अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

उठो हिंदी वियोगी! मैम आ गई

 

मैं पिछले साल के हिंदी पखवाड़े के बाद से ही हिंदी पखवाड़े के रंगीन सपने ले रहा था। हम हिंदी सेवियों के लिए साल में एक यही तो मात्र ऐसा पखवाड़ा होता है जब हिंदी कविता पेड़ होती है और हम रेड। तब हिंदी के कवि को भी लगता है कि हिंदी में कविता लिखना पढ़ना इनकम का सोर्स है। वर्ना शेष पखवाड़े तो भेजते रहो एक ही कविता दस दस जगह, कोई मुफ़्त में भी न छापे। अगर ग़लती से पैसे वाली मैग्ज़ीन में छप ही जाए और साल बाद भी उसका पारिश्रमिक आ जाए तो जय हो हिंदी की! 

एक मेरे पेटी भाई थे। वे कविताओं के पारिश्रमिक के इंतज़ार में कविता को प्यारे हो गए। अब यदा कदा उनकी कविताओं के मनीआर्डर आ जाते हैं तो पोस्टमैन मुझसे उनके दस्तख्त करवा लेता है, यह कहकर कि थे तो वे मेरी ही क्लास के। उनके न होने के बाद जो मैं उनकी कविताओं का पारिश्रमिक लूँगा तो नीचे मुझे तो ऊपर उनको लगेगा। 

अभी हिंदी मैम के पखवाड़े के रंगीन सपने ले ही रहा था कि सामने सच्ची जैसी हिंदी मैम! हिंदी मैम को देखा तो मेरी नींद ग़ायब हो गई। तब उन्होंने मुझे उठाते कहा, “रे कवि उठो! कवि रात को भी नहीं सोते।” 

“कौन?” 

“मैं हिंदी मैम!”

“सच्ची की? किस स्कूल की? हिंदी मीडियम स्कूल की या अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल की?” मैंने आँखें मलते मलते उनसे पूछा। हाथ मलते मलते तो सारा साल कटा था। 

“पगले! मैं हिंदी या अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल की हिंदी मैम नहीं, तुम्हारे प्रिय पखवाड़े वाली परमादरणीय हिंदी मैम हूँ। साल भर से मेरा इंतज़ार कर रहे थे, और अब जब मैं आई तो मुझे पहचान भी नहीं रहे? कैसे बुद्धू हिंदी कवि हो तुम? हिंदी कवि होने के बाद भी तुम हिंदी को जानो या न, पर पखवाड़े वाली हिंदी मैम को तो पहचान लिया करो।” वाह! उनकी नाराज़गी में भी कितना प्यार! फिर उन्होंने स्याही सूखा मेरा पेन नचाते पूछा, “हिंदी पखवाड़ा दरवाज़े पर है और तुम? ये क्या हाल बना रख है? कुछ लेते क्यों नहीं? उठो! क्या हिंदी पखवाड़े की सारी तैयारी कर ली है जो इस तरह . . .”

“तैयारी बोले तो?” मैं अचकचाया। 

“मतलब, नया कुरता पजामा सिलवा लिया है क्या? या फिर पिछले साल के पखवाड़े के बाद से ट्रंक में अगले हिंदी पखवाड़े को सँभाल कर रखा कुरता पजामा धोए हैं या नहीं? देखो, नहा धोकर, कुरता पजामा इस्तरी कर मेरे कार्यक्रमों में आना। मुझे भी अच्छा लगेगा कि पखवाड़ा भर ही सही, हिंदी का कवि सजा धजा तो। कवि के पास नई कविता न भी हो, तो भी चलेगा, पर हिंदी पखवाड़े में उसके पास नए धुले कुरता पजामा ज़रूर होने चाहिएँ। इससे उसकी बासी कविता से भी ताज़गी की सुगंध आती है। और ये दाढ़ी?” 

“सरकारी हिंदी कार्यक्रमों के शोक में बढ़ी है हिंदी मैम!” मेरा रोना निकल आया। 

“सरकारी हिंदी कार्यक्रमों का शोक बोले तो?” उन्होंने मुझे चुप कराते पूछा। 

“हे आदरणीय हिंदी मैम! बहुत हाथ पाँव मारे, पर किसी सरकारी कवि गोष्ठी का आमंत्रण नहीं आया साल भर। बस, उसी शोक के चलते दाढ़ी मूँछ न कटवा सका। कवि की किसी न किसी सरकारी कवि गोष्ठी में मूमेंट होते रहे तो इस बहाने वह ज़रा सजा सँवरा रहता है।” 

“अच्छा तो! सरकारी कवि गोष्ठियों में न जाने के शोक के चलते क्या साल भर कोई नई कविता भी लिखी है या फिर . . .” मत पूछो, कितने प्यार से हिंदी मैम ने मुझसे पूछा। काश! कभी इतने प्यार से बीवी ने पूछा होता तो आज मैं सबकुछ बनता, पर कम से कम कवि न बनता। 

“हिंदी मैम! हिंदी मैम . . .” वीररस का कवि मत पूछो कितना वियोग सिंगारी हुआ। 

“मेंशन नॉट! चलो, अब उठो कविगोष्ठीपुत्र! मुँह धोओ! वैराग्य वाली दाढ़ी मूँछ को नई कविता वाली लुक दो। अब तो तुम्हें पखवाड़ा भर हिंदी के कार्यक्रमों में जाने से फ़ुर्सत नहीं मिलेगी। तुम पिछले दस साल वाली एक ही कविता हर मंच पर सुनाते सुनाते थक जाओगे, पर . . .” हिंदी मैम ने उलाहना देते कहा तो मैंने उनसे निवेदन किया, “हिंदी मैम! ऐसा बात नहीं। पर वह मेरी कालजयी कविता है। रही बात कवि के दिन को भी सोए रहने कि तो अब कवि जागे या सोए, समाज को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अब समाज में कविता बेकार की चीज़ हो गई है। अब समाज कविता को सुनते, पढ़ते जागता नहीं, सो जाता है। अब तो हरबार मुझे ख़ुद भी लगता है कि आख़िर मैं कविता क्यों लिख रहा हूँ? मंच पर कवि होते हैं कि अपनी अपनी कविता पढ़ खिसक लेते हैं। जब कवि ही कवि की कविता सुनने की पेशेंस नहीं रखता तो श्रोता क्या ख़ाक रखेंगे हिंदी मैम?” 

“कविता के बारे में नहीं तो कम से कम हिंदी पखवाड़े की रस्म अदायगी के बारे में तो सजो हे हिंदी कवि! जो तुम-सा लब्धप्रतिष्ठित हिंदी कवि ही हिंदी पखवाड़े के प्रति यों उदासीन रहेगा तो . . .”

अब हिंदी मैम ने इतने प्यार से आग्रह किया है तो पखवाड़े भर के लिए सजना तो पड़ेगा ही न! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

पुस्तक समीक्षा

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. मेवामय यह देश हमारा