आवारा कुत्ता और धार्मिक ब्लैकमेलिंग
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. अशोक गौतम1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
इधर कोर्ट के सुप्रीम आदेश हुए तो मेरी गली का सबको डराने वाला आवारा कुत्ता एकदम सहम गया। उसे काटो तो ख़ून नहीं। कल तक जो कुत्ते से कुत्ते आदमी को भी घर बाहर नहीं निकलने देता था अब उसका ही गली में कहीं कोई अता-पता नहीं।
कल जब मैं दुम दबाए ऑफ़िस जा रहा था अचानक वह पता नहीं कहाँ से मेरे सामने दुम हिलाए आया तो मेरी हँसी का ठिकाना न रहा। चलो, कोई एक और तो मिला मुझे दुम हिलाता। वर्ना आज तक मैं ही सबके आगे अपनी दुम हिलाता रहा हूँ। घर में होता हूँ बीवी के आगे पीछे दुम हिलाता रहता हूँ और जो ऑफ़िस जाता हूँ तो साहब के आगे।
वैसे आज का दौर दुम हिलाने वालों का दौर है। अपनी दुम हिलाकर किसीको भी इमोशनल बनाने का दौर है। अब जीव अपने उद्गार कहकर नहीं, दुम हिलाकर ज़ाहिर करता है।
अब तो मुझे दुम हिलाने की इतनी आदत हो गई है कि जो कभी मुझे अपनी दुम हिलाने को अपने आगे पीछे कोई न दिखाई दे तो मैं अपने आगे ही अपनी दुम हिला दुम हिलाने की मॉक ड्रिल कर लेता हूँ ताकि जो अचानक कोई मेरे सामने दुम हिलवाने वाला आ जाए तो मैं उसके आगे पूरी शिद्दत से दुम हिला सकूँ। बिना किसी वार्मअप हुए बिना।
दुम हिलाता आवारा कुत्ता सामने आया तो हताश निराश! अरे ये क्या हताश आदमियों के समाज में अब कुत्ते भी हताश! निराश! उसे हताश निराश देख मैंने उसके प्रति झूठी सहानुभूति दर्शाते पूछा। असली सहानुभूति तो कभी की मर चुकी है, “हे आवारा कुत्ते! माना आज का भौतिकवादी समय हताशाओं निराशाओं का समय है। सड़क से लेकर संसद तक सब हताश निराश हैं। आदमी तो तुम हो नहीं। तो कुत्ते होकर भी तुम इतने हताश निराश क्यों? कुत्ते कबसे हताश निराश होने लगे?”
“बंधु! पहले तो आवारा कहकर मुझे गाली मत दो। अपने शब्द वापस लो नहीं तो पेटा में शिकायत कर दूँगा। जनहित करते इसकी उसकी गालियाँ सुनते-सुनते मैं पहले ही बहुत परेशान हूँ। लगता है, अब किसीकी भलाई करने का रिवाज़ ख़त्म हो गया। लगता है नेकी कर कुएँ में डालने वाला कुआँ अब भर गया। माना, मैं उस कहावत से बिलांग करता हूँ कि कुत्ते तो भौंकते रहते हैं। ऐसे में मेरे किसी प्रश्न का उत्तर दो या न, पर मेरे एक प्रश्न का उत्तर अवश्य दो, आवारा यहाँ कौन नहीं? क़दम-क़दम पर आवारा साँड़ हैं। क़दम-क़दम पर आवारा गाय हैं। ऑफ़िस-ऑफ़िस आवारा साहब हैं। क़दम-क़दम पर आवारा आदमी हैं तो मेरे मस्तक पर ही आवारगी का चंदन क्यों? माफ़ करना! जब तक मुझसे हो सका, मैं डोर टू डोर तुम्हें राहू केतु के प्रकोप से मुक्ति भी फ़्री देता रहा, पर अब मैं तुम्हें राहू केतु के प्रकोप से नहीं बचा पाऊँगा। अब झेलते रहना राहू केतु के दंश।
“बंधु! मैं ही इस समाज का इकलौता ऐसा जीव था जो राहू केतु से पीड़ितों को आधी पौनी सूखी चपातियों के दाम पर राहु केतु को अपने सिर पर उठाए फिरता था। इस समाज का कितना ही भला कर लो मित्र! अब जैसे भले का ज़माना ही नहीं रहा। माफ़ करना! अब मैं तुम्हारे स्वर्गारोहण के समय तुम्हारे साथ स्वर्ग नहीं जा पाऊँगा। ले जाना अपने साथ किसी गधे या साँड़ को। न्यायालय की ओर से इग्नोर होने के बाद भी समाज की अनंत चिंताओं के बीच मुझे तो इस बात की भी चिंता है कि मेरे बिना तुम्हें