चुपचाप देखते रहते हो
काव्य साहित्य | कविता वीरेन्द्र जैन1 Jan 2023 (अंक: 220, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
जाने कैसा दौर गुज़र रहा है ये,
ख़ुदा का घर दहशत में है
जन्नत लिपटी पड़ी है नुकीली तारों में
ख़ूब चलता है ब्योपार इन दिनों नुकीली तारों का।
बर्फ़ की चादर अब तो मैली हो चली है
ख़ून के धब्बों से,
ज़ख़्मी हो गए हैं
बन्दूक की नोक पर क़दम रखती
ज़िन्दगी के तलवे भी,
चल नहीं सकती रेंगा करती है अब।
सिर्फ़ झीलें ही नहीं जमती
स्याह मौसम ने आँखों के सागर भी जमा दिए हैं
दर्द बरसते हैं, आँसू नहीं।
अज़ानों की जगह अब
गोलियों की चीखों ने ले ली है,
सर झुकाते ही इबादत में
पैरों के नीचे से ज़मीन खींच लेते हैं।
चुपचाप देखते रहते हो . . .
अपने बनाए स्वर्ग को
तब्दील होते नर्क में,
या ख़ुदा! क्या तेरा दिल भी पत्थर का हो गया है?
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