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होली में भाँग खाए बलई चचा हमार

 

हमारे पूर्वांचल के गाँवों में होली का पर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है। यहाँ होली आज भी थोड़ी बहुत ज़िन्दा है। होली का त्योहार हो और बलई काका उसमें न शामिल हों तो होली का कोई मतलब ही नहीं निकलता। होलियारों की टोली बलई काका के बग़ैर निकलती ही नहीं। यक़ीन मानिए गाँव में जो सबसे सरीफ लड़का होगा, वह भी होली में उद्दंड हो जाता है। बलई काका पूरे सत्तर साल के हो गए हैं, लेकिन होली में सत्रह बरस के लगते हैं। होली के दिन वे गाँव के बिगड़े लौडों के सरदार बन जाते हैं। होली के दिन उन्हीं की टोली में मिलकर ख़ूब मस्ती करते हैं। बुढ़ौती में होली के दिन उनका बचपन जाग जाता है। वे भी उन्हीं बदमाश लड़कों की टोली में शामिल होकर रंगभरे गुब्बारे और कीचड़ लोगों पर डालते हैं और खींसें निपोर कर हँसते हैं। उस समय उनके चेहरे की रंगत ठीक चूसे हुए आम जैसी लगती है। 

बसंत के आगमन के बाद खेत-खलिहान भी धानी और पीले हो जाते हैं, लेकिन इतनी उमर गुज़रने के बाद भी बलई काका के हाथ पीले नहीं हुए। वह कुँवारे के कुँवारे ही रह गए। सिर के बाल पूरे झड़ गए हैं जिसकी वजह से उनका सिर पका कद्दू जैसा लगता है। मुँह के दाँत तो खैनी रानी के प्रेम में इतने दीवाने हुए कि समय से पहले ही एक-एक कर साथ छोड़ दिया। दोनों गाल में इतने बड़े गड्ढे हो गए जैसे हमारे यहाँ की सड़कों में होते हैं। नाक का लम्बा छेद रेलवे की लम्बी सुरंग जैसा लगता है। लेकिन होली में इतने दीवाने हो जाते हैं कि गाँव-जवार के लौंडों को भी पीछे पछाड़ देते हैं। हर गुज़रने वाली महिला को शोले की बसंती और अपने को गब्बर सिंह समझने की भूल कर बैठते हैं। 

बसंत का मौसम आते ही बलई काका के चेहरे का हाव-भाव बदलने लगता है। वह खेतों में फूली सरसों की तरह झूमने लगते हैं। अलसाई तीसी सरीखे उनके बदन में गुदगुदी होने लगती है। फूली मटर जैसे आसमान की तरफ़ बढ़ती है वैसे ही उनकी ख़ुशी का ठिकाना आकाश नापने लगता है। वह होली आते-आते खिले टेसू और बाद में मुरझाए गुलाब हो जाते हैं। ढलती शाम पनवाड़ी बाँकेलाल की दुकान से भाँग की बूटी लेने के बाद उनके जीवन का आनंद और बदल जाता है। ऊपर से पान की गिलौरी उन्हें कुँवारा आशिक़ और आवारा प्रेमी बना देती है। भाँग के नशे में उनके अग़ल-बग़ल से गुज़रने वाली हर गाँव की दुल्हिन उनकी भौजाई लगने लगती है। बस! उनके दिमाग़ में जवानी के दिनों का यह गीत गूँजने लगता है . . . आज न छोड़ेंगे बस रंग डालेंगे, बस, होली है होली। 

होली आते ही बलई काका का यह गीत . . . फागुन में ददा देवर लागई फागुन में . . . ठेका बन जाता है। वह गाँव की गली और चौपाल से गुज़रते हुए इसे गुनगुनाने लगते हैं। होली में बलई काका किसी भी महिला को नहीं छोड़ते। कच्चे मकान में अगर महिलाएँ गोबरी लगा रहीं होती हैं तो उधर से गुज़रते बलई काका यह गीत ज़रूर उन्हें सुनाते। फिर भला महिलाएँ भी उन्हें कब छोड़ने वाली थीं, वह भी पीछे से गोबर का घोल या फिर नाबदान की सड़ी गाज और पानी पीछे से उन पर उड़ेल देती। 

फागुन में गाँव की महिलाओं का इस तरह अनूठा प्यार पाकर बलई काका का कुँवारापन कुलाँचें मारने लगता। मन ही मन उनके मन में लड्डू फूटने लगते। वे सोचते हैं चलो होली के बहाने ही भला इस नाचीज पर महिलाओं का प्रेम उमड़ा तो, भले ही वह नाबदान की सड़ी गाज और पानी हो। लेकिन इसमें उन्हें सास्वत प्रेम की अनुभूति होती और सत्तर साल का कुँवारापन मंडप में सात फेरे की सुखद और अलौकिक आनंद की सुख प्राप्ति में खो जाता है। 

बसंत की शुरूआत से ही बलई काका गाँव की महिलाओं के देवर बन जाते। दिन हो या रात बलई काका कबीरा बोल कर महिलाओं को ख़ूब चिढ़ाते। इधर गाँव की दुल्हिनें भी उन्हें छेड़ने से बाज़ नहीं आती। घर के सामने से गुज़रते वक़्त उन पर जला मोबिल या फिर बैटरी की कालिख घोलकर उड़ेल देती। रंग पड़ने के बाद उनकी सूरत में चार चाँद लग जाता। लेकिन बलई काका कभी बुरा नहीं मानते। वे रंगों से नहाने के बाद बोलते थे . . . रंग बरसे चुनर वाली, रंग बरसे। बुरा न मानो होली है, बोल कबीरा सरा . . . र . . . र। 

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