कॉमेडी एक रिटायरी से
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. अशोक गौतम15 Apr 2025 (अंक: 275, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
पता नहीं कोई भी समझता क्यों नहीं भाई साहब! रिटायर्ड हूँ, पर क्लास वन हूँ। जुमा-जुमा आठ दिन ही तो हए हैं रिटायर हुए अभी। जो मेरे महल्ले के कुत्ते मेरे पद पर रहते वक़्त आँखें मूँद कर भी, मेरे क़दमों की आहट पहचान जाया करते थे, अब वे मुझे दूर से आता देख, मेरी ओर पूँछ कर जागते होकर भी सो जाते हैं। घर के सदस्यों के बीच तो मेरी कोई इज़्ज़त अब बची ही नहीं, पर इन कुत्तों के बीच भी नहीं बची। ये रिटायरमेंट इतनी बुरी होती है क्या रिटायर्ड बंधुओ?
हे मेरे महल्ले वालो! घरवालो! रिश्तेदारो! अभी मैं कुर्सी से ही उठा हुआ हूँ, संसार से तो नहीं उठ गया हूँ। पर मुझे क्या पता था कि कुर्सी से उठना संसार से उठने से अधिक पीड़ादायक होता है।
मित्रो! मैं कब चाहता था—उस नंगे नहाने वालों के हमाम में से निकलना? इसलिए रिटायर होते-होते, तो रिटायर होते-होते, रिटायर हो जाने के बाद भी, एक्सटेंशन को जितनी टेंशन ले सकता था, ली। रिटायर बताते थे कि पद पर जितने दिन, वही अपने। बाक़ी तो जूते खाने के। कुछ महीनों तक इस स्थिति को टालने के लिए पता नहीं तब, किस-किसके आगे-पीछे एक्सटेंशन के लिए हाथ-पाँव नहीं जोड़े? पता नहीं कहाँ-कहाँ से ज़ोर नहीं डलवाया? नहीं बात बनी तो नहीं बनी भाई साहब! अब एक्सटेंशन के लिए हाथ-पैर ही जोड़ सकता था, उनका सिर तो नहीं फोड़ सकता था न!
कुर्सी को अलविदा करते, डरते-डरते भी पॉज़िटिव सोचा था—कुछ भी हो! रिटायर होने के बाद, जैसे भी होगा, मज़े करूँगा। पर मेरे मज़ों की हवा सबने मिलकर दूसरे ही दिन निकाल दी।
फिर मैंने सोचा, घर नहीं तो बाहर सही! दुनिया बहुत बड़ी है रे रिटायरी! और मैंने अपने महल्ले के तीन-चार दुकानदार सेट कर लिए। किसी न किसी बहाने उनकी दुकान पर यों ही सामान लेने चला जाता। इस-उस चीज़ के टाइम पास करने को रेट पूछता रहता। उसको बनाने का तरीक़ा पूछता रहता, उसकी क्वालिटी चेक करने का तरीक़ा पूछता रहा। और जब वे मुझसे तंग से होने लग जाते तो फिर, जिस चीज़ की ज़रूरत भी न होती, उनको चार पैसे कमाने का मौक़ा दे ले आता।
उनकी दुकान पर जब अगले दिन ज्यों ही पहले कल की तरह, मुस्कुराता गया तो वे मेरे बुरे इरादे भाँप गए। एक के पास बैठने लगा तो उसने मुस्कुराते हुए दुत्कारा। दूसरे के पास बैठने की कोशिश की तो उसने भी पुचकारते हुए दुत्कार दिया। तब पता चला कि ज़िन्दा हाथी लाख का और मरा सवा लाख का हो तो होता रहे, पर ज़िन्दा सफ़ेद हाथी लाख का और पद से रिटायर सफ़ेद हाथी ख़ाक का होता है। गधा तो मैं था नहीं, सो प्यार से दुत्कार फटकार खा सब समझ गया।
यारो! आज यहाँ किसी के पास किसी के लिए वक़्त ही कहाँ है। फिर भी जो कोई मेरे जैसा किसी से घंटा आधा घंटा बातें करना चाहे, उसे वह भी गवारा नहीं। कोई किसी के पास घंटा दो घंटा बैठ कर उसके बारे में उसके हालचाल पूछ लेता है, अपने कह लेता है तो क्या गुनाह कर लेता है वह? किसी के हालचाल पूछना कब से गुनाहों में शामिल हो गया है भाई साहब!
घर में तो अपने प्रवेश पर उसी दिन से प्रतिबंध लग गया था जिस दिन रिटायर हुआ था, पर अब अपने महल्ले की दुकानों में भी अपने प्रवेश पर प्रतिबंध लगा तो मैं परेशान हो उठा।
तभी अचानक पता चला कि दूसरे महल्ले में नए आए बार्बर की दुकान खुली है। अंधे को दोपहर में रोशनी की किरण फिर दिखी। और मैं उसकी दुकान पर। मुझे पता था कि उसे नए सिरों की तलाश है और मुझे उसकी। बस, फिर क्या था! अगले दिन सिर पर पाँव धर, उसकी दुकान पर जा पहुँचा, बाल कटवाने लायक़ न होने के बाद भी। वैसे भी बाल कटवाना कौन मुआ चाहता था। जितना हो सकता, उतना बतियाना चाहता था। अभी नई-नई दुकान थी उसकी। ग्राहक भी कम ही आएँगे। पता नहीं, बार्बर होगा कि बर्बर! लोग डरेंगे कि बालों के बदले कहीं गरदन ही न काट दे। कहते हैं कि बार्बरों के पास अपने आसपास की पत्रकारों से अधिक ख़बरें होती हैं। इस बहाने अपने आसपास की ख़बरें भी मिल जाया करेंगी। अपने आसपास की हरकतों से अपनी नालिज भी बढ़ेगी और मज़े से टाइम भी कट जाया करेगा। उसे भी लगेगा कि उसकी दुकान पर कोई तो आया। मैंने कई एंगिलों से उसकी दुकान पर जाने के अपने फ़ायदे सोचे।
अपने सोचे के हिसाब से, उसकी सेमी मॉडर्न दुकान खुली थी, पर ख़ाली थी। अच्छा लगा, उसकी सेमी मॉडर्न दुकान देखकर। आदमी को भी सेमी रहना चाहिए। पूरा मॉडर्न और पूरा ट्रेडीशनल होना दोनों ही विकास में बाधक होते हैं।
बार्बर मुझे अपनी दुकान की ओर आता देख मुस्कुराता अलर्ट हुआ और अपने बाल काटने के औज़ार साफ़ करने लगा मेरे मुंडे सिर को मुंडवाने आते देख कर। और मैं इसलिए ख़ुश था कि . . . मतलब हम दोनों एक दूसरे को देखकर ख़ुश थे। ऐसा ज़िन्दगी में बहुत कम होता है जब दोनों एक दूसरे को देखकर ख़ुश होते हों। अब ख़ूब जमेगा रंग जब मिल बैठेगे तीन यार! मैं, बार्बर और उसकी ख़ाली दुकान। अब आएगा गप्पें मारने का असली मज़ा। दोनों ने अपने अपने फ़ायदे की सोची। उसने उसकी दुकान की देहरी पर मेरे कमल रूपी चरण पड़ते ही मेरी आव-भगत करते कहा, “वेलकम जनाब वेलकम! आप आए बहार आई।”
“हम तो जहाँ भी जाते हैं, बहार बनकर ही जाते हैं। और कैसे हो?” मैंने उसकी दुकान में अपने कमल रूपी चरण रखते कहा तो वह बोला, “आपकी दुआ है जनाब! क्या लोगे बीड़ी या सिगेरट? यहाँ बैठिए जनाब यहाँ!” कह उसने मुझे सादर मेरा हाथ पकड़ बाल काटने वाली कुर्सी पर बिठाया तो एकबारगी तो लगा ज्यों मैं बार्बर की कुर्सी पर नहीं, दिल्ली के तख़्त पर बैठ रहा होऊँ। सच कहूँ, उस वक़्त मुझे औरंगज़ेब-सी फ़ीलिंग हुई उस कुर्सी पर बैठते हुए। उस कुर्सी पर बैठते हुए कमबख़्त बीते दिन याद आ गए जब अपना काम करवाने वाले मुझे मेरी कुर्सी पर पकड़-पकड़ कर हाथ जोड़ कर बैठाया करते थे।
उसने मेरा मुंडा सिर मुंडने की तैयारी शुरू की तो मैंने उससे पूछा, “कहाँ से हो भाई?”
“जनाब बिजनौर से,” वह फिर मेरे बाल काटने को मेरे गले में एप्रन लगाने लगा तो मैंने पुःन पूछा, “यहाँ कबसे रह रहे हो?”
