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आह! वाह! स्वाह! 

 

एक्स जीजनाबजी पाँच सात महीना पहले तक रचना छपने से पहले पारिश्रमिक देने वाली साहित्यिक पत्रिका के मेरे घनिष्ठ वरिष्ठ सपांदक थे या हैं, जो समझना चाहो, समझ लीजिए। वे अपनी ससम्मान सेवानिवृत्ति वाली साँझ से लेकर कल तक तीस पुस्तकों का भार पाठकों के सिर पर डाल चुके थे या हैं, जो समझना चाहो, समझ लीजिए। पूरा साहित्यिक जगत् उनकी रिटायरमेंट के बाद उनके इस रचना कौशल को देखकर चकित है या था, कुछ भी समझ लीजिए। सब सोच रहे थे कि जनाब ने सेवानिवृत्ति से मिला पैसा पुस्तकों के प्रकाशन पर लगा दिया, पर इतना लिखाते कैसे होंगे? कब होंगे? पहले तो पत्रिका का संपादकीय तक अपने जूनियरों से लिखवाते थे। 

अहा! क्या दिन थे वे भी! जब जब उनका मन जिस शहर के साहित्यकारों से अपनी जय-जयकार करवाने का होता, वे तत्काल उस शहर के अपने ग्रुप के हेड लेखक को सूचित कर देते कि विरष्ठ संपादक जी अमुक शहर में सपरिवार पधार रहे हैं, नए रचनाकारों की खोज में। उनके ये कहते ही अमुक शहर के पूरे साहित्यिक वातावरण में यह सूचना गर्मियों के दिनों में जंगल की आग की तरह फैल जाती और उनके शहर पहुँचने से पहले ही उनकी पत्रिका में छपने की लालसा लिए न लिखने वाले भी उनके खाने-पीने का सामान ले उनके स्वागत के लिए सिर के बल खड़े हो जाते। संत से संत भी उतने पाँव मोक्ष के लिए नहीं मारता जितने पाँव मूर्धन्य से मूर्धन्य अपनी रचना छपवाने को मारता है। ऐसे में मेरे जैसों की तो बिसात ही क्या? 

जब भूतपूर्व वरिष्ठ संपादक जी ने संपादकी शुरू की थी उन दिनों उनके चाचा जी ऊँचे पद पर थे और मेरे चाचा पानी विभाग में पीउन। उन दिनों उनके चाचा जी के कहे बिना पत्ता तो छोड़िए, पत्ते की नोक भी नहीं हिलती थी। जैसे ही उनके चाचा श्री को पता चला कि उनके यहाँ सरकारी पत्रिका में उपसंपादक का पद भरा जाना है, इधर फ़्रेश जाली डिग्री लेकर हिंदी में ताज़ा-ताज़ा नक़ली एम.ए. किया और चाचा जी की कृपा से भतीजा जी सरकारी हिंदी साहित्यिक पत्रिका के उपसंपादक पद पर विराजमान् हुए तो उधर असली हिंदी की डिग्रियों वाले हरबार की तरह एकबार फिर अपनी डिग्रियाँ मलते रहे। 

जिनके चाचे-ताए ऊँचे पदों पर हों उन्हें नक़ली डिग्रिया लेने के बाद किसी भी युग में बेरोज़गार नहीं रहना पड़ता। बहुधा वे उपाधियाँ लाते ही तब हैं जब वे कहीं लगाए जाने हों। 

उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत जो मैंने बहुत नोट की ये रही कि अपने पद पर रहते उन्होंने रिटायर होने तक कुछ नहीं लिखा। बस, पूर्णकालीन संपादन को ही समर्पित रहे। अपने मित्र होने के नाते तब कई बार मैंने उनसे आग्रह भी किया था, “बंधु! कौन नहीं जानता कि अपनों की हज़ारों रचनाओं का तुमने कुशल संपादन कर दिया। जो इनमें से एक-आध अपनी भी बना लो तो पद पर रहते पत्रिका के पाठकों को भी लगे कि तुम कोरे संपादक ही नहीं, उच्च स्तर के लेखक भी हो,” तब हर बार वे गंभीर हँसते यही कह टाल देते, “यार! तुम्हें क्या पता संपादक का काम कितना हैवी होता है? ये लेखक भी न! पारिश्रमिक के लोभ में पत्रिका को कुछ भी लिख भेजते हैं कि जिसके सिर-पैर का पता ही नहीं चलता। अब सिर-पैर लगाना किसका काम है? मेरा! ऐसे में सच कहूँ तो इनकी रचनाओं में सिर-पैर लगाते लगाते अब तो मैं अपने सिर-पैर भी भूल गया हूँ,” नाच न जाने आँगन टेढ़ा पता नहीं सच ही होता होगा। 

