हिंदी दिवस, श्रोता शून्य, कवि बस!
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. अशोक गौतम1 Oct 2024 (अंक: 262, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
मेरे शहर के कवियों पर मत पूछो हिंदी के विकास को लेकर कितना भार है? इतना भार कि इतना जो वे अपने घर का उठाते तो सफल बाप बन जाते, सफल पति हो जाते।
वैसे तो उन्हें अपनी जयंती छोड़ हर लेखक की जयंती से लेकर पुण्यतिथि तक उँगलियों पर याद है, फिर भी वे आश्वस्त भर होने चाहिएँ कि आज फ़लाने लेखक की पुण्यतिथि है, उन्हें पता भर लगना चाहिए कि आज फ़लाने लेखक की जयंती है, वे बिन बुलाए ही उस लेखक की जयंती, पुण्यतिथि के कार्यक्रम में उनसे पहले सादर उनकी तस्वीर के आगे नरमस्तक यों हाज़िर हो जाते हैं जैसे उनकी नहीं, इनकी पुण्यतिथि, जयंती हो। महिला दिवस पर उनकी कविता की बानगी देखते ही बनती है। घर के सताए हुए वे महिला दिवस पर हिंदी में ऐसी महिला सशक्तिकरण की कविता पढ़ते हैं कि . . . कई बार तो कवि गोष्ठियों का इनके कंधों पर उठे भार को देखकर लगता है कि जो होगा तो नहीं, पर मान लो ये कल को कविताएँ लिखना बंद कर दें तो हिंदी का अगले पल दिवालिया निकलते देर न लगे। जनाब की महाबदौलत ही हिंदी आज तक बच पाई है। सच कहूँ ये कवि न होते तो आज को हिंदी सरकार के लाखों करोड़ों प्रयासों के बावजूद भी रसातल में जा चुकी होती। राष्ट्रभाषा तो दूर, वह एक भाषा भी न बची होती।
जैसे ही मेरे शहर के स्वनामधन्य कवि को भनक लगी कि आज हिंदी दिवस बीत जाने के बाद भी उस विभाग में हिंदी दिवस मनाया जा रहा है तो वह अपनी पुरानी कविता को लेकर एक बार फिर हुंकार भर उठा। उसकी रगों में दस साल पुरानी कविता एक बार फिर फड़फड़ाने लगी। उसने पुरानी डायरी से अपनी कालजयी कविता निकाली और हिंदी दिवस पर होने वाली कवि गोष्ठी की ओर कूच कर गया, ऐसे जैसे हिंदी के उत्थान का सारा भार केवल और केवल उसकी कविता पर हो।
सच कहूँ जो ये कवि न होते तो आज को हिंदी का जनाज़ा कभी का उठ चुका होता। नामचीन लेखकों की जयंतियों, पुण्यतिथियों को दीमक चाट चुकी होती। आम आदमी तो हिंदी पखवाड़े में भी हिंदी पर बात करने से रहा। वह हिंदी की बात तो तब करे जो उसे रोज़ी-रोटी से बात करने की फ़ुर्सत हो। वह अपने को बचाए या फिर हिंदी को? उसके लिए हिंदी से ज़रूरी अपने लिए दो जून की रोटी का प्रबंध है। ऐसे में बचा इकलौता कवि, जिसकी रोटी का आधा-पौना प्रबंध कविता कर देती है।
कवियों की सबसे बड़ी ख़ासियत यह होती है कि जो कहीं कोई कवि गोष्ठी हो तो वह दूसरे कवि को इसकी भनक भी नहीं लगने देता। अपने ख़ास कवि को भी नहीं। उसे लगता है कि जो उसने दूसरे कवि को कवि गोष्ठी के बारे में बताया तो उसकी कालजयी कविता की पोल खुल जाएगी। वैसे कवि अपनी कविता की पोल खुलने से नहीं डरता। वह दूसरों की पोल खोलता है।
हिंदी दिवस हो और कविता पारिश्रमिक वाली न हो? ये तो कोई बात नहीं होती। इस पखवाड़े तो ग़रीब से ग़रीब सरकारी विभाग भी चंदा डालकर वैसे ही अपने यहाँ लंचीय, दक्षिणा वाली कवि गोष्ठी का आयोजन करवाते हैं जैसे सारा साल बेटियों, माँओं को प्रताड़ित करने वाले नवरात्रों में पूरी आस्था से कन्या पूजन करते भंडारे लगवा अपनी माओं को वृद्धा आश्रम छोड़ माँ का गुणगान सारी रात करवाते हैं ताकि साल भर माँ को दुत्कारने के पाप से मुक्ति पा सकें।
