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लालच की हार

अपना देश भी कमाल का है। तभी तो इतना नाम है। एक से एक चतुर और बुद्धिमान लोग हुए हैं इस जमीन पर। अब तेनालीराम को ही लो। वही सोलहवीं शताब्दी में जिसका आन्ध्र के तेनाली शहर में एक गरीब परिवार में जन्म हुआ था। विकट याने हास्य कवि। सम्राट कृष्णदेव का तो वह आत्मीय सखा था। बुद्धिमानी और व्यंग्य करने में उसका जवाब नहीं था। व्यंग्य वह जो बिना अपमान किए आँखें खोल दे। इस घटना में ही देख लो।

राजा कृष्ण देवराय के मन में अपने बड़ों के लिए बहुत आदर था। माता-पिता को तो वह पूजता था। माता-पिता को भी अपने पुत्र से बहुत स्नेह था। उन्हें उस पर गर्व भी बहुत था।
एक बार राजमाता बीमार पड़ गई। राजवैद्यों ने अच्छे से अच्छा इलाज किया। राजा ने भी माँ की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन राजमाता की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। उलटे स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। कितने ही वैद्यों-हकीमों की सलाह ली गई। पर कोई फायदा नहीं। निराश होकर राजवैद्य ने राजा से कहा, ’राजा मैं वैद्य हूँ। अब मुझे सच बतलाना होगा। राजमाता की बीमारी असाध्य हो गई है। कोई चमत्कार हो जाए तो अलग बात है, नहीं तो इनका बचना अब मुश्किल है।‘

सुनकर राजा का तो दिल ही बैठ गया। भला कौन बच्चा अपनी माँ को खोना चाहता है। आयु चाहे जितनी भी क्यों न हो जाए। पंछियों और जानवरों तक के बच्चे अपनी माँ के लिए बेचैन होते हैं। लेकिन मौत तो मौत है। सब को ही आती है। राजा यह जानता था। सो उसने आगे की सोची।

राजा माँ के पास बैठा था। आँखें गीली थीं। माँ का हाथ उसके हाथ में था। माँ ने उसे बहुत ही प्यार से निहारा। उसके होठों पर मुस्कान थी और मुँह पर दिव्य आभा। बहुत ही शान्त था माँ का चेहरा। उसने अपने राजा बेटा की परेशानी भाँप कर धीरे से कहा, ’बेटा तुम्हें उदास नहीं होना चाहिए। प्रकृति का जो नियम है हमें उसका आदर करना चाहिए। उससे घबराकर अपने स्वार्थ के लिए उसे बिगाड़ना नहीं चाहिए। प्रकृति हमेशा नयों के लिए जगह बनाती है। उसके लिए पुरानों को अपनी अदृश्य गोद में सुला लेती है। हाँ, अब मान लो कि मेरा अंतिम समय आ गया है।‘

राजा बेटा माँ की बातों से बहुत ही प्रभावित हुआ। वह थोड़ा संभला तो पूछा, ’माँ, मैं अपनी ओर से यही चाहता हूँ कि आपकी सब इच्छाएँ पूरी कर सकूँ। कृपया बताएँ यदि आपकी कोई और इच्छा हो तो?‘ माँ मुस्कुराई। बोली, ’बेटे तुमने मेरी हर इच्छा पूरी की है। फिर भी तुमने पूछा है तो मेरी अंतिम इच्छा भी पूरी कर दो। मेरा मन वे खास आम खाने को कर रहा है। एकदम ताजा और डाल पर पके। उन्हें ही मंगवा लो।‘

राजा ने तुरन्त सेवक दौड़ा दिए। ताकि आम के सबसे अच्छे बाग से माँ के मन चाहे आम ला सकें।

सेवकों को मालूम था कि वह मौसम आम का नहीं था। अतः वे दूर दूर तक गए। आखिर एक स्थान पर उन्हें आम मिल गए। वे उन्हें लेकर राजमहल की ओर दौड़े। पर दुर्भाग्य। देर काफी हो गई थी। राजमाता बिना आम खाए ही चल बसी। राजा को बहुत ही अफसोस हुआ।
ब्राह्मणों को बुलवाया गया। उन्हें सारी घटना बतायी गई। राजमाता की अधूरी रह गई आम खाने की अंतिम इच्छा भी बताई गई। ब्राह्मण थे लालची और स्वार्थी। ऐसे मौकों का वे बहुत फायदा उठाते थे। उनके मन ही मन लड्डू फूटने लगे। लेकिन ऊपर से गम्भीर बने रहे। बोले, ’राजन्! यह तो घोर अनहोनी हो गई। राजमाता को स्वर्ग में भी चैन नहीं मिलेगा। तड़फती ही रहेंगी। हो सकता है कि वे बुरी आत्मा बन कर राजमहल पर आफत भी ला दें।‘

राजा हाथ जोड़कर ब्राह्मणों की बात सुन रहा था। उसने पूछा, ’ब्राह्मण देवताओ! क्या कोई उपाय नहीं है?‘

’है, अवश्य है।‘ हम सारी बला को अपने ऊपर ले लेंगे। आखिर हम ब्राह्मण हैं। राज्य और राजा के संकट को दूर करना हमारा धर्म है।

