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मातादीनजी का कन्फ़ैशन

शरीफ़ों को फ़र्स्ट डिग्री टार्चर का डर भर ही दे, उनसे ज़ोर ज़बरदस्ती न किए पाप भी तुरंत सहर्ष स्वीकार करवाने वाले कांस्टेबल ’कम’ थानेदार मातादीनजी, जब उस दिन चोरों के साथ दिन भर की थकान मिटाने को रोज़ की तरह पीने बैठे ही थे कि पीते-पीते अचानक उनका लीवर जवाब दे गया। दिमाग़ तो ख़ैर उनका उसी दिन डेमेज हो गया गया था जिस दिन वे सरकारी नौकर हुए थे। और पीते पीते ही उनकी इहलीला समाप्त हो गई। 

मुफ़्त का खाने-पीने से मंदिर का पुजारी तक अपनी सेहत ख़राब कर बैठता है और मातादीनजी तो ठहरे कांस्टेबल ’कम’ थानेदार मातादीनजी! एक तो मातादीनजी ऊपर से पेरेंटल विभाग पुलिस का। ख़ैर, ग़लत पर तो उनकी पारखी नज़र कम ही गई। अगर गई भी तो उन्होंने कुछ लेकर उसे मुस्कुराते हुए बाइज़्ज़त छोड़ दिया। पैसा पाप करने के बाद भी पुण्यात्मा बनवाने का सबसे सरल सलीक़ा है। पर ग़लती से जो कहीं किसी सही पर उनकी नज़र पड़ गई तो वे उससे उसका जुर्म क़बूल करवा कर ही साँस लेते। 

कांस्टेबल ’कम’ थानेदार मातादीनजी भाईसाहब को अब धीरे-धीरे रिश्‍वत लेकर समाज में जुर्म बढ़वाने की ऐसी आदत पड़ गई थी कि दिन में जब तक वे सड़क के किनारे ठीक जगह पर खड़ी गाड़ियों के भी चालान न कर लेते, या उनसे चालान न काटने के बदले फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी न कर लेते, उन्हें रोटी तक हज़म न होती, पेट में चूहे दौड़ने के बाद भी वे अन्न का दाना तब तक ग्रहण न करते जब तक वे ऐसे वैसे कह किसीका चालान न काटने की सफल नौटंकी कर सौ-पचास मेहरबानी करते न ले लेते... मुस्कुराते हुए। 

शहर के सारे प्रतिष्ठित चोर उनके नाक के बाल थे। वे दिन भर जो भी जहाँ भी चोरी-चकारी करते, शाम को उनका तय हिस्सा आँखें मूँद पूरी ईमानदारी से उन्हें अर्पित समर्पित कर देते। 

तो मातादीनजी चले गए। कहाँ? जहाँ न चाहने के बाद भी हर जीव को जाना होता है। वही मातादीनजी जो परसाई के समय में चाँद पर गए थे, सरकारी ख़र्चे पर। अपने ख़र्चे पर तो दुनिया दुनिया घूमती है। ऑनेस्‍ट नौकर वही जो सरकारी ख़र्चे पर अपने बाप के पिंड देने, गया पिहोवा तक कर आए। 

कांस्टेबल ’कम’ थानेदार मातादीनजी, कांस्टेबल ’कम’ थानेदार मातादीनजी से लेट मातादीनजी हुए तो यमलोक में जा पहुँचे, विभागीय ड्रेस में ही। कमबख्त यमदूतों ने ड्रेस बदलने का भी समय न दिया। पर ईश्वर जो करता है, ठीक ही करता है। उन्होंने भी सोचा कि चलो, ऊपर भी वर्दी की रौब आज़माइश हो जाए इसी बहाने। दूसरी ओर विभाग ने भी सोचा कि चलो, गंदे के साथ उसकी गंदी ड्रेस भी दे देते हैं। कोई और पहनेगा तो विभाग की और छीछालेदर ही होगी। यहाँ तो जो मुल्ला के कपड़े पहन कर भी शहर में निकलो तो चोरों को पता नहीं कैसे भनक लग जाती है कि पुलिस वाला शहर में मौलवी के भेष में निकला है। और ले आते हैं उन्हें चुपचाप उनका हिस्सा। 

