बंदे! तू न हुआ भैंसा
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. अशोक गौतम1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
जबसे उन सोशल मीडिया प्रेमी को सोशल मीडिया पर वायरल हुए समाचार से पता चला है कि मेले में पुरुषों तो पुरुषों, महापुरुषों तक में एक परमादरणीय भैंसा जिसकी क़ीमत पच्चीस करोड़ है आकर्षण का केंद्र बना हुआ है, बड़े-बड़े पूँजीपति उसकी रज कण लेने को बेताब हैं, उसके आगे दोनों हाथ जोड़े लंबी-लंबी क़तारों में उसका आशीर्वाद लेने को खड़े हैं, तबसे वे पगलाए हुए हैं। हॉलीवुड के खलनायक तक उसके साथ सेल्फ़ी लेने को एक दूसरे को पीछे धकियाते आतुर हैं।
ख़ैर! पगला तो वे उसी दिन से गए थे जिस दिन उनका पाणिग्रहण हुआ था। पाणिग्रहण हर तरह के ग्रहण से बहुत मारक होता है। जनम-जनम तक चलता है। पर आजकल कुछ अधिक ही पगला रहे हैं। जब देखो! कुछ और गाने गुनगुनाने के बदले बस हरदम यही पंक्तियाँ गधे के सुर में गाते, गुनगुनाते रहते हैं सोते जागते हर वक़्त, ‘बंदे! तू न हुआ भैंसा! बंदे! तू न हुआ भैंसा!’
कल उनसे सामना हुआ तो उस वक़्त भी वे भगवान का नाम जपने की उम्र में भी वही पंक्तियाँ ‘बंदे! तू न हुआ भैंसा! बंदे! तू न हुआ भैंसा!’ गुनगुनाते हुए, मानों आदमी से भैंसा हो जाने पर उन्हें ईश्वर के परम पद की प्राप्ति सहज हो जाएगी इस चोले में रहते हुए ही, बंदे! तू न हुआ भैंसा! पर उस वक़्त वे न मेरी सुनने को तैयार थे न अपनी सिवा बंदे! तू न हुआ भैंसा बंदे! तू न हुआ भैंसा! गाने गुनगुनाने के। मन तो किया कि कह दूँ—बंधु! गधे की आवाज़ में गाते गुनगुनाते इतनी सुंदर पंक्तियों की हत्या तो न करो, पर चुप रहा। हत्या के जुर्म में फँसेंगे तो वे। मेरा क्या!
जब मैंने उनकी भैंसे की आत्मा को पूरी ताक़त से झिंझोड़ा तो तनिक वे भैंसे से बंदे की श्रेणी में आए और आते ही सिसकने लगे। ऐसे में मेरा बहुत समय उन्हें आदमी बनाने में जाया हो गया। जैसे-तैसे जब वे आदमी हुए तो मैंने पूछा, “भाई साहब! ये क्या? ‘बंदे! तू न हुआ भैंसा! बंदे! तू न हुआ भैंसा!’ की रट क्यों लगाए हो इस देश के असली आधार कार्ड वाले नागरिक होने के बाद भी? क्या तुम्हें पता नहीं कि तुम सृष्टि के सबसे बेहतर जीव हो?” तो वे सिसकते हुए बोले, “बंधु! जबसे सोशल मीडिया पर पढ़ा है कि इस देश में पच्चीस करोड़ वाला भैंसा रहता है तो रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? मुझे मानुस देह पाकर भी यहाँ क्या मिला? घरवालों से नौ पहर पच्चीस घंटे गालियाँ ही गालियाँ! टके के लोग आधे टके का भी नहीं समझते। सिर पर बैंक के लोन देखो तो सिर के बालों से दुगने।