’तो जल्दी से उपाय बताएँ।‘ राजा ने श्रद्धाभाव से कहा।

’आप राजमाता के श्राद्ध के लिए प्रत्येक ब्राह्मण को सोने का एक एक आम दे दें। ऐसा करने से राजमाता को वे आम अपने आप मिल जाएँगे। इस तरह उनकी अंतिम इच्छा पूरी हो जाएगी। और वे संतुष्ट हो जाएँगी।

तेनालीराम भी यह सब सुन-देख रहा था।

धूर्त ब्राह्मणों का स्वार्थ खूब समझ रहा था। सोचने लगा कि भला मृत व्यक्ति कैसे सोने का आम खा सकता है। सोने का आम तो जीवित आदमी भी नहीं खा सकता। लेकिन जानता था कि मामला राजमाता का है। उस समय राजा उसकी एक न सुनेगा। सो गुस्से की घूँट भर कर रह गया। उसने ठीक वक्त की प्रतीक्षा करना ही ठीक समझा।

राजा ने माँ के श्राद्ध पर श्रद्धा भाव के साथ प्रत्येक ब्राह्मण को सोने के आम दिए। पूरे सौ ब्राह्मण थे।

तेलानीराम को जैसे आग लग रही थी। उसके हितैषी राजा को ब्राह्मणों ने मूर्ख जो बना दिया था। जब राजा को नहीं छोड़ा तो और लोगों को तो ये क्यों छोड़ेंगे। यूँ भी राजा की कृपा से तो तेनालीराम के पास खूब धन भी था और बड़ा सा महल भी।

संयोग कि तेनालीराम की माँ भी बीमार पड़ गई। बूढ़ी तो थी ही। तेनालीराम ने भी माँ की खूब सेवा की। पर कुछ लाभ न हुआ। न दवा काम आई, न सेवा। वह चल बसी।

तेनालीराम ने श्राद्ध के दिन राजा वाले पूरे सौ ब्राह्मणों को निमंत्रित किया। सब दौड़े-दौड़े आए। आते भी क्यों न, धनी आदमी का निमंत्रण जो था। अच्छे-अच्छे उपहार मिलने की आशा थी।

तेनालीराम ने महल का द्वार बंद करा दिया। फिर एक-एक ब्राहमण को अपने पास बुलवाया। पास आते ही उसने आग में तपी लोहे की छड़ से एक-एक ब्राहमण की कुहनी और घुटने को दाग दिया। ब्राहमण तो दर्द के मारे चिल्लाने लगे। पर उन्हें समझ कुछ नहीं आ रहा था। वे तेनालीराम को शाप देते हुए राजा के पास पहुँच गए और तेनालीराम की शिकायत की।
राजा ने तुरन्त तेनालीराम को बुलावा भेजा। तेनालीराम ने आदेश का पालन किया। राजा ने उसके वैसे क्रूर अपराध का कारण जानना चाहा। तेनालीराम ने हाथ जोड़कर कहा, ’क्षमा हो महाराज। मैंने कोई अपराध नहीं किया है। मैंने तो अपनी मर चुकी माँ की अंतिम इच्छा पूरी की है। इन्हीं, ब्राहमणों के बताए उपाय के अनुसार।‘

’कैसे?‘ राजा ने गुस्से में पूछा।

’महाराज मेरी माँ बीमार पडी तो अच्छे से अच्छे इलाज और मेरी सेवा भी उन्हें ठीक न कर सकी। समझ में आ गया कि माँ अब बचेगी नहीं। सो मैंने उनकी आखिरी इच्छा पूछी। माँ ने कहा कि एक बार उनकी कुहनियों और घुटनों को आग में तपी छड़ से दाग कर भी देख लिया जाए, जैसा कि एक वैद्य ने कहा था। माँ का ख्याल था कि शायद यही तरीका कोई चमत्कार दिखा दे और वह ठीक हो जाए।

माँ की अंतिम इच्छा जानकर मैं आग की तपी हुई छ्ड़ लेने गया। पर दुर्भाग्य। जब तक माँ के पास पहुँचता, माँ सिधार गई।

’वह तो ठीक है। पर ब्राह्मणों को दागने का मूर्खता भरा काम तुमने क्यों किया।‘

’क्षमा हो महाराज! मेरा तो अनुभव था कि राजमाता की आम खाने की अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए आपने इन ब्राहमणों को सोने के आम दिये थे। उसी तरह मैंने भी अपनी माँ की अंतिम इच्छा की पूर्ति के लिए ब्राह्मणों को दागना पड़ा। अब तो मेरी माँ संतुष्ट हो गई होगी। क्यों ब्राह्मण देवताओ! जब मरी हुई राजमाता आपको दिए हुए सोने के आम खा सकती है तो मेरी माँ..................।‘

ब्राह्मण समझ गए थे कि वे अपने ही जाल में फँस गए थे। वे बहुत ही शर्मिन्दा हुए। उन्होंने तेनालीराम और राजा से क्षमा माँगी। और सोने के आम लौटा देने को कहा।

राजा को भी अब बात समझ आ चुकी थी। एक बार फिर विकट कवि तेनालीराम ने अपनी बुद्धि से अंधविश्वास का अंधकार मिटाया था और धूर्तता की पोल खोली थी।

राजा ने विकट कवि को बहुत से उपहार दिए।

जानते हो विकट कवि को जिस ओर से पढ़ो एक जैसा अर्थ निकलेगा। यह राज भी सबसे पहले, बचपन में ही तेनाली के रामलिंग याने बाद के तेनालीराम ने खोला था।
जय हो तेनालीराम की।

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