दोस्‍तो! कुछ विभागों में मुँह खोलने की ज़रूरत नहीं होती। लोग ज़बरदस्ती मुँह खुलवा उसमें डाल देते हैं। बस उन्हें इतना भर बताना पड़ता है कि वे भी मुँह रखते हैं। डरे लोग कई बार तो मुँह में इतना डाल देते हैं कि मुँह में डाला चबाया भी नहीं जाता। ऐसे में जब मुँह में डालने वाला अपना काम कर चलता बनता तो वे अपने मुँह में डाले को निकाल जेब में डाल लेते। ऊपर वालों को खिलाने-पिलाने के लिए।
 
लेट मातादीनजी भी उन्हीं गणमान्य विभागों में से खाने के प्रति कर्तव्यनिष्ठ चुस्त कर्मचारी थे। इस इलाक़े से लेकर उस इलाक़े तक के नंबर दो का धंधा करने वालों के बीच उनकी तूती नहीं, तूतियाँ बोलती थीं। 

मातादीनजी गए तो नॉन स्टाप सीधे यमराज के पास! ड्रेस में जो थे। जिसने भी उन्हें देखा, ऑन ड्यूटी समझा । वैसे भी कहीं रुकना उनकी आदत न थी। हाथ में क़ानून का रंग उतरा डंडा। मूँछें यमराज से भी अकड़ी हुईं फिक्सो लगा के। यमराज ने उनकी मूँछें देखीं तो अपनी मूँछों से उन्हें ग्लानि हुई। यार! मुझसे अच्छे तो मातादीनजी है। चरित्र का नहीं तो कम से कम मूँछों को तो बराबर ख़याल रखे हैं। आदमी का ज़िंदगी में कोई न कोई पैशन ज़रूर होना चाहिए। इससे ज़िंदगी में रवानी बनी रहती है।

"सर! क्या आपने मुझे फिर याद फ़रमाया? सर! माईसेल्फ़ मातादीन एक बार फिर क्या चाँद पर?”

"चाँद पर नहीं, अबके यमलोक में! अब तुम यहीं रहोगे,” यमराज ने दूसरे की फ़ाइल बंद कर मातादीनजी से मुख़ातिब होते कहा।

"मतलब?”

"मतलब ये कि... अब तुम्हारा घड़ा भर चुका है।"

"पर अपन के यहाँ तो आजकल पानी तक का घड़ा भी नहीं भरता! फिर कहीं इसका मतलब यह तो नहीं सर कि जीव को आप तब यहाँ बुलाते हैं जब उसके पाप का घड़ा आई मीन… वो भर जाता है? बट सर! दिस इज़ वेरी बैड!”

"देखो मातादीनजी! गुड-बैड हमें मत समझाओ। तो तुम क्या समझे हो कि किसी गाड़ी वाले के पीछे उससे सौ लेने के लिए भागते-भागते यहाँ आ पहुँचे?”

"ऐसा नहीं सर! मातादीनजी ने अपनी नौकरी में जो भी किया-लिया है ठोक बजा कर किया-लिया है, वह भी अपनी सीमाओं में रहकर, पूरे होशोहवास में, जो डरें तो वे मातादीनजी नहीं।"

"मतलब?” 

पर दूसरी ओर जब मातादीनजी ने सज़ा याफ़्ता जीवों के हाल देखे तो उनके पसीने छूटने लगे। टार्चर की ये कौन सी डिग्री होगी री मेरी धर्मपत्नी! 

