वाह! मैं मृतक मैं ज़िन्दा हूँ
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. अशोक गौतम15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
हे मेरे कथित, तथाकथित शुभचिंतको! मुझे अभी-अभी अस्पताल के बिस्तर पर रिकवर होते सोशल मीडिया अकाउंट से ही पता चला कि मैं मर गया हूँ। मेरे मरने पर मेरे शुभचिंतकों द्वारा मेरी ज़िन्दा दिवंगत आत्मा की शान्ति हेतु सोशल मीडिया पर मेरे शुभचिंतकों का ताँता लगा हुआ है। ये कैसा मरना है आजकल का बंधुओ? बंदे को पता ही नहीं होता कि वह मर गया है और शुभचिंतकों के शोक संदेश उसकी ज़िन्दा आत्मा की शान्ति के लिए उसीके फोन पर आने लग जाते हैं। जीना तो हमारा फ़नी है ही, पर आजकल तो हमारा मरना भी बड़ा फ़नी हो गया है हे मेरे शुभचिंतको!
हे मेरे शुभचितको! शुभचिंतक आज के ज़माने में ज़िन्दा आदमी की सहायता करने के लिए कम, उसकी ज़िन्दा दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए भगवान से प्रार्थना करने के लिए अधिक जाने जाते हैं। आज की तारीख़ में जो जिसका जितना अधिक शुभचिंतक होता है, वह उसके दिवंगत होने का उतनी ही बेक़रारी से इंतज़ार करता है। और जब लाख इंतज़ार करने के बाद भी उनका अज़ीज़ स्वर्ग नहीं सिधारता तो वे सोशल मीडिया पर उसकी आत्मा की शान्ति के लिए दुआ करते उसे मरने के लिए मजबूर कर देते हैं।
मैं अस्पताल में पता नहीं क्यों ठीक हो रहा था कि मेरे ज्ञात, अज्ञात शुभचिंतकों को मेरा ठीक होना ठीक नहीं लगा। उनकी दिली इच्छा थी कि अब उनकी दुआओं की कृपा से मुझे मर जाना चाहिए। वे मेरा शुभ चाहते-चाहते, अब बहुत टूट गए हैं। पर जब उन्हें पता चला कि मैं उनके द्वारा मेरे मरने की कामनाओं से मरने के बदले ठीक हो रहा हूँ तो उन्होंने मेरे ठीक होने से तंग आकर मेरे मरने की ख़बर सोशल मीडिया पर डाल दी।
आज सोशल मीडिया का दख़ल समाज में ख़ुदा से अधिक हो गया है। सोशल मीडिया पर कोई भी ख़बर पड़ने की देर होती है, वह समंदर में भी जंगल की आग की तरह फैल जाती है। जिस तरह झूठ के पाँव नहीं होते, उसी तरह सोशल मीडिया की ख़बरों के भी पाँव नहीं होते। पर दौड़तीं ग़ज़ब की हैं। ये लँगड़ी चीज़ें ऐसी ही दौड़ा करती हैं क्या भाई साहब!
