जातीय गणना में कुत्तों की एंट्री
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. अशोक गौतम15 May 2025 (अंक: 277, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
अपन तो सरकार के नौकर हैं जी! सरकार जो भी कहती है, कान बंद किए सब सुनना पड़ता है। क्योंकि सरकार की खाते हैं, सरकार का पीते हैं। अपनों के प्रति वफ़ादार न रहने के बावजूद भी सरकार के प्रति वफ़ादार रहते सरकार के गुणों का दर-दर गुणगान करते जीते हैं। सरकार के गुणों का गुणगान करते मरते हैं।
सरकार ने कहा कि वह समाज में उल्लुओं को न्याय तो दे नहीं सकती, पर सामाजिक न्याय देना चाहती है। इसलिए उल्लुओं की गणना की जाए। हमने भी तत्काल कंधे पर डिफरेंट-डिफरेंट गणना के काग़ज़ों का थैला उठाया। सरकार का हुक्म सिर आँखों पर और उल्लू हो उल्लुओं की गणना करने निकल पड़े।
सरकार ने कहा वह समाज में गधों को न्याय तो दे नहीं सकती। पर सामाजिक न्याय देना चाहती है। इसलिए गधों की गणना की जाए। हमने अविलंब कंधे पर डिफरेंट-डिफरेंट गणना के काग़ज़ों का थैला उठाया। सरकार का हुक्म सिर आँखों पर और गधे हो गधों की गणना करने निकल पड़े।
सरकार ने कहा वह समाज में सूअरों को न्याय तो दे नहीं सकती, पर सामाजिक न्याय देना चाहती है। इसलिए सूअरों की गणना की जाए। हमने एक झटके में कंधे पर डिफरेंट-डिफरेंट गणना के काग़ज़ों का थैला उठाया। सरकार का हुक्म सिर आँखों पर और सूअर हो सूअरों की गणना करने निकल पड़े।
सरकार ने कहा वह समाज में गिरगिटों को न्याय तो दे नहीं सकती, पर सामाजिक न्याय देना चाहती है। इसलिए गिरगिटों की गणना की जाए। हमने हाथ की रोटी हाथ में तो मुँह की रोटी मुँह में छोड़ कंधे पर डिफरेंट-डिफरेंट गणना के काग़ज़ों का थैला उठाया। सरकार का हुक्म सिर आँखों पर और गिरगिट हो, गिरगिटों की गणना करने निकल पड़े। सरकारी नौकर का काम सोचना नहीं होता। सरकार की सोच को जनता में पहुँचाना होता है। सरकार की सोच को जनता में पहुँचाते-पहुँचाते खाना होता है।
सरकार ने कहा वह समाज में गीदड़ों को न्याय तो दे नहीं सकती, पर सामाजिक न्याय देना चाहती है। इसलिए गीदड़ों की गणना की जाए। हमने उसी पल सारे दूसरे तमाम काम बंद कर कंधे पर डिफरेंट-डिफरेंट गणना के काग़ज़ों का थैला उठाया। सरकार का हुक्म सिर आँखों पर और गीडड़ हो गीदड़ों की गणना करने निकल पड़े।
वैसे अब जो सरकार कहे कि देश में आदमियों की गणना करो तो मेरे हिसाब से अब देश में आदमी तो एक भी नहीं बचा है। पर फेक आँकड़े देने में जाता क्या है?
