अग्नि परीक्षा
काव्य साहित्य | कविता सपना मांगलिक3 Jun 2012
आज भी कोई न कोई वैदही हर दिन
बाध्य होती है अपनी अस्मिता को
अपने अस्तित्व और पवित्रता को
अपवित्र समाज के सामने साबित करने के लिए
और देने को बार-बार हरबार अग्नि परीक्षा
आज भी ये धोबीनुमा संकीर्ण मानसिकता वाला
पुरुष समाज लगाता है लांछन औरत की आबरू पे
और रामसरीखे उसके पालनहार ही अक़्सर
संकीर्ण सोच वाले धोबियों की बातों में आ
लेते है बेचारी सीताओं से अग्निपरीक्षा
आज भी छद्म वेश में आकर रावण सरीखे
वासनायुक्त राक्षस हारते हैं जबरन जानकीयों को
और खेलते हैं उनके स्त्रीत्व की गरिमा से
पर ना बचाने आता अब कोई राम या हनुमान उन्हें
ज़िल्लत और बदनामी के अंगारों पे पग-पग झुलसती
मजबूर है आज के ज़माने की जानकी उन कपटी
दुश्चरित्र रावणों के सामने देने को अग्नि परीक्षा
ना जाने कब थमेगा ये क्रम बेचारी सीताओं से
उनके वुजूद को छिनने और क़ुर्बानियाँ माँगने का
कब बदलेगा दोगला चेहरा इस घिनौने समाज का
जाने कब वो दिन आयेगा न्याय और अधिकार का
जब ना देनी पड़ेगी किसी भी वैदही को अग्नि परीक्षा
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