अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

नक़लं परमं धर्मम्

धर्म निरपेक्ष नई सरकार को कई दिनों से लग रहा था कि उसके राज्य में धर्म की स्थापना में अड़चनें आ रही हैं, धर्म की चूलें हिल रही हैं। दूसरी ओर उसकी अपनी पार्टी के ख़ास लोग भी उसे इस बात को लेकर परेशान करने लग गए थे कि उन्होंने सरकार बनाने में सरकार की मदद की है। और अब वक़्त आ गया है कि सरकार उनकी मदद कर ख़ास-ख़ास पदों पर उनके बंदों को नियुक्त करे ताकि इस हाथ ले, उस हाथ दे के राजनीतिक नियम पर विश्वास बना रहे।

अपने ख़ास लोगों के प्रेशर के चलते आख़िर सरकार ने अपने दल के धर्म डिग्रीधारक, डिप्लोमाधारक उम्मीदवारों की गिनती कर, राज्य में नव धर्म के उदय के लिए विभिन्न धर्मों के धर्म गुरुओं के रिक्त पदों को भरने की घोषणा कर दी। सभी अख़बारों में राज्य में धर्म की स्थापना हेतु विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं के पद आरक्षण के हिसाब से ब्योरेवार विज्ञापित कर दिए गए ताकि धर्म में भी आरक्षण की पारदर्शिता की मर्यादा बनी रहे। 

अख़बारों में धर्म गुरुओं के पद विज्ञापित होने के तुरंत बाद जिन धर्म गुरुओं का समाज में अपना धंधा नहीं जम पाया उन्होंने सरकारी पद पर आसीन हो धर्म का धंधा करने की सोची और अपने-अपने धूल चाटती डिप्लोमों-डिग्रियों को झाड़ने लगे। 

देखते ही देखते अपने-अपने धर्म के धर्म गुरु अपने-अपने धर्म गुरू के पद हेतु अप्लाई करने के लिए इधर-उधर से अपने-अपने धर्म की सेवा के अनुभव के असली-नक़ली प्रमाण पत्र जुटाने को पसीना बहाने लगे। ज्यों ही आवेदन करने की सरकारी डेट के बाद की डेट ख़त्म हुई तो धर्म गुरू की नियुक्ति हेतु आवेदन के बाद सब अपनी-अपनी नियुक्ति को अंतिम रूप देने के लिए जी जान से जुगाड़ में जुट गए। 

कोई होने वाला धर्म गुरु सिफ़ारिश के लिए इस नेता को पकड़ रहा था तो कोई उस नेता को। कोई सिलेक्शन करवाने के चक्कर में उसे घूँस दे रहा था तो कोई इसे। ये कमबख़्त सरकारी नौकरी होती ही ऐसी है। चाहे पीउन की ही क्यों न हो। उसके लिए जो भगवान भी अप्लाई करें तो वे भी सिलेक्शन करवाने के लिए जो न करें, वह कम ही कम। 

तय तिथि को राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में धर्म गुरुओं के चयन के लिए आयोग द्वारा लिखित परीक्षा आयोजित की गई। सरकार ने कड़ी मशक़्क़त के बाद इस बार पेपर लीक न होने दिया। उसके बाद भी जो पेपर लीक हो गया हो तो सरकार को इससे कोई लेना-देना नहीं बनता था। क्योंकि लीकेज लोकतांत्रिक संस्कृति का अभिन्न अंग है।

अबके सरकार ने अपनी ओर से इस बात के हर पुख़्ता इंतज़ाम किए थे कि कम से कम धर्म गुरुओं की होने वाली परीक्षा में परीक्षा केंद्रों में किसी भी तरह का कोई अनैतिक काम न हो। दूसरी परीक्षाएँ तो अनैतिकताओं का सदुपयोग किए बिना सफल मानी ही नहीं जातीं। आज जिस परीक्षा में नक़ल न हो, उस परीक्षा का आयोजन सफल नहीं माना जाता। नई धर्म निरपेक्ष सरकार ने कठोर निर्णय लिया था कि उसके समय में सही धर्म गुरु छँट कर आएँ जिससे धर्म निरपेक्ष समाज में विशुद्ध धर्म की स्थापना हो सके ताकि आने वाली सरकारें उनसे इस मामले में सीख लें कि समाज के लिए धर्म कितना ज़रूरी रहा है, होता है।