जब तक वे संपादक की कुर्सी पर रहे, वे संपादक की कुर्सी पर कभी नहीं बैठे। संपादक की कुर्सी ही उन पर बैठी। अपने संपादककाल में वे भी इनकी उनकी तरह अपने ग्रुप के साहित्यकारों की ऐसी-वैसी रचनाएँ छाप-छाप उनको पारिश्रमिक देने के लिए मशहूर रहे। जनता के भूलने के असाध्य रोग के बीच बताता चलूँ कि आम जनता में तो रेवड़ियाँ अब पहुँचीं, देश, समाज, जनता के हितचिंतकों में तो यह रिवाज़ उनके जन्म से भी पुराना है। 

भले ही मानेदय रहित पत्रिकाओं में छपना तो आसान हो, पर मानदेय वाली पत्रिकाओं में बिना मठ की सदस्यता के छपना कठिन ही नहीं, नामुमकिन होता है। जो नवोदित स्वतंत्र प्रतिभावान् ये मानकर चल रहे हों कि दमदार रचना कहीं भी छप जाती है, वे साहित्य के अंधकारकाल में लिख रहे हैं। क़िस्म-क़िस्म के मठों के दौर में वही आगे बढ़ते हैं जो कुछ लिखने से पूर्व मठ की आजीवन सदस्यता लेते हैं। कई चालू टाइप के साहित्यकार तो इसीलिए एक की नहीं, कई-कई साहित्यिक मठों की सदस्यता लिए साहित्य के क्षेत्र में बिन लिखे भी आठों याम छाए रहते हैं। 

क़ायदे नियम से हर संपादक का हर युग में अपने गुट के रचनाकारों को छापना धर्म रहा है उसी तरह अपने ग्रुप से इतर साहित्यकारों की रचनाओं को कूड़ेदान में डालना हर ईमानदार संपादक का धर्म रहा है। जो गुटवाद को छोड़ केवल श्रेष्ठ रचनाओं को अपनी पत्रिकाओं में छापते हैं उन्हें उनकी सेवानिवृत्ति के बाद उनके अपने ही गुट के साहित्कार भी नहीं पूछते। सोे उन्होंने इस धर्म को बख़ूबी निभाया। अगर उनके संपादककाल में सुर, तुलसी होते तो वे भी सुर, तुलसी न होते जो उनके गुट के न होते। तब क्या मजाल, रामचरितमानस, सुरसागर कहीं होते। 

विकास की मुख्यधारा से जुड़ कुत्तासमाज में अब कुत्ता कुत्ते का बैरी रहा हो या न, पर साहित्यसमाज में साहित्यकार साहित्यकार का पहले से अधिक बैरी हो गया है, या कि शायद फिर मुझे ही लगता हो! मुझे ही लगता हो तो माफ़ कर दीजिएगा, विनम्र निवेदन रहेगा, सारे हाथ जोड़कर! पर ऐसे ही मुझे यह भी लगता है आज का आदर्श से आदर्श साहित्यकार साहित्य के पीछे उतना नहीं भागता जितना अपने मित्र साहित्यकार की टाँग खींचने के लिए भागता है। 

और ऐसे में वक़्त का ज़हर देखिए, पता नहीं किस साहित्यजले का दिमाग़ फिरा और उसने उनके घर पर एंटी करप्शन विभाग ऑफ़ साहित्य वालों को गुप्त सूचना दे डाली कि एक पूर्व वरिष्ठ संपादक के घर में इलीगल साहित्य के बोरे के बोरे भरे पड़े हैं। वैसे मित्रो! आपकी जानकारी के लिए बताता चलूँ कि साहित्य बहुधा लीगल कम ही होता है। हाँ! कुछ साहित्यकार उसे अपने नाम से छपवा समय-समय पर लीगल करते रहते हैं। 

