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असंतुष्ट इज़ बैटर दैन संतुष्ट

 

वे करते क्या हैं? क्या बताऊँ? बस, इतने भर में सब समझ लीजिए कि इसको उसको मठाधीश बनाने के लिए असंतुष्टों को संतुष्ट करने का छोटा-मोटा धंधा करते हैं। जनाब की दूसरी ख़ासियत है, जब भी मुझसे बात करने के इच्छुक होते हैं, मुझे मिस्ड कॉल ही देते हैं। उनकी मिस्ड कॉल आते ही मैं समझ जाता हूँ कि जनाब का मन मुझसे बातें करने को हो रहा है। 

कल फिर ऐसा ही हुआ। क़ायदे से उनकी परंपरा को बनाए रखने वाली मिस्ड कॉल आई। अब कॉल बैक करने की मेरी बारी थी, सो मैंने उनकी कॉल को सिर माथे लेते बैक किया। कॉल बैक करना मेरा धर्म है तो मिस्ड कॉल देना उनका। सबके अपने अपने धर्म होते हैं। कई बार तो आदमी, आदमी भी नहीं होता, फिर भी उसका कोई न कोई धर्म ज़रूर होता है। वैसे आजकल आदमी उसके आदमीपने से कम, उसके धर्म से अधिक जाना जाता है। 

मैंने कॉल बैक की तो वे मुझसे पूछे, “क्या कर रहे हो?” 

“लिखने की तैयारी में कवि केशव की सवारी की दुचेष्टा कर रहा हूँ। पर एक ये कवि केशव है कि अपनी पीठ पर बैठने देना तो दूर, अपनी पीठ पर हाथ भी नहीं रखने दे रहा।”

“बिकना चाहते हो?” वे सीधे मतलब पर आए। मेरे या अपने, या फिर हम दोनों के। वही जाने। 

“बिकते तो राजनीति में हैं। लेखन में तो रचा ही बिक जाए, वही बहुत,” मैंने दुखी मन से कहा तो वे बोले, “उदास क्यों हो रहे हो? लेखन में राजनीति नहीं होती क्या? अरे पगले! लेखन में उतनी राजनीति होती है जितनी राजनीति राजनीति में भी नहीं होती। ये दूसरी बात है कि वहाँ पर लेखक . . .”

“मतलब?” 

“परसों अपने सर्व विधा लेखन संघ के चुनाव हो रहे हैं न!”

“हाँ, तो!” 

“तो क्या! वे सर्व विधा लेखन संघ के मुखमंत्री होना चाहते हैं।” 

“कौन? वही? जिनके साथ हर बार उनकी बीवी का भी वोट नहीं होता।” 

“हाँ! वही।” 

“पर अबकी बार वे संघ में अपनी मुखमंत्री की कुर्सी को लेकर सौ नहीं, एक सौ दस प्रतिशत आश्वस्त हैं। उनके असंतुष्ट उन्होंने ख़रीद लिए हैं। उनकी दृढ़ इच्छा है कि अबके वे संघ का नेतृत्व कर तमाम साहित्यकारों को नई दिशा दें।”

“पर उनसे तो अब ख़ुद ही नहीं चला जा रहा। सिर से पाँव तक उनको दसों रोगों ने घेर रखा है।”

“तो क्या हो गया! जिनसे ख़ुद नहीं चल जाता, लोकतंत्र में वही समाज का कुशल नेतृत्व करने का मादा रखते हैं। लोकतंत्र काम से नहीं, ज़ुबान से चला करते हैं प्यारे!”

“मतलब?” 

“वे मिशन जीत पर निकल पड़े हैं।”

“पर तुम तो जानते हो मैं दूसरे धड़े का संतुष्ट हूँ। उनके साथ मेरी आस्थाएँ हैं। उन्होंने मेरा काव्य संग्रह फ़्री में भी छपवाया था। ऐसे में अब . . .”

“आस्थाएँ आजकल पार्ट टाइम चल रही हैं दोस्त! अगर उनको वोट दोगे तो किताब की रॉयल्टी भी मिलेगी। जिस तरह ज़िन्दा हाथी लाख का होता है और मरा सवा लाख का, उसी तरह साथ जमा संतुष्ट लाख का होता है और असंतुष्ट करोड़ का। अब तुम ख़ुद देख लो।”

“पर यह उनके साथ विश्वासघात नहीं होगा जो मुझे अपना विश्वासपात्र माने बैठे हैं?” 

