हर जंग बेवज़ह थी
काव्य साहित्य | कविता कृषभो1 Mar 2020 (अंक: 151, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
उड़ते आसमां के
बादल हो गये थे;
ग़रूर के नशे में
पागल हो गये थे।
दी बुढ़ापे ने दस्तक
तब होश सँभला;
बदहवास थे वो
मुँह से बस निकला।
हर जंग बेवज़ह थी....
हर जंग बेवज़ह थी....
परेशां हैरान हो
उम्र काटते हैं;
कोई लेता नहीं
अक्ल बाँटते हैं।
देखते हैं वल्द को
दूरियाँ बढ़ाते;
बेकस ये बेबसी
मन में बुदबुदाते।
हर जंग बेवज़ह थी.....
हर जंग बेवज़ह थी....
न हुस्न रह गया
न शक्ल रह गई;
हर दिन सताती
ये अक्ल रह गई।
क़दम मिलते नहीं
नई पुश्त ताल से;
बड़बड़ा उठते हैं
अपने इस हाल पे।
हर जंग बेवज़ह थी....
हर जंग बेवज़ह थी....
सरकशी के इनके
क़िस्से नहीं रहे;
महफ़िलों में अब
हिस्से नहीं रहे।
ज़माने की भीड़
ख़ुद को खोजते हैं;
कितने अकेले
बस यही सोचते हैं।
हर जंग बेवज़ह थी....
हर जंग बेवज़ह थी....
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