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पुरस्कार रोग से लाचार और मैं तीमारदार

कवि दो तरह के होते हैं। एक वे जो समाज के लिए लिखते हैं, दूसरे वे जो पुरस्कार के लिए लिखते हैं। वे पुरस्कार को लिखने वाली श्रेणी के कवि हैं। समाज के लिए लिखने वाला कवि पुरस्कार के नहीं लिखता और पुरस्कार के लिए लिखने वाला कवि समाज के लिए नहीं लिखता। दोनों की अपनी अपनी पीड़ाएँ हैं। 

तो वे दूसरी श्रेणी के स्तब्ध प्रतिष्ठित कवि हैं। वैसे तो वे बाहर से बिल्कुल फ़िट दिखते हैं, पर भीतर ही भीतर असाध्य पुरस्कृत होने की बीमारी ने उन्हें बुरी तरह खोखला कर दिया है। साहित्य के स्वयंभू डॉक्टरों ने उन्हें साफ़ कर दिया है कि अब उनकी इस बीमारी का इलाज किसी पैथी में नहीं। वे तब तक घर से बाहर नहीं निकलते जब तक वे कहीं अपने को पुरस्कृत करने का जुगाड़ नहीं कर लेते। जहाँ-जहाँ उन्हें अपने सामान से अपने को सम्मानित करवाने की ज़रा सी भी सम्भावना नज़र आती है, वहाँ-वहाँ वे आधी रात को भी बिस्तर से निकल पड़ते हैं। या कि वे घर से जब-जब बाहर क़दम रखते हैं तो उनका बस, एक ही टारगेट होता है कि वे अब घर लौटेंगे तो सम्मानित होकर ही लौटेंगे। वर्ना नहीं लौटेंगे। और मज़े की बात! वे हरबार अपने लक्ष्य में सफल भी होते हैं। 

उनकी सबसे अच्छी बात जो मुझे ही नहीं, उनको सम्मानित करने वाली हर संस्था को भी लगती है, वह यह कि वे अपने को पुरस्कृत करवाने का बोझ किसी संस्था, व्यक्ति पर नहीं डालते। अपने पुरस्कृत होने का सारा ख़र्चा वे ख़ुद ही वहन करते हैं। पुरस्कार समारोह में समोसा चाय से लेकर हाय! हाय! तक सारा। और इधर-उधर मिल-मिलाकर जब वे अपनी जेब के बूते पुरस्कृत हो जाते हैं तो झट अपनी फ़ेसबुक वॉल पर लेप देते हैं—अमुक साहित्य विधा, अमुक संस्था, अमुक नगरे, अमुक तिथि वासरे, मी पुनः पुरस्कृतः। 

जब भी वे घर से बाज़ार सब्ज़ी लाने भी निकलते हैं तो वे सब्ज़ी लाने को जेब में पैसे डालने भूल जाएँ तो भूल जाएँ, पर झोले में अपने को पुरस्कृत होने की क्रिया-प्रक्रिया में काम आने वाली ए टू जेड सामग्री डाले निकलते हैं। यथा—शॉल, टोपी, श्रीफल, सरस्वती की प्रतिमा, सम्मान के नाम वाला बहुत पहले छपवाया प्रमाण पत्र जिसमें संस्था का नाम, स्थान, उसके द्वारा उनको दिए जाने वाले सम्मान की जगह ख़ाली छोड़ी हुई। तब जो संस्था जिस पुरस्कार के नाम से उन्हें अलंकृत करना चाहे उस स्थान पर भर उन्हें सादर सम्मानित कर अपने को कृतार्थ कर सकती है। 

अबके बड़े दिनों से उनकी फ़ेसबुक वॉल पर उनके इधर-उधर पुरस्कृत होने की चमत्कारिक ख़बर पढ़ने को न मिली तो मन में कुछ आशंका-सी हुई। सोचा! बंधु स्वस्थ तो होंगे न! सच कहूँ तो उनके बिना फ़ेसबुक सूनी-सूनी सी लगती है। जिस दिन वे फ़ेसबुक पर साहित्य के नाम पर कचरा नहीं डालते उस दिन फ़ेसबुक से बू नहीं बदबू आती है। 

आशंकाओं, शंकाओं के बीच तब मैंने उनसे संपर्क किया, “कैसे हो बंधु! बड़े दिनों से फ़ेसबुक पर आपके पुरस्कृत होने का कोई समाचार नहीं मिला पढ़ने को। मेरी उँगलियाँ आपको लाइक करने को दुख रही हैं।” तो वे लंबी साँस लेते बोले, “यार! कई दिनों से वायरल हो रखा है।” 

“पुरस्कृत होने का वायरल तो तुम्हें लिखने से पहले का है। ऐसे में अब कोई नया वायरल? वायरल को भी कभी वायरल होता है क्या?” 

“मज़ाक मत कर यार! एक तो अवांछित वायरल ने परेशान कर रखा है और ऊपर से तुम परेशान कर रहे हो। मेरे लिए एक काम कर सकते हो?” 

“हाँ! क्यों नहीं। कहो, कौन सी दवा लेकर आऊँ जिससे तुम्हारा वायरल ठीक हो जाए?” 

“दवा को मारो यार गोली! बहुत दिनों से कहीं से किसी संस्था से पुरस्कृत नहीं हुआ हूँ। मन में अजीब सा कुछ कुछ हो रहा है। न भूख है न प्यास!”

“तो??” मैं चिंताग्रस्त! मित्र को कुछ हो हवा गया तो अपनी जेब से पुरस्कृत होने वाला साहित्य जगत में एक कम न हो जाए कहीं। 

“मेरे घर आ सकते हो क्या?” 

“पर तुम्हारा ये अनाप शनाप पुरस्कृत होने का वायरल मुझे तो नहीं लग जाएगा कहीं?” 

“बिल्कुल नहीं यार! ये मेरा निजी वायरल है। तुम आकर मुझे बस, पुरस्कृत कर जाओ तो मैं . . . घर में पुरस्कृत करने की सारी सामग्री तैयार है। बस, तुम्हें मुझे पुरस्कृत करते हुए मेरे साथ एक फोटो भर खिचवानी है। शेष सब मैं देख लूँगा। इस बहाने साथ-साथ जलपान भी हो जाएगा और . . . हो सकता है इससे मेरा वायरल ठीक हो जाए . . . ” अपने ख़ास दोस्तों के स्वस्थ होने का इलाज हम ख़ास दोस्त नहीं करेंगे तो दुश्मन तो करने से रहे। 

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