परीक्षा की सभी तैयारियाँ पूरी हो गईं तो सरकार ने तय किया कि क्यों न सभी धर्मों के भगवानों को परीक्षा केंद्रों के औचक निरीक्षण की ज़िम्मेदारी सौंप उन्हें अबके ख़ासतौर पर उड़नदस्तों में शामिल किया जाए, क्योंकि धर्म का मामला सीधे तौर पर हर दिन भगवान से और अधर्म का मामला इंसान से जु़ड़ा रहा है। आदमी तो बस दो जून की रोटी में ही फँसा रहता है हर युग में। उसे रोटी से कोई ऊपर उठाए तो वह भी कभी धर्म के बारे में सोच अपने को कृतार्थ करे। अतः यह सोच कर सरकार ने भगवान को अबके इस परीक्षा में इसलिए भी हिस्सेदार बनाया कि कल को मीडिया ने परीक्षा में नक़ल को लेकर अंट-संट लिखा, दिखाया तो भगवान को सीधे तौर पर नक़ल का ठीकरा भगवान के सिर फोड़ देंगे कि यह परीक्षा भगवान की देख-रेख में हुई थी। 

धर्म निरपेक्ष सरकार के आदेश पा मुख्य धर्मों के भगवानों ने भी सोचा कि चलो, इस बहाने वे कम से कम मुत्युलोक में चलने वाली परीक्षाओं के बारे में ताज़ा जानकारी हासिल कर सकेंगे। दूसरे, इस बहाने घूमना-सूमना भी हो जाएगा सरकारी ख़र्चे पर।

.....और वे स्वर्ग से अपने सहायक नारद को साथ ले मृत्युलोक के आवंटित परीक्षा केंद्रों का औचक निरीक्षण के लिए यथा स्थान यथा समय पहुँच गए।

परीक्षा केंद्र पर जाकर भगवान ने देखा कि परीक्षा केंद्र में परीक्षा देने आए धर्म गुरुओं की हाज़िरी बहुत कम है। हर कोई हर कहीं बैठ रहा है। हर कोई हर किसीको किताब खोलकर दे रहा है। किसी ने अपना मोबाइल कान से लगाया है तो किसी ने अपने मोबाइल पर इंटरनेट खोल रखा है। नक़ल करने के एक से एक लाजवाब तरीक़े वहाँ इस्तेमाल हो रहे हैं। नक़ल करने वालों से अधिक नक़ल करवाने वाले निहाल हो रहे हैं। कमरे में नक़ल रोकने वाले ही ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिख रहे हैं। कुछ परीक्षा लेने वाले परीक्षा भवन में तो कुछ परीक्षा भवन के बाहर बिक रहे हैं। सुरक्षा इंतज़ाम को तैनात पुलिस वाले किसी को कुछ नहीं कह रहे। सारे सुरक्षा इंतज़ाम जैसे बकवास होकर रह गए हों। हैरान हो तब भगवान ने नारद से पूछा, "हे नारद! ये हम कहाँ आ गए?"

"प्रभु! आप धर्म गुरुओं के लिए हो रही परीक्षा केंद्र पर ही हैं।"

"पर क्या ये परीक्षा केंद्र ही है? कहीं हम ग़लत जगह नहीं तो आ गए?" तब नारद ने जेब से लैटर निकाला, पता देखा, उसके बाद बोले,"नहीं प्रभु! पता तो यही है। यह हमें आवंटित हुआ परीक्षा केंद्र ही है।"

"तो आज के वक़्त में धर्म के क्षेत्र में भी इतनी बेरोज़गारी? धर्म को लेकर तनी अफरा-तफरी? लगता है अब धर्म बिकना भी कठिन हो गया है?" भगवान के माथे से उदासी टपकी। 

"नहीं प्रभु! इस परीक्षा केंद्र पर रिकार्ड के हिसाब से परीक्षार्थी तो सौ ही हैं।"

"तो ये शेष तीन सौ कौन हैं??" प्रभु ने लंबी साँस ली।

"लगता है बाक़ी अपने-अपने धर्म के कैंडिडेट की सहायता करने आए हैं।"

"सहायता करने आए बोले तो??"

"उन्हें परीक्षा में नक़ल करवाने आए हैं ताकि वे अपने धर्म गुरू को सरकारी धर्म गुरू के पद पर सिलेक्ट करवा सकें," नारद ने गर्व से कहने के बाद सिर नीचा कर लिया। 

"नक़ल करवाने?" भगवान ने कहते अजीब से मुँह बनाया तो नारद ने कहा,"हाँ तो प्रभु! इसमें इस तरह मुँह बनाने की बात क्या है प्रभु?"

"अजीब ही तो है। परीक्षा में नक़ल??

"आज नक़ल ही हर परीक्षा का धर्म है, हर परीक्षार्थी का मर्म है प्रभु! नक़ल के बिना हर परीक्षा अधूरी है। नक़ल ही हर परीक्षा के परीक्षार्थी की सफलता की धुरी है। जिस तरह चाय में चाय पत्ती ज़रूरी है, उसी तरह परीक्षा में नक़ल ज़रूरी है। इसके बिना परीक्षा देने का मज़ा ही नहीं आता।"

"मतलब??"

"सब अपनों-अपनों की सहायता करने आए हैं। कइयों ने कई धर्म विशेषज्ञ सहायता के लिए किराए पर भी लाए हैं।"

"तो इन्हें कोई रोकेगा नहीं?"

"नहीं। रोकेगा कौन?? इन्हें रोकने का मतलब है कुछ भी हो जाना। ये इस वक़्त नक़ल करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।"

"क्यों?? ऐसा क्या??"

"हाँ प्रभु! यही अंतिम सच है। ऐसे में आज जो परीक्षार्थी परीक्षा में बैठकर नक़ल नहीं करता वह नक़ल के धर्म की अवहेलना करता है। नक़ल के धर्म को बनाए रखने के लिए हर परीक्षा में लिखना ज़रूरी नहीं, नक़ल करना ज़रूरी है।

"मतलब??"

"प्रभु! यहाँ तो सरकारी नौकरी का सवाल है। इसके लिए तो जीव कुछ भी करने को उतारू हो जाए। बच्चे तो कच्चे पेपरों में भी नक़ल करते हैं और मास्साब की उँगली पकड़ मुस्कुराते हुए, सफलता के नित नए प्रमितान गढ़ते हुए निरंतर आगे बढ़ते हैं।"

"मतलब कि अब धर्म भी अब नक़ल के सहारे चल रहा है??? ऐसे में....."

"प्रभु! नक़ल करने वालों के बीच टाँग मत अड़ाओ। चुपचाप अपनी ड्यूटी करो वरना.....," नारद ने कहा तो परीक्षा केंद्र में उड़नदस्तिए प्रभु उड़नदस्ते का औपचारिक धर्म निभाने की संवेदनशीलता को भाँप पास वाली कुर्सी पर सिर में हाथ दे, कान, आँखें, दिमाग़ सब बंद कर ज्यों ही बैठे तो परीक्षा भवन में तैनात कर्मचारी उनकी आवभगत में जुट गए। उनकी ऐसी भव्य आवभगत तो स्वर्ग में भी क्या होती होगी। परीक्षा ख़त्म होने के बाद भी वे आँखें बंद किए अपने लोक को लौटने लगे तो नारद ने कहा,"प्रभु! पेपर ख़त्म हो चुका है। अब तो आँखें खोल दीजिए प्लीज़! कहीं गिर गए तो....,"

यह सुन प्रभु ने नारद का सहारा लिए कहा,"नारद! मुझे तो लग रहा है अब यहाँ धर्म की नहीं, मेरी ही परीक्षा ही चल रही है। लगता है अब आँखें, कान, सब दिमाग़ बंद कर जीने के दिन आ गए।" 
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

पुस्तक समीक्षा

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. मेवामय यह देश हमारा