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ओम् जय उलूक जी भ्राता!

मैं बचपन से ही प्रयोगधर्मी जीव हूँ, उपभोगधर्मी जीव हूँ। अपने स्वार्थ के लिए नित नए प्रयोग करता रहता हूँ, प्रयोगों से जो मिलता है उसका निर्लिप्त भाव से उपभोग करता रहता हूँ। 

मैंने असत्य के प्रयोग किए। सफल हुए और मैं मालामाल हो गया। मैंने रिश्वत के प्रयोग किए। सफल हुए और मैं मालामाल हो गया। मैंने बदतमीज़ी के प्रयोग किए। सफल हुए और मैं मालामाल हो गया। मालामाल होने के लिए लीक पर नहीं, लीक तोड़ कर चलना पड़ता है। 

अबके एक बार फिर प्रयोगधर्मी जीव होने के चलते दिवाली को मैंने प्रयोग किया। और मज़े की बात, वह सफल हो गया। मैंने किया क्या कि अबके लक्ष्मी के बदले उनके सेवक उलूक जी की पूजा कर डाली। यह देख शुरू में तो मेरे घर के सारे परेशान हो उठे। उन्हें लगा अब मैं उलूक भी हो रहा हूँ। वैसे महान से महान आदमी के उलूक जी होने में देर नहीं लगती। उलूक जी को आदमी बनते सदियाँ लग जाती हैं। उसके बाद भी क्या गारंटी की वे आदमी बन ही जाए। 

दिवाली की रात बीवी थी कि आँखें मूँदे हाथ में आरती का काग़ज़ पकड़े माँ लक्ष्मी की आरती गा रही थीं, पूरी तन्मयता से। और बीच-बीच में मुझे भी ऊँचे स्वर में अपने सुर के साथ सुर मिलाने का दबका रही थी घर का हेडलेस हेड होने नाते। बीवी के इस गवैया रूप को जो उस वक़्त सूरदास देख लेते तो भजन गाना सदा को बंद कर देते। बीवी के इस गवैया रूप को जो मीरा देख लेतीं तो भजन गाना सदा को बंद कर देतीं। बीवी तब अपनी मानसिक ग़रीबी रो रो कर माँ लक्ष्मी को सुना रही थीं, “हे लक्ष्मी माता! तेरी आरती जो भी गाता! आरती में वह जो भी माँगता, सब पा जाता। हे लक्ष्मी माता!” कि तभी मेरे दिमाग़ में आइडिया बिजली से भी तेज़ गति से कौंधा, यार! इतिहास गवाह है कि साहब को रिझाने के लिए साहब का गुणगान चाहे कितने ही तन्मय होकर क्यों न करो, फिर भी वे उतनी जल्दी नहीं पसीजते जितनी जल्दी उनके सेवक के गुण गाने से वे रीझ, पसीज उठते हैं। उनके सेवक की आरती गाते ही उनका सेवक उन्हें भक्त की सहायता करने नंगे पाँव दौड़ने को विवश कर देता है। तब उनके मुँह की रोटी मुँह में, तो हाथ की रोटी हाथ में रह जाती है। साहब में उतनी शक्ति नहीं होती जितनी साहब के सेवक में होती है। 

बस, फिर क्या था। मेरा मन एकबार फिर नूतन प्रयोग करने को बिदक उठा। मैंने चुपके से बीवी के साथ लक्ष्मी माँ की आरती गानी छोड़ मन ही मन उलूक जी की आरती गानी शुरू कर दी, “ओम् जय उल्लू भ्राता! हरि ओम् जय उल्लू भ्राता! दिवाली की रात जो लक्ष्मी को छोड़ तुमको ध्याता। वो बिन माँगे नम्बर वन हो जाता। ओम् जय उल्लू भ्राता! . . .” आगे अभी उल्लू की तारीफ़ में भक्तिमय शब्दों की तुकबंदी मन ही मन कर रहा था कि अचानक दरवाज़े पर उलूक जी की सी फड़फड़ाहट सुनाई दी तो मेरे कान खड़े हो गए। लगा, मेरा यह प्रयोग भी सफल हुआ। मैंने बीवी को वहीं आँखें मूँदे छोड़ा और दरवाज़े की ओर लपका। देखा तो उलूक जी लक्ष्मी को लेकर मेरे दर पर! मेरी अंदर की साँस अंदर तो बाहर की साँस बाहर। मैं कभी उलूक जी का मुँह देखूँ तो कभी माँ लक्ष्मी का तो कभी हाथ में पूजा की थाली लिए माँ लक्ष्मी की तस्वीर के आगे आँखें बंद किए गिड़गिड़ाती श्रीमती का। शीशा सामने होता तो अपना भी देख लेता। 

चमत्कार! घोर चमत्कार! 

“लो, मैं माँ लक्ष्मी को लिए आ गया मेरे अनुज! अब माँ से जो माँगना बदतमीज़ होकर माँगो। मैं तुम्हारे भक्ति भाव से अति प्रसन्न हुआ,” उलूक जी ने कहा तो मेरी घिग्घी बँध गई। अंदर के शब्द अंदर तो बाहर के शब्द बाहर! जब उलूक जी ने मेरी स्थिति देखी तो उन्होंने ही पुनः कहा, “लो बड़े भैया! माँ लक्ष्मी अबसे आपकी श्रीमती की हुईं। साहब के बदले जो साहब के सेवक की आरती करता है उसे साहब का फल एक न एक दिन ज़रूर प्राप्त होता है। पर यह जग अज्ञानवश उनके सेवक को भूल साहब की भक्ति में ही उलझा रहता है। वह यह नहीं जानता कि हर युग में साहब से पॉवरफुल साहब का सेवक रहा है। फिर भी पता नहीं क्यों साहब के उचित अनुचित लाभार्थी साहब! साहब! ही रटते रहते हैं?” 

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