पुराने नाम याद हैं, शक्लें बदल गई हैं - कवि त्रिलोचन (शास्त्री)
संस्मरण | स्मृति लेख दिविक रमेश12 Jan 2016
पता चला कि त्रिलोचन दिल्ली में हैं। यानी वैशाली (गाजियाबाद में)। अस्वस्थ भी हैं। त्रिलोचन शहर में हों और मुझ जैसे का लपक कर उनके पास जाने, उनसे मुलाकात करने, उनसे बतियाने, उनकी दिव्य निच्छल मुस्कान का आनंद लेने का मन न हो जाए, संभव ही नहीं है। मुझे नहीं याद आ रहा है कि त्रिलोचन का साथ कभी छूटा हो। कहीं भी गया हूँ, कहीं भी रहा हूँ, त्रिलोचन का मनोरूप हमेशा साथ रहा है, साथ ही नहीं, वह ताकत भी देता रहा है। इधर जब से दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय में प्राचार्य पद संभाला है और प्रशासकीय दाव-पेंचों पर पड़ा हूँ, त्रिलोचन को ज्यादा ही पुकारा है। ’आघात पर आघात‘, ’प्रगतिशीलों की सूची में नाम नहीं है‘ जैसी पंक्तियों ने कितनी ताकत दी है, यह मैं ही जानता हूँ।
यह मानी हुई बात है कि भले ही एक अच्छे-खासे अन्तराल के बाद किसी व्यक्ति से मिलने जा रहे हों, याद वही रूप रंग रहता है जो पिछली बार देखा होता है। सो जब अस्वस्थता की बात पता चली तो थोड़ा आश्चर्य हुआ। फिर श्याम सुशील ने बताया कि वे पहचानते भी नहीं, तो काफी निराशा हुई। सबूत के लिए उन्होंने बताया था कि विश्वनाथ त्रिपाठी को भी नहीं पहचान पाए थे। चिन्ता हुई कि मिलने पर जाने कैसे दिखेंगे त्रिलोचन? क्या पहचान पाएँगे मुझे? ऐसे ही कुछ प्रश्नों के बादल घिर आए थे अगस्त की २६ तारीख को उनसे मिलने की योजना बनाते हुए। यह तो तय था कि २० अगस्त को जन्मे त्रिलोचन ९१ में तो आ ही गए। पर इस उम्र के तो और भी कुछ लोग हैं।
कोशिश की कि उनके पुत्र या परिवार के किसी व्यक्ति से दूरभाष पर बात करके मिलने का समय व दिन सुनिश्चित कर लिया जाए। लेकिन वह संभव नहीं हो सका। खैर दाव खेल लिया। श्याम सुशील को लेकर पहुँच गया वैशाली (गाजियाबाद) के एफ-६६७, ३२ मीटरी एल आई जी फलैट में। घंटी बजायी तो दरवाजे से मुझे पहचानते हुए अमित सिंह ने कहा अरे आप! ठहरिए दरवाजा खोलता हूँ। कदाचित वे अपने वस्त्र ठीक-ठाक करना चाहते थे। मैंने मजाक किया। - ’अरे भाई मैं तो घर में इतने वस्त्र भी नहीं पहन पाता जितने आपने पहने हैं। चिन्ता मत कीजिए आप काफी सभ्य लग रहे हैं।‘ अमित हँसे और बोले, ’थोड़ा पिता जी (त्रिलोचन जी) को भी सभ्य बना दूँ।‘ दरवाजा खुला। दायीं ओर की दीवार से सटी चारपाई पर त्रिलोचन जी लेटे थे - बनियान और लुंगी में। हल्की-हल्की सफेद दाढ़ी। पहले से कुछ कम वजन। लेकिन वही आकृति - वही चमक। लेकिन शान्त और थोड़े चुप-चुप। नमस्ते का जवाब देने का वही चिर परीचित ढंग।
दिमाग में वही बातें चल रही थी। सुशील की बतायी। पहचानते नहीं। अपने पर नियंत्रण नहीं। टॉयलट जाते-जाते रास्ता या कभी-कभी बिस्तर ही गन्दा कर देने पर विवश। मैंने देखा त्रिलोचन बिना तकिए गर्दन और सिर को थोड़ा उठाए लेटे थे। फिर हाथ का तकिया बना लिया था। अमित ने बताया कि तकिए का उपयोग नहीं करते। तकिए के भ्रम के लिए चद्दर को चोहरी करके पास रखा जरूर है। अमित ने त्रिलोचन जी से हमारी ओर इशारा करते हुए कहा - ’आपसे मिलने आये हैं।