अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मिक्सिंग, फिक्सिंग और क्या??

पाठकों से छिपते, ख़ुद को ख़ुद से छिपाते- बड़ी मुस्तैदी से ठीक वैसे ही व्यंग्य के बीच कहानी मिक्स कर रहा था जैसे हमारा दूध वाला अपनी आँखें बंद कर कि उसे कोई देख नहीं रहा है, दूध में पानी मिक्सियाता है, लाला चावल में कंकड़ मिक्सियाता है, शुद्ध गाय का देसी घी बेचने वाला जैसे शुद्ध गाय के देसी घी में चर्बी मिक्सियाता है। नेता जैसे विचारों में भगवान से क्षमा माँगता भ्रष्टाचार मिक्सियाता है, वामपंथी जैसे अपने विचारों में समय की माँग के अनुरूप धर्मसापेक्षता मिक्सियाता है कि तभी प्रभु आ धमके और मुझे गुस्साते बोले, "हे पद्मश्री के दावेदार! यार, बड़ी जल्दी हो गए तुम तो बीमार! मैं तो तुम्हें लंबी रेस का घोड़ा मानता था। पर तुम तो सौ मीटर घिसटने के बाद ही अपनी पर उतर आए! साहित्यकार होकर ये क्या कर रहे हो? पाठकों से नहीं, तो कम से कम मुझसे तो डरो। मेरे ही सामने, मेरा ही नाम लेते, व्यंग्य में कहानी की मिक्सिंग धड़ल्ले से कर रहे हो? देशवासियों का खानपान शुद्ध नहीं तो कम से कम उनको साहित्य तो शुद्ध परोसो!"

एक साहित्यकार मिक्सिंग करता रंगे हाथों पहली बार पकड़ा गया सो मेरा सिर शर्म से झुकने लगा। साहित्यकार को किसी की रचना चोरी करने पर उतनी शर्म महसूस नहीं होती जितनी रचना में मिक्सिंग करने पर होती है। 

मेरी जगह कोई लाला मिक्सियाता पकड़ा जाता तो वह भगवान को ही ग़ुस्सा होते डाँटता, "रे भगवान! तुम्हें शर्म नहीं आती? ख़ुद तो कुछ करते-धरते नहीं, सारा दिन मंदिर में पड़े-पड़े भक्तों का चढ़ावा इकट्ठा करते, भक्तों की चीख-पुकार इस कान से सुन उस कान से निकालते रहते हो। अब मेरे काम में भी विघ्न डालने लगे? मिक्सिंग करना मेरा वैधानिक चेतावनी के बाद का संवैधानिक अधिकार है। मुझे रोकने वाले आख़िर तुम होते ही कौन हो? सरकार तक तो हमें कुछ नहीं कहती। तुम सरकार से बड़े कब से हो गए प्रभु? अपनी सीमाओं में रहो वर्ना..... मैं भी देखता हूँ, आख़िर तुम होते कौन हो मुझे मिक्सिंग करने से रोकने वाले?"

आख़िर मैंने अपने को जैसे-तैसे सँभालते, अपनी हीन भावना पर कंट्रोल करते प्रभु से कहा, "तो प्रभु! क्या हो गया जो व्यंग्य में कहानी की मिक्सिंग कर रहा हूँ? माना, उपभोक्ता और पाठक सब जानता है कि दूध में पानी नहीं चल सकता, व्यंग्य में कहानी नहीं चल सकती। दोनों अलग - अलग हैं। चावल में कंकड़ नहीं चल सकते, गर्म मसाले में गधे की लीद नहीं चल सकती, पर ये सब जानने के बावूजद भी उपभोक्ता मज़े से व्यंग्य में मिक्स कहानी को हज़म कर लेता है। गर्म मसाले में मिक्स गधे की लीद को हज़म कर लेता है। दूध में मिले जल को बेपरवाह हज़म कर लेता है कि चलो, नल में जल न सही तो न सही, दूध के माध्यम से शरीर में जल तो जा रहा है। इसी बहाने शरीर में जल तत्व की कुछ न कुछ मात्रा तो पा रहा है। मिक्सिंग और फिक्सिंग इस देश के मूलाधार हैं। इनके बिना देश एक क़दम नहीं चल सकता। ये दोनों हमारी सभ्यता और संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग हैं। ये दोनों हमारी जीवन शैली हैं, ये दोनों हमारे जीवन जीने के ढंग हैं। इनके विरुद्ध मीडिया वालों के अतिरिक्त कोई कुछ कहता नहीं। उन्हें ख़बर चलानी होती है, इन्हें ख़बर बनानी होती है। 

"पर प्रभु! अगर कोई इनके विरुद्ध कहे भी तो सुनने वाला यहाँ है ही कौन? जो मिक्सिंग और फिक्सिंग करने वालों को पकड़ने के लिए वेतन पर रखे गए हैं, वे ख़ुद ही मिक्सिंग और फिक्सिंग के शिकार हैं। मिक्सिंग और फिक्सिंग करने वालों से हफ़्ता वसूलने को लाचार हैं। उन्हें जैसे सरकार ने नौकरी ही मिक्सिंग और फिक्सिंग को बढ़ावा देने के लिए दी है। इसलिए भैया, करो फिक्सिंग-मिक्सिंग! जितनी चाहे करो। हमारे होते हुए हे मिक्सिंग, फिक्सिंग के पुजारियों, तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।

"प्रभु! इस देश की जनता को अब सरकार से लेकर आचार तक सब मिकस्ड और फिक्सड ही पसंद आते हैं। जिसमें मिक्सिंग नहीं, वह आज की डेट में बाज़ार में बिकता नहीं। जहाँ फिक्सिंग नहीं, वह किसी के आगे टिकता नहीं। सड़क से संसद तक मिक्सिंग और फिक्सिंग ही गुंजायमान है। ये दोनों वक़्त की माँग हैं प्रभु! वक़्त की माँग को इग्नोर न करो। मुझे अपना काम करने दो और तुम भी अपने काम से जो कहीं जा रहे हो, तो प्लीज़ आगे बढ़ो। संपादक का फ़ोन पर फ़ोन आ रहा है कि जल्दी व्यंग्य के नाम पर कुछ भी भेज मारो, नहीं तो कल का अख़बार बिन व्यंग्य ही जा रहा है।" 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

पुस्तक समीक्षा

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. मेवामय यह देश हमारा