अब सरकार ने ताज़ा ताज़ा आदेश देश किए कि देश में कुत्तों की जातियों की गणना की जाए। और मैं ठहरा प्रोफ़ेशनल गणना करने वाला गणक। पर अबके मैं डरा। क्योंकि इस देश में मात्र एक कुत्ते ही हैं जो जात-पात भुला, एक साथ हर तरह के गलियारों में रहते हैं। आदमी को पता हो या न कि बटेंगे तो कटेंगे पर उनको ये बताने से पहले ही पता था कि बटेंगे तो कटेंगे। इसलिए वे एक साथ रहते हैं। इसलिए वे आपस में भेद नहीं करते। आदमी, आदमी में भेद करता रहे तो करता रहे। कुत्तों का क्या जाता है? उनके लिए तो मुसलमान के दरवाज़े से मिली भी रोटी है तो हिंदू के दरवाज़े से मिली रोटी भी रोटी।
सरकार स्वदेसी थी तो ज़ाहिर था के वह स्वदेसी कुत्तों की जात पर अपने को केंद्रित करती। विदेसी कुत्तों से उसका अप्रत्यक्ष में सरोकार ही सरोकार होते जनता को दिखाने से कोई सरोकार न था, भले ही वे देश की सभ्यता, संस्कृति को सबसे अधिक प्रभावित करते हों।
स्वदेसी नस्ल के कुत्तों में एक नहीं, अनेक विशेषताएँ होती हैं। अन्य बहुमूल्य विशेषताओं में सेउनकी एक सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि स्वदेसी नस्ल के कुत्तों को निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग के महल्लों में कहीं भी मज़े से देखा जा सकता है। स्वदेसी नस्ल के कुत्ते घर के दरवाज़े से लेकर बड़े-बड़े मंत्रालयों के द्वार पर ही नहीं, बल्कि संसद के गलियारों तक रूखे-सूखे टुकड़े खा कर पूँछ हिलाते सहज महज़ देखे जा सकते हैं। जहाँ आदमियों का प्रवेश निषेध हो वहाँ कुत्तों को प्रवेश वैध होता है। रसमलाई चाटने के बाद पूँछ हिलाना विदेशी नस्ल के कुत्तों की मजबूरी होती है, परन्तु देश हित में भूखे प्यासे रह करके भी अपने हर आक़ा के आगे-पीछे घूमना स्वदेसी नस्ल के कुत्तों का प्रकृति प्रदत्त स्वभाव होता है।
पिछली दफ़ा सरकार का आदेश हुआ था कि कुत्तों में जाति को भुला धर्म की एकता के लिए उन्हें उकसाया जाए कि स्वदेसी कुत्ता किसी भी जाति का हो, किसी भी नस्ल का हो, किसी भी रंग का हो सबसे पहले वह स्वदेसी कुत्ता है। इसलिए दूसरे धर्म के कुत्तों से बचना हो तो मिलकर रहें। इसके लिए सरकार ने नारा दिया—बटेंगे तो कटेंगे। और मैं सरकार का नारा लेकर कुत्तों के बीच जा पहुँचा था। तब उन्हें अपने घर तक में बिखरे होने के बाद भी एकता का सरकारी फ़रमान सुनाया था। अब फिर कुत्तों के बीच जाना था। जाना ही पड़ेगा। भाई साहब! पापी सैलरी का सवाल है। एक्सटेंशन का सवाल है। एक्सटेंशन न मिली तो ओल्ड पेंशन का सवाल हैं। टेंशन का सवाल जनता का नहीं होता, सरकार का होता है।
और मैं सिर झुकाए, कंधे पर लटके झोले में कुत्ता जाति गणना के ज़रूरी काग़ज़ात उठाए अपने शहर के कुत्तों की बदनाम गली में। स्वदेसी कुत्तों के सरदार ने जैसे ही मुझे देखा वह मेरा स्वागत करता बोला, “आइए मास्साब! अबके कैसे आना हुआ?”
“बस यों ही समझ लो यार! जब आदमियों के बीच ऊब जाता हूँ तो तुम्हारे बीच आने को मन करता है। जब अपनों के धोखों से मन भर आता है तो तुम लोगों के बीच आ मन हल्का कर लेता हूँ। अब रही बात सरकारी! तो सरकार का आदेश हुआ है कि स्वदेसी कुत्तों की जाति गणना की जाए।”
“मतलब, पहले समाज को जोड़ने की बात की और अब? आख़िर ये सरकार चाहती क्या है?” कुत्तों का सरदार मुझ पर भड़का तो मैंने हाथ जोड़ते कहा, “देखो दोस्त! ये मेरे नहीं, सरकार के आदेश हैं,” जिस देश में कुत्ते समझदार होने लग जाएँ, मान लीजिए या तो सरकारें ख़तरे में हैं या कुत्ते।
“क्या करें यार! सरकार की खाते हैं। सरकारी हमाम के गंदे पानी में नहाते हैं। ऐसे में सरकार के आदेश कम से कम हमें तो मानने ही पड़ेंगे, तुम मानो या न, तुम जनता हो हम चाकर।”
‘ज्ञान न पूछो मानस का, पूछ लीजो अज्ञान। दास मलूका कह गए ये सब एजेंडागत काम।’ मैंने नीरस डॉयलाग को सरस बनाने के लिए कविता की चार पंक्तियाँ गुनगनाई तो वह नॉर्मल हुआ। तब पता चला कि कवि में शक्ति हो या न, पर कविता में बहुत शक्ति होती है, चाहे कविता टुटी-लुटी ही क्यों न हो। घिसी-पिटी ही क्यों न हो!