स्वर्ग का रास्ता दिख भी पाएगा या नहीं? कहीं ग़लत रास्ता पकड़ लिया और स्वर्ग के बदले नरक पहुँच गए तो? आदमी को स्वर्ग ले जाने का आधिकारिक रास्ता केवल मुझे ही मालूम है। शेष तो सब स्वर्ग भेजने के नाम पर विशुद्ध व्यापार करते हैं। गुड बाय! अब मिला करेंगे किसी तय आश्रय स्थल पर पंडों की तरह,” उसने मेरा मुँह ताकते कहा तो मेरे धार्मिक कान खड़े हुए। आदमी के जितने भी कान होते हैं, उनमें सबसे संवेदनशील उसके धार्मिक कान होते हैं। सच कहूँ, मैं बीवी के बाद जो किसीसे डरता हूँ तो बस! राहू केतु से ही डरता हूँ। सच कहूँ, मैं साहब के बाद जो किसीसे डरता हूँ बस! राहू केतु से ही डरता हूँ।
“मतलब??” लगा, मुझ पर ज्यों राहू केतु हावी होने लगे।
“देखना, अब आवारा कुत्तों को लेकर यहाँ भी सरकार सख़्त हो जाएगी,” उसने कहा और धार्मिक कार्ड खेलने के बाद मेरे चेहरे पर होने वाले रिएक्शनों को नोट करने लगा।
बंधुओ! धार्मिक कार्ड सब कार्डों में अमोघ कार्ड होता है। जो रंच भर भी धार्मिक नहीं होता, उस पर भी ज़रूरत पड़ने पर जो धार्मिक कार्ड का प्रयोग किया जाए, उसके भीतर का मरा धर्म भी एकाएक आतंकी हो उठता है। भले ही वह मृत्युशैया पर लेटा हो।
मुझेे अपने पर हावी हुए राहू केतु की शान्ति को लेकर चिंता हुई तो मैंने उसे समझाते कहा, “सरकार का क्या यार! वह तो किसीको लेकर भी सख़्त जाती है। सख़्त होना सरकार का धर्म है। उसका काम आदेश निकलना है। वह आदेशों की टाँगों पर ही चलती है। पालन तो हमें तुम्हें ही करने होते हैं न!”
“तो मतलब मैं अपने को सेफ़ समझूँ?”
“पर बुरा मत मानना। है तो छोटे मुँह बड़ी बात! पर तुमने भी तो महल्ले-महल्ले आतंक मचा रखा था। किसीको घर से बाहर नहीं निकलने देते थे। माना यार! पेट बुरी चीज़ होती है, पर पेट के लिए क्या आतंक अच्छा लगता है?”
“है तो कुत्ते मुँह बद्धिजीवी बात! पर यहाँ आतंकी कौन नहीं बंधु? आतंक यहाँ किसने नहीं मचा रखा है? तुम सब भी तो कहीं न कहीं आतंकी ही हो। आतंकी न होते तो क्या समाज आज इतना लाचार होता? मैं तो आवारा हूँ। कुत्ता हूँ। कुत्ते का आवारा होना लाज़िमी होता है। चाहे वह पालतू ही क्यों न हो। मैंने तो संभ्रांत से संभ्रांत परिवारों में भी पालतू आवारा होते देखे हैं। संभ्रांत से संभ्रांत एक दूसरे को काटते देखे हैं। उनके ख़िलाफ़ सरकार ने कभी एक्शन लिया क्या?” कह आवारा कुत्ता वैचारिक एक्शन में आया तो उस वक़्त मुझे वह आवारा कुत्ता आवारा कम, सोशल वर्कर अधिक लगा। एक बार तो मन किया कि उसके पाँव छू लूँ। असल में काटने वालों से बचने के लिए उनके पाँव छू लेने में कोई हर्ज नहीं होता। पग-पग काटने वालों के समाज में काटे का टीका लगाए बिन जीने का एकमात्र यही तरीक़ा है।
“सॉरी बंधु! अब मैं तुम्हें राहू केतु के प्रकोप से बचाने तुम्हारे द्वार नहीं आऊँगा। कल से किसी और से अपने राहू केतु से बचने का इंतज़ाम कर लेना। पर याद रखना, मुझसे सस्ता राहू केतु का इंतज़ाम करने वाला जो तुम्हें पूरी सोसाइटी में कहीं कोई दूसरा मिल जाए तो अपनी पूँछ कटवा लूँगा। अब इस देश को राहू केतु के प्रकोप से कोई नहीं बचा सकता,” उसने एकबार फिर धार्मिक कार्ड मेरी ओर उछाला, मेरे चेहरे पर इस कार्ड से हुई प्रतिक्रिया को बार बार पीछे मुड़ देखता गंध-गंध मुस्कुराता आगे हो लिया।
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