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सम्मानित होने का चस्का

 

मेरे इधर–उधर चस्के मस्के वालों की कमी नहीं। एक से एक चस्के मस्के वाले एक दूसरे को पटखनी देते हुए आँखें बंद किए भी मज़े से देखे जा सकते हैं। मस्का वह सबसे शक्तिशाली हथियार है जिसके अपने पास होने पर कोई भी चस्की चारपाई पर लेटे-लेटे ही हिमालय की उस चोटी को फ़तह कर सकता है जिस पर आज तक कोई पहुँच ही नहीं पाया। 

यहाँ किसी को झूठ का चस्का है तो किसी को लूट का। किसी को भक्ति का चस्का है तो किसी को देशभक्ति का। किसी को कुर्सी का चस्का है तो किसी को मातमपुर्सी का। सच बोलने का, ईमानदारी का चस्का किसी को नहीं। इसलिए लोग-बाग झूठ को ही सच में लपेट पूरे आत्मविश्वास से बोलने लगे हैं। बेईमानी को ईमानदारी के चमचमाते रैपर में लपेट गिफ़्ट करने लगे हैं। मेरे जैसों को तो छोड़िए अब तो बड़े-बड़े हरिश्चंद्र तक औरों से तो छोड़िए, अपने तक से सच नहीं बोलते। जब आदमी अपने प्रति ही सच्चा, ईमानदार नहीं तो दूसरों के प्रति वह सच्चा, ईमानदार क्या ख़ाक होगा? 

जिसको चस्का है वह मस्का लगाने में भी पीछे नहीं। चस्के का हर क़दम मस्के की रेड कारपेट से होकर ही गुज़रता है। जो मस्का लगाने में माहिर होते हैं उनके जागे-जागे देखे सपने भी पूरे होते हैं। वे आराम से लेटे-लेटे आसमान से तारे तोड़ लाने का हुनर रखते हैं। 

वे सम्मान जगत के प्रतिष्ठित, लब्धप्रतिष्ठित सम्मान पिपासु हैं। इनको लिखने का नहीं, सम्मानित होने का चस्का है। वे लिखते नहीं, पर आए दिन इधर–उधर किसी न किसी साहित्यिक प्रोग्राम में सम्मानित होते रहते हैं। कई बार तो उनके सम्मानों की उनकी हाइट से लंबी लिस्ट देखकर लगता है जैसे वे हर संस्था में इकलौते पंजीकृत सम्मानीय हों। जैसे उनका अवतरण इस धरती पर हुआ ही सम्मानित होने के लिए हो। 

इनके सम्मानित होने के चस्के का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि जयंती प्रेमचंद की होती है तो प्रेमचंद के सम्मानित होने के बदले आँखें मूँद सम्मानित वे हो लेते हैं। पुण्यतिथि जयशंकर प्रसाद की होती है तो जयशंकर प्रसाद के सम्मानित होने के बदले मंद-मंद मुस्कुराते हुए सम्मानित वे हो लेते हैं। जंयती कबीर की होती है तो कबीर के सम्मानित होने के बदले धीर गंभीर मुद्रा में शॉल गले में डलवाने को मंच पर विनम्र अकड़े सम्मानित वे हो लेते हैं। जयंती तुलसीदास की होती है तो गले में फूलों की माला शॉल, श्रीफल, प्रशस्तिपत्र लिए कार्यक्रम के ख़ास वे हो लेते हैं। बेचारे तब ये वे अपनी जयंती, पुण्यतिथि पर सम्मानित होने के लिए बुलाए जाने के बाद भी अपनी जंयती, पुण्यतिथि के कार्यक्रम में किसी कोने में पड़े खड़े टुकुर-टुकुर अपना मुँह ख़ुद निहारते उनके मस्के चस्के को कोसते रहते हैं। काश! उनके पास भी ये हुनर होता तो मरने के बाद ही सही, वे भी सम्मान का अमृत फल चख हो अमर हो लेते। 

अबके तो उनके सम्मानित होने के चस्के की हद ही हो गई जब जन्मदिन भार्या का था और अपनी बीवी को परे धकेल उनके गिफ़्ट ख़ुद लेते रहे। 

कल इन्हीं प्रतिष्ठित, लब्धप्रतिष्ठित सम्मान पिपासु का फोन आया, “और क्या चल रहा है?” 