“मेरे दादा भी इसी शहर के बाल काटा करते थे जनाब!” वह बाल काटने को लगाए एप्रन को मेरे गले में कसकर बाँधने लगा।
“गुड! मतलब पुश्तैनी बार्बर हो? आदमी को पुश्तैनी काम ही करना चाहिए। इससे ख़ून में कुशलता बनी रहती है।”
“जी जनाब!” और वह मेरे गले में जैसे ही एप्रन बाँध कर हटा तो मैंने उसे ढीला करते पूछा, “यहाँ अपना मकान है या किराए पर रहते हो?” उसने फिर मेरे गले में एप्रन कसते कहा, “जनाब! किराए पर रहता हूँ, ” और फिर कैंची साफ़ करने लग गया। मैंने फिर उससे आँख बचा एप्रन कुछ ढीला करने के बाद उससे पूछा, “यहाँ से किराए का कमरा कितनी दूर है?” वह कैंची लेकर मेरे सिर पर सवार होने को हुआ तो एप्रन ढीला देखकर ज़रा ग़ुस्साते बोला, “यहाँ से दो किलोमीटर दूर। है। आप क्या करते हो जनाब?”
“क्लास वन अफ़सर था,” मैंने कहा तो लगा ज्यों उसका बाल काटने का सारा मज़ा किरकिरा हो गया हो। कैंची उसके हाथों में जम गई हो।
“थे तो एक ईश्वर भी। थे को यहाँ पूछता कौन है जनाब!”
“क्लास वन के बाल काटने से डर लगता है क्या?”
“नहीं साहब! रिटायर के बाल काटने से डर लगता है,” उसने कैंची किनारे छोड़ एकबार फिर मेरे द्वारा लूज़ किया एप्रन टाइट किया तो मैंने पूछा, “तो वहाँ से कैसे आते हो? पैदल या . . .”
“हवाई जहाज़ से जनाब! आप कैसे आए हैं?”
“पैदल चलकर। अजीब नहीं लगता जब तक आदमी चलने लायक़ होता है तब तक वह साइकिल पर चलता है, स्कूटी पर चलता है, मोटर साइकिल पर चलता है, कार में चलता है। और जब उसकी टाँगे जवाब देने लगती हैं तो वह पैदल चलने की कोशिश करता है,” मुझेे लगा अब उसकी कैंची के साथ-साथ उसे भी ग़ुस्सा आने लगा है। तब उसका मन रखने के लिए मैंने अपनी गरदन उसके हिसाब से ढीली छोड़ दी। वह मेरे बाल काटने को मेरी गरदन अपने हिसाब से सेट करके हटा तो मैंने उससे पूछा, “सेट कितने कमरों का है?”
“दो कमरों का। क्यों? किराया आप देने की सोच रहे हैं?” अब वह बार्बर से बर्बर होता मेरे दिमाग़ को घूरने लगा था। मैंने अपने सामने के शीशे में उसका वह रूप साफ़-साफ़ देखा। पर मैं कर कुछ नहीं सकता था। आख़िर उसने मेरी गरदन एक हाथ से कसकर पकड़ी और दूसरे हाथ से मेरे बाल काटने लगा तो मैंने पूछा, “शादीशुदा हो?”
“हाँ!”
“कितने बच्चे हैं?”
“तीन।”
“बेटे कितने हैं?”
“तीनों ही।”
“ऑप्रेशन क्यों नहीं करवाया?”
“आप कटिंग करवाने नहीं आए थे। आए होते तो आपसे सलाह मिल जाती,” उसने पाँच मिनट तक इधर उधर, ऊपर नीचे, दाएँ-बाएँ हवा में कैंची चलाने के बाद कटे बाल ब्रश से साफ़ किए तो मैंने फिर पूछा, “बीवी है?”
“हाँ, है।”
“गाय है या . . .”
“आधी गाय आधी साँड़ है।”
“गाय जैसी बीवी बहुत कम गधों को नसीब होती है डियर,” मैंने हँसते हुए कहा तो वह भीतर ही भीतर कुढ़ा।
“साहब उठो। मेरी कटिंग हो गई,” कहते उसने मुझे बाल काटने वाली कुर्सी से सहारा देते उठाया तो मैंने उससे पूछा, “कितने हुए?”
“जनाब सौ!”
“यार इतनी अच्छी कटिंग के केवल सौ? महँगाई कितनी हो गई है यार! ज़रा रेट बढ़ा दो। अच्छा तो कल आता हूँ शेव कराने,” मैंने अपने मुँह पर न उगे बालों पर हाथ फेरते उसे सौ पकड़ाए और अगले दिन उससे अपनी शेव कराने का समय ले अगले दिन उसकी ख़ाली दुकान में पहुँचा तो उसने अपनी दुकान के दरवाज़े पर बड़ा सा पोस्टर लगाया था—रिटायरियों का प्रवेश निषेध है।
अब आप ही बताओ, रिटायरियों को इस दुनिया में कहीं जगह भी है कि नहीं, जहाँ वे चैन से किसीसे बात कर सकें। रेट की कोई चिंता नहीं।
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