सो ज्यों ही अपने-अपने स्तर पर शहर के कवियों को पता चला कि हिंदी के उत्थान के लिए विभाग ने हिंदी दिवस की कवि गोष्ठी में आमंत्रित किया है तो वे फूले न समाए। अगले दिन सब एक दूसरे से छुप-छुप कर कवि गोष्ठी में हाज़िर।
मैं नौसीखिया कवि हूँ। कविता के एक ख़ास घराने का शागिर्द हो सरकारी कवि गोष्ठियों में कैसे जाया जाता है, का हुनर सीख रहा हूँ। मेरे उस्ताद मुझे कविता लिखने के गुर सिखाने के बदले कवि गोष्ठियों में अपना नाम लिखवाने, घुसवाने के गुर सिखा रहे हैं। उनका मानना है कि उच्चकोटि के कवि को कविता करना आए या न आए, पर उसे सरकारी कवि गोष्ठियों की लिस्ट में अपना नाम शामिल करवाना हर हाल में आना चाहिए। उच्चकोटि का कवि वह नहीं जो उच्चकोटि की कविता लिखे। उच्चकोटि का कवि वह जो हर सरकारी कवि गोष्ठी में अपना नाम सबसे पहले शामिल करवा सके।
आख़िर मैं अपने दम पर जैसे कैसे हिंदी पखवाड़े की सरकारी कवि गोष्ठी में अपना नाम शामिल करवाने में सफल हुआ तो मेरे कविता उस्ताद ने मेरी पीठ थपथपाई। उन्हें लगा कि उन्होंने मुझे अपने घराने में दीक्षित कर ग़लती नहीं की है।
हिंदी का गुणगान करने सरकारी कवि गोष्ठी में पहुँचा तो वहाँ अनुपस्थित कवियों की आँखों में कविता के बदले सरकारी विभाग द्वारा करवाई जाने वाली कवि गोष्ठी की देरी को लेकर दहकते अंगारे देखे तो मेरी रूह काँप उठी। हाय! हिंदी दिवस पर कविता पढ़ने को कितने बेचैन!
“यार! दस का टाइम दिया था, पर बारह बजे भी कुछ नहीं। आख़िर हम कवियों को ये लोग इतने हल्के में लेते क्यों हैं? क्या हम सच्ची को इतने हल्के हैं?” एक कवि ने दूसरे कवि से पूछा तो उसने कुछ नहीं कहा। विभाग के बारे में सही-सही कहना, मतलब अगली कवि गोष्ठी की लिस्ट से अपना नाम ख़ारिज करवाना। और सफल कवि वही जो घर की लिस्ट से अपना नाम ख़ारिज करवा दे तो करवा दे, पर कवियों की लिस्ट से अपना नाम किसी भी हाल में ख़ारिज न होने दे। इसलिए दूसरा कवि मौन दरवाज़े की तरफ़ परेशानी की मुद्रा में निहारता रहा जिस ओर से हिंदी दिवस के आयोजक पदार्पण करने वाले थे। उसे पता है कि कविता विभाग की दीवारों के भी कान होते हैं। वे आएँ तो वह सबसे पहले उनके चरण छू अगली कवि गोष्ठी में अपना नाम पक्का करवाए। कवि गोष्ठियों के आयोजक—कविता पर कम कवियों की चाटुकारिता पर अधिक रीझते हैं।
आख़िर कवि गोष्ठी बड़ी मुश्किल से एक बजे शुरू हुई! हिंदी दिवस! श्रोता शून्य, कवि ही कवि बस! हर कवि ने एक दूसरे को पछाड़ते हिंदी के हाल पर यों रोना रोया ज्यों वह हिंदी के हाल पर नहीं, अपने हाल पर रो रहा हो, पारिश्रमिक का फ़ॉर्म इस उम्मीद के साथ भरा कि इस कवि गोष्ठी का पारिश्रमिक तो आ ही जाएगा। पर पिछले वाली कवि गोष्ठी के पारिश्रमिक के बारे में किसीने किसीसे कुछ नहीं पूछा। पूछता तो अगली बार पारिश्रमिक का फ़ॉर्म भरने का मौक़ा हाथों से छिन नहीं जाता क्या?
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