“ऐसे में मेरा बस चले तो अब मैं मानुस से भैंसा बनने में एक पल भी न लगाऊँ। मेरा बस चले तो इसी पल आदमी से भैंसा हो जाऊँ। मित्र! एक बात तो बताना? यहाँ पर लिंग बदलने की तरह शरीर बदलने की फ़ैसिलिटी कहीं है क्या? हाय रे मेरे ख़ुदा! तेरा बंदा इस दुनिया में आज कितना विवश है? वह लाख चाहकर भी शरीर से भैंसा नहीं बन सकता,” कह वे दहाड़े मार मार कर रोने लगे तो मैंने उन्हें चुप कराते कहा, “परेशान मत हो बंधु! जिस दौर में हम आज जी रहे हैं, वह दौर आदमियों का नहीं, गधों का दौर है। इसलिए इस दौर में आदमी की क़ीमत से अधिक गधों की क़ीमत चल रही है। गधा होने के लिए चार टाँगें, ढेंचू-ढेंचू, पूँछ ज़रूरी नहीं। यह तो गधा होने की औपचारिकता भर है।
“बंधु! जिस दौर में हम आज जी रहे हैं, वह दौर आदमियों का नहीं, भैंसों का ही दौर है। इसलिए इस दौर में आदमी की क़ीमत से अधिक भैंसों की क़ीमत चल रही है। आज दिमाग़दार नहीं, भारदार बंदा पूजा जाता है। भैंसा होने के लिए चार टाँगें, दो सींग, एक पूँछ ज़रूरी नहीं। यह तो भैंसा होने की औपचारिकता भर है।
“बंधु! जिस दौर में हम आज जी रहे हैं, वह दौर आदमियों का नहीं, गीदड़ों का दौर है। इसलिए इस दौर में आदमी की क़ीमत से अधिक गीदड़ों की क़ीमत चल रही है। गीदड़ होने के लिए चार टाँगें, हू-हू, पूँछ ज़रूरी नहीं। यह तो गीदड़ होने की औपचारिकता भर है।
“बंधु! जिस दौर में हम आज जी रहे हैं, वह दौर आदमियों का नहीं, सियारों का दौर है। इसलिए इस दौर में आदमी की क़ीमत से अधिक सियारों की क़ीमत चल रही है। सियार होने के लिए चार टाँगें, हू हुआई, पूँछ ज़रूरी नहीं। यह तो सियार होने की औपचारिकता भर है।
“बंधु! जिस दौर में हम आज जी रहे हैं, ये दौर आदमियों का नहीं, कुत्तों का दौर है। इसलिए इस दौर में आदमी की क़ीमत से अधिक कुत्तों की क़ीमत चल रही है। कुत्ता होने के लिए चार टाँगें, भौं भौं, एक पूँछ ज़रूरी नहीं। यह तो कुत्ता होने की औपचारिकता भर है।
“बंधु! जिस दौर में हम आज जी रहे हैं, ये दौर आदमियों का नहीं, गिरगिटों का दौर है। इसलिए इस दौर में आदमी की क़ीमत से अधिक गिरगिटों की क़ीमत चल रही है। गिरगिट होने के लिए चार टाँगें, क़दम क़दम पर रंग बदलना, लंबी पूँछ ज़रूरी नहीं। यह तो गिरिगिट होने की औपचारिकता भर है।
“बंधु! जिस दौर में हम आज जी रहे हैं, ये दौर आदमियों का दौर नहीं, आस्तीन में नाचते गाते साँपों का दौर है। इसलिए इस दौर में आदमी की क़ीमत से अधिक साँपों की क़ीमत चल रही है। साँप होने के लिए लपलपाती जीभ, बड़ा सा फन, विष की पोटली ज़रूरी नहीं। यह तो साँप होने की औपचारिकता भर है।
“बंधु! अब आदमी की गिरी क़ीमत के और कितने उदाहरण दूँ तुम्हें? इसलिए बावरापन छोड़ो और . . .।” पर वे मानने वाले कहाँ थे! जिसे भैंसा बनने का एक बार दौरा पड़ जाए वह आदमी बने रहना ही कब चाहता है? भैंसा होने पर दिमाग़ से नहीं तो कम से कम भार से तो समाज का दबाया धमकाया जा सकता है न!
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