“अच्छा एक बात बताओ, इस महल्ले में कौन-कौन सी जातियों के स्वदेसी कुत्ते हैं?”
“तो सरकार ने कितनी कुत्तों की प्रजातियों को संविधान की सूची अनुसूची में चिह्नित किया है?” कुत्तों के प्रधान ने सवाल खड़ा किया तो एकबार फिर लगा कि यों ही कोई कम से कम कुत्तों का प्रधान नहीं हो जाता। विधान संविधान की पूरी नालिज रखनी पड़ती है। मेरे गाँव का प्रधान रखे या न, “मेरा मतलब, स्वदेसी नस्ल के चिप्पीराई, परिआह, मुधोल हाउंड, राजपलायम, कन्न, गद्दी कुत्ता, कोम्बाई, रामपुर हाउंड जोनंगी, कुमाऊ मस्टिफ, बखरवाल . . .” उसने स्वदेसी कुत्तों की जातियाँ प्रजातियाँ अपने पंजे पर गिनाईं तो मैं उसकी नालिज को देख दंग रह गया। तब मुझे दंग देख वह आगे बोला, “पर इससे होगा क्या?”
“इससे कुत्तों की पिछड़ी जातियों का सशक्तीकरण करने में सरकार को सहायता मिलेगी। उनके समावेश को बढ़ावा मिलेगा। इससे कुत्तों के लिए सरकार की ओर से योजनाएँ बनाने और उन्हें धरातल पर उतारने में सहायता मिलेगी। ऐसा होने पर कुत्ते और भी बेहतर जीवन जी सकेंगे आरक्षण से लेकर राजनीति में अपना हिस्सा तय कर सकेंगे,” मैं सीधा सरकारी ऑब्जेक्टिव्स पर आया। सच कहूँ तो मुझे कई बार आदमियों से अधिक समझदार कुत्ते लगते हैं, उल्लू लगते हैं, गधे लगते हैं। वर्ना आदमियों के साथ करते रहो सारा दिन माथा पच्ची! और शाम को फिर वही ढाक के तीन पात।
“सरकार का प्रोग्राम सिर माथे मास्साब! पर गली में आज तक उतरा ही क्या? बुरा मत मानना, तुम लोग तो आज भी जाति, धर्म में ही उलझे रह गए मास्साब! आदमी जात-जात, धर्म-धर्म खेलता रहे सो तो ठीक है, उसके पास अब करने को बचा भी क्या है? पर कम से कम हम कुत्तों को तो इसमें मत उलझाओ। तुम लोग भी न! धर्म को लेकर तो हरदम लड़ते रहते हो, पर धर्म का क़तई पालन नहीं करते। अब ये सब कर, क्यों सरकारें हममें भी जातीय विभाजन करवा, सामाजिक विष घोलना चाहती हैं? अब रही बात हमारे सरकारी सशक्तीकरण की, तो पहले आम आदमी के बहाने पूँजीपतियों का सशक्तीकरण हो जाए तब जनता के बारे में सोचना। कह दो उनसे कि वे जो राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के बदले लोक के पेट के लिए रोटियाँ सेंकें तो बात बने,” कह उसने मेरी ओर से मुँह फेर लिया। अब उसकी इस मुँह फेरी का क्या मतलब समझा जाए भाई साहब? मुझे कोई भले ही अपने मुँह लगाए या न, पर सरकारी नौकर होने के नाते मेरा तो हर सड़े मुँह लगना मजबूरी है जनाब!
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