इधर मेरे मरने की ख़बर मेरे शुभचितंकों ने सोशल मीडिया पर डाली कि उधर मेरी आत्मा शान्ति के लिए थोक में दुआएँ होने लगीं, जिनके हाथ भी नहीं थे, उनके हाथ भी मेरी आत्मा की शान्ति के लिए भगवान से दुआ करने को सोशल मीडिया पर उठने लगे। देखते ही देखते मेरे घरवालों को इस अपूर्णीय क्षति, असहनीय, असीम दुःख को सहन करने की भगवान से शक्ति देने की कामनाएँ होने लगीं। जबकि सच यह है कि मेरे जाने के बाद किसीको कोई क्षति नहीं होने वाली। मैं वह जीव हूँ जो घर के हर सदस्य को हर पल असहनीय रहा हूँ। जो जो सच कहने वाले परिवार पर सदा भार होते आए हैं, उनमें से एक भाग्यशाली मैं भी हूँ। जो समाज, घर में असहनीय होते हैं उनके जाने पर घर, समाज को उनके जाने पर असहनीय तो छोड़ो, सामान्य क्षति भी नहीं हुआ करती भाई साहब! हालाँकि अब लोक-लाज कहीं बची तो नहीं, फिर भी लोक-लाज के लिए सब कहना, करना ही पड़ता है।
आज सोशल मीडिया का दख़ल समाज में ख़ुदा से भी अधिक हो गया है। जैसे ही मेरे मरने की ख़बर सोशल मीडिया पर चली कि यमराज नंगे पाँव ही मुझे लेने रूटीनन मेरे पास आ पहुँचे। वे भी आजकल सोशल मीडिया पर किसीको श्रद्धांजलि की ख़बरें देखने के बाद ही यमलोक से आते हैं। उन्हें पता है कि उनके नेटवर्क से तेज़ आज सोशल मीडिया का नेटवर्क हो गया है। पुलिस चोर को सोशल मीडिया के सहारे ही पकड़ती है। किस गली में कितना कचरा भरा है, यह नगर निगम वालों को सोशल मीडिया से पता चलता है। कहाँ की सड़क टूटी हुई है, यह सड़क निर्माण विभाग को सोशल मीडिया से ही पता चलता है। किस महल्ले में पानी नहीं आ रहा, यह जल शक्ति विभाग को सोशल मीडया से ही पता चलता है। इसलिए आज हर सरकारी विभाग सोशल मीडिया पर व्यस्त है। किस परीक्षा केंद्र में नक़ल कराई जा रही है, यह सतर्कता विभाग को सोशल मीडिया से ही पता चलता है। किसके अफ़ेयर किसके साथ चल रहे हैं, अफ़ेयरों में दिलचस्पी रखने वालों को सोशल मीडिया से ही पता चलता है।
जैसे ही यमराज हाँफते हुए अस्पताल के मेरे बिस्तर के पास पहुँचे तो मुझे हँसता, मुस्कुराता देख दंग रह गए। तब उन्होंने ‘विश यू स्पीडी रिकवरी’ कहने के बाद मुझसे सादर पूछा, “बंधु ये क्या?”
“जनाब! मुझे भी सोशल मीडिया से ही पता चला है कि मैं . . .”
“मतलब तुम ज़िन्दा हो?”
“कोई शक? क्या मुझे सरकारी अस्पताल में ज़िन्दा रहने का हक़ नहीं?”
“नहीं, है तो सही पर . . . देखो तो, सोशल मीडिया पर तुम आधा घंटा पहले मर चुके हो। मुझे ही आने में देर हुई। ये दिल्ली का जाम भी न! बधाई हो! तुम्हें कुल मिलाकर पचास हज़ार से अधिक श्रद्धांजलियाँ पच्चीस मिनट में दी जा चुकी हैं।”
“पर मैं तो ऐसा कोई ख़ास नहीं जिसे . . .? बस, एक सीधा सादा एक पत्नी का घरेलू पति हूँ।”
“सो तो ठीक है, पर सोशल मीडिया के लिए हर मरने वाला ख़ास होता है। जैसे ही किसीके मरने की ख़बर सोशल मीडिया पर डाली जाती है तो श्रद्धांजलि देने को अनजान से अनजान हाथ भी खुजलाने लग जाते हैं।
देखो दोस्त! ये समाज वाले किसीके ज़िन्दा रहने पर तो उसे कुछ दे नहीं सकते सो, किसीके मरने पर उसे श्रद्धांजलि दे अपने सामाजिक क़र्ज़ से मुक्त हो जाते हैं।”
“तो मुझे अब सोशल मीडिया के हिसाब से क्या करना चाहिए? क्या सोशल मीडिया की विश्वसनीयता के हित में तत्काल मर जाना चाहिए ताकि सोशल मीडिया की साख बनी रहे? वैसे अपनी तो ख़ैर कोई साख कहीं है नहीं। जो थोड़ी बहुत कभी हुआ करती थी, वह मित्रों के अथक प्रयासों से बहुत पहले की ख़त्म हो चुकी है।”
मैंने यमराज से सोशल मीडिया की साख बनाए रखने के लिए अपना बलिदान देने बारे पूछा तो वे मेरा चेहरा देखते हुए अपने फोन पर मुझे मिलने वाली श्रद्धांजलियों से आश्चर्यचकित होते उनकी गिनती करते रहे, मन ही मन मुझे कोसते—अस्पताल के बिस्तर पर लेटा भी मेरा उल्लू बना रहा है। मक्कार कहीं का!
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