अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

हे राम!

 

राम तुम क्यूँ ना बन सके प्रैक्टिकल, 
कि जब मेघनाद का तीर लगा लखन को, 
क्यों तुमने द्रवित किया था मन को। 
बुलाया भेजकर हनुमान को वैद्य सुशेन को, 
गोद में रखे सिर को अपने लखन को। 
रुदन करते हुए करते रहे विनती वैद्य से। 
बचा लो किसी भी तरह टुकड़े को मेरे मन के॥ 
कि जी ना सकूँगा अपने लाड़ले के बिना, 
निकलेंगे प्राण मेरे भी साथ मेरे लखन के। 
हाथ जोडे हनुमान के, ले आओ संजीवनी कैलाश से, 
करता हूँ विनती बच जाए लखन इस आस से॥ 
क्यों किया राम तुमने अपनी गरिमा का अपमान, 
क्यों दाँव पर लगा दी तुमने अपनी जान॥ 
कह सकते थे तुम यही है लिखा नियती का, 
कौन बदल सका है भाग्य किसी का। 
अग़र तुम्हारी आयु इतनी ही बची रेखाओं में, 
क्या उपयोग रखा वैद्य और औषधियों में॥ 
कि रखकर सिर तुम्हारा गोद में मैं अपनी, 
निकाल दूँगा समय जब तक रहे तुम्हारी अंतिम साँस भी। 
कहना था लखन तुम्हे् रखना होगा भाव समता का, 
कि होगा आज ये परीक्षण तुम्हारी आत्म क्षमता का॥ 
ना करना तुम अपनी ख़ातिर परेशान औरों को, 
लखन त्याग देना तुम शांत मन से अपने प्राणों को। 
समय यही है संसार को सकारात्मकता सिखाने का, 
छोड़ नियती पर सबकुछ इंतज़ार प्राणों के जाने का॥ 
राम तुम क्यों ना बन पाए प्रैक्टिकल, 
समझा कर लखन को क्यों ना बढ़ाया संबल, 
राम तुम क्यों ना बन पाए प्रैक्टिकल॥। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं