालकाय होकर दो क़दमों में ही सारी पृथ्वी और आकाश नाप लिया, तीसरे की नौबत ही नहीं आई। कल्पना करिए, अगर कहीं सचमुच वही हालात सामने आ जाते तो क्या हाल होता बेचारे भोले कौरवों का। धृतराष्ट्र कृष्ण की कारिस्तानी ख़ूब जानते थे,” बेताल ने मन की बात कही।
“भाई मानो न मानो, लेकिन असलियत तो यही है कि धृतराष्ट्र पुत्र प्रेम में अंधे थे। उनके क़ानून सिर्फ़ विरोधियों पर ही लागू होते थे,” जनवादी ने अपनी दलील दी।
“वैसे सच्ची कहें तो हमें पाँच गाँव वाली बात कुछ पचती नहीं। इसकी आड़ में कुछ और ही खेल लगता है। सौ परसेंट यह खुरचाली कृष्ण की चाल रही होगी,” बैताल ने अपने बालों में उँगली फेरते हुए बोला।
“नहीं भाई यह किताबों में लिखी बात है। सच्ची घटना है। पुराणों तक में लिखा है। न मानो पन्ने पलट के देख लो। दिनकर की रश्मिरथी में भी यही बात लिखी है।”
“अरे भाई हमारा कहना है कि मामला उतना ही नहीं है जितना बताया जा रहा है। मात्र पाँच गाँवों की माँग तक ही बात को सीमित रखना पांडवों को मासूम बताने की कोशिश है। पुराणों में किसने लिखा? पांडवों के ही आदमियों ने न! अरे भाई जब पांडव जीत गए तो अपने आदमियों के ज़रिए अपना इतिहास लिखवा लिया होगा। पाँच गाँव माँगने की बात का तो ख़ूब ढोल पीटा गया, लेकिन उसके आगे-पीछे का हाल और बहुत सी शतरंजी चालें बहुत होशियारी से छुपा ली गईं।
“इतना मासूम इतिहास ज़रूर वामपंथियों द्वारा ही लिखा जा सकता है। हम इसे नहीं मानते। अब नया और सच्चा इतिहास लिखा जाएगा,” बेताल ने मन की बात कही।
“नया इतिहास न कहिए, नया महाभारत कहिए। वैसे नए इतिहास में क्या युवराज दुर्योधन पांडवों से पाँच गाँव माँगने जाएँगे?” जनवादी ने तंज़ कसते हुए कहा।
“नहीं! हम पांडवों को विक्टिम कार्ड खेलने ही न देंगे। इतिहास में पाँच गाँव वाली बात रखेंगे ही नहीं।”
“माने न होगा बाँस न बजेगी बाँसुरी!” जनवादी ने फिर बेताल पर तंज़ कसा।
“नहीं यह इतिहास को समझने की नई दृष्टि है। आख़िर पाँच गाँवों को लेकर कोई युद्ध हो सकता है क्या?”
“तो माने तुम दुर्योधन को राष्ट्रभक्त बना के ही मानोगे।”
“नहीं! दुर्योधन स्वयं में राष्ट्र था, उसे भक्त बनने की क्या ज़रूरत। शेष प्रजा ही राष्ट्र पूजक थी। तुम पांडवों के पक्ष में बेवजह नरेटिव बना रहे हो, जो दुर्भावनापूर्ण है। हम तुम्हारे उत्तर से संतुष्ट नहीं।”
“तुम संतुष्ट होना ही नहीं चाहते। क्योंकि तुम सच स्वीकारना नहीं चाहते।”
“नहीं। तुम दुर्योधन के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो।
“हम इसमें दुर्योधन के प्रति ऐतिहासिक मानहानि देखते हैं। हम मानहानि का मुक़द्दमा दायर करेंगे अन्यथा . . .”
“अन्यथा क्या?”
“अन्यथा देश से माफ़ी माँगिए।”
“क्या अब सच बोलने के लिए भी माफ़ी माँगनी पड़ेगी?”
“अगर तुम्हें लगता है कि तुम सच बोल रहे हो तो एफ़िडेविट दीजिए,” बेताल गुर्राकर बोला।
“तुम होते कौन हो एफ़िडेविट माँगने वाले?” जनवादी पलटवार करते हुए बोला।
“मैं कुरूपक्ष की तरफ़ से दुर्योधन का दूर का रिश्तेदार हूँ,” आवाज़ में वज़न ख़ुद ब ख़ुद आ गया।
“ओह तब तो हम ही ग़लत जगह बहस कर रहे थे। चलो फिर इसका निर्णय जनता की अदालत में होगा।”
“जनता की अदालत में क्यों? कुरु श्रेष्ठ की अदालत में क्यों नहीं?”
“भाई बेताल किस युग में जी रहे हो अभी भी। अब राजा नहीं होते। अब जनता की सरकार है। जनता ही निर्णय करेगी।”
“तो अब राजा नहीं होते?” बेताल ने परेशान होकर कहा।
“नहीं अब जनतंत्र है।”
“ओह जनता तो तब भी कौरवों के पक्ष में नहीं थी, तो अब क्या होगी?” ऐसा कहक़र बेताल तुरंत उड़नछू हो गया!
जनवादी को आज एक बार फिर स्वयं पर विश्वास और दृढ़ हो गया।
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