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शब्द

शब्द 
अपने आप में 
होते नहीं काबिज़, 
सूखे बीजों की मानिंद 
बस धारे रहते हैं सत्व... 

 

उभरते पनपते हैं अर्थों में 
बन जाते हैं छाँवदार बरगद 
या सुंदर कँटीले कैक्टस, 
उड़ेला जाता है जब उनमें 
तरल भावों का जल। 

 

न काँटे होते हैं शब्दों में 
और ना ही होते हैं पंख 
ग्राह्ता हो जो मन मृदा की 
पड़कर उसके आँचल में 
बींधने या अंकुआने लगते हैं। 

 

शब्द हास के 
बन जाते हैं नश्तर, और 
नेहभरे शब्द छनक जाते हैं 
गर्म तवे पर गिरी बूँदों से 
मृदा मन की हो जो विषाक्त। 

 

कहने-सुनने के बीच पसरी 
सूखी, सीली हवा का फासला 
पहुँचाता है प्राणवायु 
जिसमें हरहराने लगते हैं 
शब्दों में बसे अर्थ। 

 

प्रेम की व्यंजना में 
बन जाते हैं पुष्प, तो 
राग-विराग में गीत के स्वर 
और वेदना में विगलित हो 
रहते पीड़ादायक मौन। 

 

शब्द प्रश्न भी होते हैं 
हो जाते हैं उत्तर भी 
मुखर भी और मौन भी 
गिरें मौन की खाई में 
तो उकेरते हैं संभावनाएँ। 

 

अनंत संभावनाओं को 
भर झोली में, शब्द 
विचरते हैं ब्रह्मांड में 
खोजते हैं अपने होने के 
मायने और अर्थ। 
क्योंकि शब्द 
अपने आप में कुछ नहीं होते। 

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