"सर! अब आपसे छिपाना क्या? लिए में से मैं अपने घर न के बराबर ही ले जाता था। मेरे ऊपर और भी हैं न! सच कहूँ तो मैंने उनके लिए रिश्‍वत का धंधा अधिक,अपने लिए कम किया। ऊपर से आदेश हो जाते थे कि... हफ़्ते में लाख जमा करो। साहब का जन्मदिन है। विभाग की ओर से नाक, सॉरी केक कटवाना है। मरता क्या न करता? नौकरी तो नौकरी है साहब! अब आप ही कहो- जीव सरकारी नौकरी क्यों करता है?”

"अपने बीवी बच्चों के लिए?”

"ग़लत सर!”

"तो अपने ऐशो-आराम के लिए?”

"आपका आंसर अभी भी ग़लत सर!”

सुन यमराज असमंजस में! ये मातादीनजी आख़िर पूछना क्या चाहते हैं? पर कोई बात नहीं। वह जो भी पूछना चाहते हों, वे उसका जवाब देकर ही रहेंगे। वे किसी भी हाल में मातादीनजी की मूँछों के आगे अपनी मूँछें क़तई नीची नहीं होने देंगे। 

"एक प्यारा सा फ़्लैट दिल्ली के पॉश इलाक़े में लेने के लिए?”

"सॉरी! ये भी ग़लत सर!" मातादीनजी ने मुस्कुराते कहा तो यमराज के दिमाग़ में खारिश सी होने लगी। 

"तो अपने वेतन से बीस गुणा लंबी कार लेने के लिए?”

"बस सर! मृत्युलोक से आत्माएँ लाकर उन्हें सज़ा देते हो, पर इतना भी पता नहीं कि मेरे जैसे ये सब पाप किस मजबूरी में करते हैं?”

"पाप करने की भी कोई मजबूरी होती है क्या?” लो जी! अब पेश है पाप का अब एक नया दर्शनशास्त्र!

"होती है सर! हर पाप पुण्य को करने के पीछे आदमी की कोई न कोई मजबूरी ज़रूर होती है। अगर यह मजबूरी न होती तो आदमी को क्या ज़रूरत थी बेकार में पाप या पुण्य करके पंगे लेने की? जो ये मजबूरी न होती तो संसार पाप, पुण्य से मुक्त होता। या कि दूसरे शब्दों में कहूँ तो पाप में पुण्य होता और पुण्य में पाप,” सुन यमराज परेशान! यार! ये मातादीनजी हैं या... चालाक आदमी तो उन्होंने बहुत देखे थे, पर उन्हें कभी ऐसा चालाक जीव भी मिलेगा, उन्होंने इस बात की कभी कल्पना भी न की थी। 

"अच्छा तो तुम ही कहो फिर सरकारी नौकरी में रहकर जीव पाप किस लिए करता है?”

"प्रतिशत में कहूँ तो बीस प्रतिशत अपने घरवालों के लिए, नब्बे प्रतिशत अपने पद से ऊपर वालों के लिए। सरकार की कोठरी में कितने ही सँभल कर रहो सर! ये वे काले करके ही दम लेते हैं। तब न चाहते हुए भी मुँह पर कालिख मलनी ही पड़ती है सर! ऊपरवालों की डिमांड अपनी पगार से तो पूरी नहीं हो सकती न? आप ही कहो, हो सकती है क्या? पगार मिली महीने की बीस हज़ार, और ऊपर से मौलिक आदेश कि पचास हज़ार लाओ जैसे भी। अब तीस कहाँ से? घर में बीवी-बच्चों का गला घोंट दें क्या? ऊपर से विभाग ऐसा कि लोग तो यह समझते हैं साला सोए-सोए भी जेब भरता रहता होगा। इसके तो पतझड़ में भी पेड़ों पर नोट ही लगते होंगे। सच कहूँ सर! जिस विभाग का कर्मचारी न देखा सो ही भला। अगर हमाम में नहाने को मन भी न हो तो भी वे एक सौ छह डिग्री बुखार होने के बाद भी नंगे कर ठंडे पानी के हमाम में धकेल कर ही साँस लेते हैं। और जब मन को धीरे-धीरे हमाम में नहाने की आदत पड़ जाती है तो... अब आप जो ठीक समझें, करें हुकुम!” 

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