कलियुग की भगीरथ
काव्य साहित्य | कविता रेखा राजवंशी6 Dec 2014
गंगा उछलती है, मचलती है,
अपार विस्तार में, नर्तन करती है,
लोगों की आस्था को बढ़ाती है,
और जीवन रस बाँटती बहती जाती है
जीवन की लालिमा हो
तो शक्ति का संचार करती है,
मृत्यु की कालिमा में
मुक्ति का द्वार खोलती है
बरसों से बहते-बहते थकी नहीं,
अपनी सम्पत्ति देते-देते छकी नहीं,
अपना जल बाँटते-बाँटते सूखी नहीं
लोगों की गन्दगी ढोते-ढोते रुकी नहीं
अपनी आँख की कोरों पर
टपकते आँसुओं को पी लेती है,
गंगा शिकायत नहीं करती,
बस यूँ ही जी लेती है
अब कुछ उदास है
पर बहती जाती है,
माँ है न . . . सब सह कर भी
मुस्कुराती है
देश छोड़ रही थी, तो समेट लाई थी
गंगा मेरे सूटकेस में खिलखिलाई थी
अब गंगा मेरे घर में रहती है
पूजा त्योहारों में, पावन वो बहती है
माँ की तरह, मेरे सारे सुख-दुःख सहती है,
जाने कितने अफ़साने, गुप-चुप मुझसे कहती है,
कि फल देने लगते हैं, मेरे सारे तीरथ
कि मैं बनने लगती हूँ, कलियुग की भगीरथ
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