निःसंदेह अजेय हो तुम
काव्य साहित्य | कविता संजय कवि ’श्री श्री’1 Feb 2021
(पूज्य अग्रज डॉ. ए. के. श्रीवास्तव, निदेशक, भारती विद्यापीठ यूनिवर्सिटी को समर्पित)
निःसंदेह अजेय हो तुम।
दुर्भाग्य को
ललकार के,
उत्क्रांति को
आकार दे;
तुम्हारी ये विजय।
निःसंदेह अजेय हो तुम।
आभार
जन्मदाता को
जिन बदौलत तुम बड़े हुए,
उन उँगलियों को
जिन्हें थाम तुम खड़े हुए;
यहाँ तक लाने वाली
सीढ़ियाँ,
तुम्हारे लिए खप गईं
पीढ़ियाँ;
सभी धन्य हुईं।
निःसंदेह अजेय हो तुम।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अमावस्या की निशा
- इतना ही तुमसे कहना है
- कलुषित हो, मानुष किस ओर चला है. . .?
- चहुँ ओर शिखंडी बैठे हैं
- तुम अनीति से नहीं डरे थे
- तुम प्रेम कैसे करोगे?
- निःसंदेह अजेय हो तुम
- निःसंदेह पवित्र हो, तुम मेरे मित्र हो
- मेरे प्रेम का तिरस्कार, मुझे सहर्ष है स्वीकार
- मैं तुम्हारा हृदय, तुम मेरे स्पंदन कहलाओगे
- वो मैं ही हूँ
- शकुनि को जीवन से निकाल दीजिये
- शरीर पार्थिव हो गया
- सागर तट पर
- स्वयं को न छलो आराध्य
- हम कितने ग़लत थे
- हर जंग बेवज़ह थी
- हर हर महादेव
- हिस्से में था अपमान मिला, विस्मृत करके देखो समक्ष
- हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण! अरि के प्राणों को हरो हरो
- हे मनुष्य! विध्वंस के स्वामी रुक जाओ
नज़्म
कविता - क्षणिका
खण्डकाव्य
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}