बस, फिर क्या था! घर में तत्काल भूतपूर्व साहित्य संपादकों की एक टीम की अगुआई में उनके घर साहित्यिक रेड पड़ी और उनके घर से पता नहीं कितनी साहित्यिक रचनाएँ बोरों में ठूँसीं मिलीं। जैसे ही बोरे खोले गए तो उनमें बरसों से उनकी पत्रिका को पारिश्रमिक के लिए भेजी अप्रकाशित न लौटाई रचनाएँ देख साहित्य के बारे तिल भर भी नालिज न रखने वाले चकित रह गए। पर वे गंभीर बने रहे जैसे कि हर बेईमान, बेईमानी से कमाए धन के अचानक पकड़े जाने पर धीर गंभीर बन जाता है। 

मीडिया उनके पीछे तो वे मीडिया के आगे। तब उन्होंने मीडिया को संबोधित करते साफ़ किया, “बोरे में मिली रचनाओं से मेरा कोई वास्ता नहीं। यह मुझ पाक को बदनाम करने की गहरी साज़िश है जिसकी मैं सीबीआई से खुली जाँच करवाने की माँग करता हूँ। मुझे यक़ीन नहीं, पूरा-पूरा विश्वास है कि किसी मेरे ख़ास के बहकावे में आकर मेरे संपादनकाल में मेरे कुशल संपादन से रुष्ट हो सद्साहित्य के पथ से भटके कुछ उपद्रवी रचनाकारों ने मुझे बदनाम करने के इरादे से इनकी-उनकी रचनाओं को बोरे में भर मेरे यहाँ रख एंटी करप्शन विभाग ऑफ़ साहित्य को सूचित किया है। आपसी वैर-विरोध के इस युग में अपनी संतुष्टि के लिए जीव जितनी उम्मीद हो, उससे भी बहुत नीचे गिर सकता है। पर साहित्य में जीव इतना गिर जाएगा, यह सोच कर मैं कोरा आहत नहीं, बहुत बहुत आहत हुआ हूँ। इतने कि जितना कोई आज तक नहीं हुआ होगा और न दूर भविष्य में ही होगा। इस सदमे को मैं मरने के बाद भी शायद ही भुला पाऊँ। “जय साहित्य! जय साहित्यकार!”

उनकी मंडली के उनके दाएँ हाथ से उनके बारे में यों ही पूछा तो वे सीना तान-तान बोले, “सच पूछो तो कृष्ण को तो माखन चुराने के लिए कृष्ण काव्यधारा के कवि ने यों ही बदनाम किया। वे माखन चुराते तो कहीं न कहीं तो उनके माखन चुराकर खाने से बढ़े केलेस्ट्रोल का भी वर्णन आता। यह भी हो सकता है उस दौर में गायों का मक्खन फ़ैट फ़्री होता हो। या फिर हो सकता है उस समय बच्चे मोबाइल के बदले कसरत वाले खेलों को सही मानते हों। या माँ-बाप अपने बच्चों को मोबाइल से दूर रखते हों। आज के माँ-बापों की तरह नहीं जो उसके हाथ में मोबाइल दे उसे खिलाते हैं, नहलाते हैं, सुलाते हैं। आज का बच्चा पैदा होते माँ-माँ नहीं, मोबाइल-मोबाइल चिल्लाता है। आज तो गाए के शुद्ध दूध के बदले डिब्बे का दूध पीकर ही हर दिल-दिमाग़ चर्बोचर्बी हुआ चर्बी कम करने की क़िस्म-क़िस्म की गोलियाँ खा रहा है। जो कृष्ण के ज़माने में कोई पारिश्रमिक वाली साहित्यिक पत्रिका होती और जनाब उस पत्रिका के संपादक होते तो उनसे अधिक तो जनाब बदनाम होते दूसरों की रचनाएँ चुरा कर छिपाने को। गोपियाँ तो कृष्ण को अपनी मटकियों पर नचाने को बदनाम थीं। जो उस समय किसी पारिश्रमिक देने वाली पत्रिका के जनाब संपादक होते तो हर टाइप के रचनाकारों को अपने संपादकीय कौशल पर नचाने का रिकार्ड इनके ही नाम होता।” 

भाई साहब! सम्बंधों के स्वर्णयुग में अपनों के अवैध धंधे में फँस जाने पर सबसे कठिन काम होता है, अपनों के मुँह बंद करना। 

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