“कुछ नहीं,” चार जनों की साहित्यिक संस्था का प्रधान होने के चलते मैंने भी वैसे ही कह दिया। असल में मेरे पास उनका सेव नंबर नहीं था सो माफ़ कीजिएगा! उन्हें पहचान नहीं सका तो वे ही अपना परिचय देते बोले, 
“मैं सौ सम्मानों से सम्मानित प्रतिष्ठित, लब्धप्रतिष्ठित सम्मान पिपासु श्री बोल रहा हूँ।” 

“माफ़ कीजिएगा। प्रणाम सर! पहचानने में ग़लती हो गई,” मैंने अपनी ग़लती सुधारी, “हे सम्मान जगत के देदीप्यमान धूमकेतू! कैसे स्मरण किया?” 

“विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है तुम कोई साहित्यिक संस्था चलाते हो?” 

“चलाते नहीं सर! बस, बनाई है चंदा लेने को,” पता नहीं, मैंने सच क्यों कह दिया। 

“तो मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी संस्था मुझे सम्मानित कर सम्मानित हो।”

“सर! हमारे पास इतने रिसोर्सिस नहीं कि . . . हम तो चाय पानी ही करवा सकते हैं।”

“डाँट वरी! सम्मान का सारा सामान और अन्य सब ख़र्चा मेरा होगा। फ़ंड की कोई चिंता मत करो। पद पर रहते बहुत कमाया है। कितना लगेगा?” सुन मेरा दिमाग़ चक्कराया। मैंने डरते डरते दो की जगह दस कहे तो वे मुस्कुराते बोले, “अपना बैंक खाता दो, अभी डाल देता हूँ। पर सम्मान कार्यक्रम हो चकाचक।”

“सर! आपको कौन सा सम्मान देकर हम कृतार्थ हों? सूरदास सम्मान, तुलसीदास सम्मान, बिहारी सम्मान, चंदरबरदाई सम्मान, अज्ञेय सम्मान, सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, माखन लाल चतुर्वेदी सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान, मीरा सम्मान या फिर . . .” मुझे जितने साहित्यकारों के नाम याद थे, मैंने उतने सम्मान उन्हें गिनाए तो वे मुझे डाँटते से बोले, “ये सब तो मैं ले चुका हूँ। जॉन कीट्स सम्मान लिखवा देना सम्मानपत्र पर। हिंदी के लेखकों के सिर पर बहुत टाँग फेर ली। जॉन कीट्स भी क्या याद करेगा कि . . . सम्मान समारोह की तिथि जल्दी रखिएगा। आजकल तबीयत ज़रा ढीली चल रही है।”

“पर सर! माफ़ कीजिएगा! हमारी संस्था हिंदी है। ऐसे में . . .”

“साहित्य तो बस, फ़ाइनली साहित्य होता है बुड़बक्क! क्या हिंदी क्या अंग्रेज़ी! सब भाषाई माया है। तुम व्हाट्सैप पर हो न?” कितना गधा हूँ मैं? सुन अपने पर हँसी भी आई। 

“जी हाँ! मेरा यही नंबर व्हाट्सैप नंबर है।”

“मेरा भी यही नंबर है। हाय कर दो अपने बैंक खाते, आईएफएससी नंबर, बैंक ब्रांच सहित! पर सम्मान समारोह हो अविस्मरणीय। स्मरणीय में अब मेरा विश्वास नहीं,” उन्होंने मुझे आदेश दिया और बड़े अदब से फोन काट दिया। 

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