“एक बात बताओ! उनके साथ रहकर तुम्हें आख़िर मिल ही क्या रहा है? वे अपने होकर भी तुम्हें उन कवि सम्मेलनों में भेजते हैं जहाँ श्रोता कवि ही होते हैं। और अपने चहेतों को उन कवि सम्मेलनों में कविता पाठ करने भेजते हैं जहाँ श्रोता और मोटा पारिश्रमिक दोनों होते हैं। सच कहूँ तो उनके साथ जुड़े रहकर तुम्हें वह मंच आजतक मिला ही कहाँ जिसके तुम हक़दार रहे हो।” 

“हाँ! सो तो है,” धीरे-धीरे मेरे संतुष्ट मन के भीतर असंतुष्टि जागने लगी। 

“तो ऐसों के साथ काहे की आस्थाएँ! असंतुष्टों की कोई आस्थाएँ नहीं होतीं। असंतुष्ट सुअवसर मिलते ही विश्वासघात करने के लिए जन्मे होते हैं। वे चाहे पार्टी में हों चाहे घर में। उनके लिए पार्टी कोई मायने नहीं रखती। उनके अपने हित मायने रखते हैं। अपने हितों की रक्षा करना उनका परम धर्म होता है। वक़्त मिलते ही मौक़े का फ़ायदा उठाना हर असंतुष्ट का मौलिक धर्म होता है। मौक़ा मिल रहा है। बहते गटर में हाथ धोना चाहते हो तो बात चलाऊँ? बीस उनके ख़ेमे के पहले ही उनके साथ जा चुके हैं। दिल्ली के होटल में हैं सब! मज़े लूट रहे हैं। ढाबे से होटल जाना चाहते हो तो . . . उनको अब बस, एक और की ज़रूरत है। इससे पहले कि . . .”

“पर सुना है असंतुष्ट और धोबी के कुत्ते की गत एक सी होती है।” 

“नहीं! अब ग़लत सिद्ध हो रहा है ये। आज मालिक को रोटी मिले या न, पर कुत्तों को यहाँ-वहाँ से टुकड़ा बराबर मिलता रहता है। आज कुत्तों के ठाठ हैं। कुत्ते हर जगह लाट हैं,” उन्होंने पूरे जोश से कहा तो मेरा आधा डर जाता रहा साहित्य के किसी ख़त्म होते युग सा, “तो क्या दे रहे हैं?” 

“देखो! असंतुष्ट नेताओं जितना तो नहीं मिलेगा, पर इतना ज़रूर मिलेगा कि जब तक जी सको बिन लिखे भी शान से जी सको।” 

“तो करना क्या होगा?” 

“चुनाव के वक़्त अपना वोट उन्हें देना होगा। 

“मतलब क्रॉस वोटिंग? पर मुझे तो वे अपनों में गिन रहे हैं,” मेरे भीतर फिर वफ़ादारी आधी सी जागी। 

“तो गिनते रहें। तुम्हें ही क्या, वे तो सभी को अपनों में ही गिन रहे हैं।”

“तो मुझे क्या मिलेगा?” 

“वे शीघ्र ही अपनों का एक प्रकाशन संस्थान खोलने जा रहे हैं। वहाँ से तुम्हारी सारी रचनाओं को फ़्री में छपवा भी दूँगा। हो सका तो उनसे तुम्हें सरकारी पुरस्कार दिलवाने की भी कोशिश करूँगा। उनकी सरकारी लाइब्रेरियों में बहुत पहुँच है। कुछ दिलवा भी दिया करूँगा। इससे अधिक एक लेखक को और क्या चाहिए?” 

“इसकी क्या गारंटी है?” 

“स्टांप पेपर पर लिखवा कर दिलवा देता हूँ उनसे। और कुछ?” 

“लिखा सच न हुआ तो?” 

“तो वे भी हारकर चुप कहाँ रहेंगे? फिर अगली बार उनकी ओर हो जाना असंतुष्ट पेट पीठ लिए। पद की आकांक्षा है तो चुनाव हैं। चुनाव हैं तो असंतुष्ट हैं। असंतुष्टों के तुष्टिकरण का मार्ग हमेशा इसी पद की भूखों से होकर गुज़रता है बंधु! शुभरात्रि!”

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