‘ और उन्हें बिठा दिया। मैं पास ही कुर्सी पर बैठा था। मेरा बायाँ हाथ त्रिलोचन की पीठ पर जा लगा था। सहारे के लिए। याद आया कि ’सहारे‘ शब्द से कितने बचे हैं त्रिलोचन। तो भी। भीतर ’अम्मा‘ (त्रिलोचन जी की पत्नी) याद आ रही थी। तीरथ राम हॉस्पिटल। दिल के भीषण आघात के उपचार के लिए पलंग पर लेटे हुए त्रिलोचन। अम्मा का हाथ पकड़े हुए। आँखों में आँसुओं को थामे हुए। अद्भुत दृश्य था। अविश्वसनीय विश्वसनीय हो रहा था। फिर याद आयी थी त्रिलोचन जी के अगले दाँत के टूटने की खबर। और मुझसे कविता लिखी गयी ’त्रिलोचन का दाँत‘। श्री अशोक वाजपेयी ने मेरे कविता संग्रह ’गेहूँ घर आया है‘ (किताबघर से शीघ्र प्रकाश्य) के लिए कविताएँ चुनते हुए इस कविता को भी चुना है।
थोड़ी देर की इस चुप्पी को तोड़ते हुए, अमित ने पूछा ’आप इन्हें पहचानते हैं न?‘ ये दिविक रमेश हैं। और इन्हें भी पहचानिए - श्याम सुशील की ओर इशारा करते हुए कहा, इनके यहाँ आप रहे हैं। त्रिलोचन जी ने ध्यान से देखा। और फिर वही दिव्य दृश्य समक्ष था। वही हँसी (थोड़ी हल्की) और वही दिव्य मुस्कान। बोले - ’दिविक रमेश पुराना नाम है इसलिए जानता हूँ। हाँ शक्ल बदल गई है।‘ श्याम सुशील को पहली बार याद न कर पाए। मेरी खुशी का पार न था। उनके चेहरे पर पहचानने की मुद्रा ने ही अद्भुत सुख दे दिया था। मैंने कहा, ’अब उम्र बढ़ गयी है तो शक्ल तो बदलेगी ही न?‘ त्रिलोचन जी ने मेरा नाम दो-तीन बार दोहराया। बीच में चुप हो जाते थे। वही त्रिलोचन जो कभी चुप न रहने के लिए विख्यात थे। मैंने बात जारी रखने के लिए कहा, - त्रिलोचन जी मैं वही उजबक हूँ। (त्रिलोचन से जब कभी उनकी कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण लगने वाली बातों को सुनकर उनका ’मजाक‘ (सा) कर देता था तो वे प्यार से कहा करते थे - ’तुम उजबक हो!’ और फिर उजबक का अर्थ भी बता देते थे।
भीतर ही भीतर मन मेरा भी ’चुप‘ हो रहा था। आज त्रिलोचन से बतियाने के लिए बहुत अधिक प्रयत्न करना जो पड़ रहा था। मैंने मानों उनकी ’याद्दाश्त को परखने के लिए कहा, ’आपको चन्द्रबली सिंह जी की याद है। शमशेर जी के यहाँ मॉडल टाउन वाले घर में आपने मिलाया था। बनारस वाले चन्द्रबली सिंह।‘ त्रिलोचन जी के चेहरे पर एक भोली सी सहज चमक आ गई। मुस्कुराहट भी। बोले - ’पुरानों में जिनका नाम मुझे याद है वह चन्द्रबली सिंह ही है।‘ तब मैंने जगत शंखधर का नाम लिया। उदास से होकर बोले - ’अब कौन नाम लेता है जगत शंखधर का?‘ कोई भी सोच सकता है कि त्रिलोचन जी की इस ’याद‘ पर कितना संतोष हुआ होगा। अमित कहे बिना न रह सके - ’यह आपके आने का ही प्रभाव है।‘ मैंने मानों त्रिलोचन जी को याद कराने के लिए अमित की ओर देखते हुए कहा, - त्रिलोचन जी ने एक बार कहा था – ’दिविक तुमको मैं अपना पुत्र समझता हूँ।‘ अच्छा और आत्मीय लगा जब त्रिलोचन जी ने स्वीकृति में गर्दन हिलायी और चिरपरिचित मन्द मुस्कान के साथ कहा - हाँ। अब श्याम सुशील ने उनका कविता संग्रह ’जीने की कला‘ दिखाते हुए कहा - ’आप इसे जानते हैं न? किनका संग्रह है?‘ त्रिलोचन जी ने संग्रह हाथ में लिया। मैंने फ्लैप पर उनके नाम पर उँगली रखते हुए कहा - ’देखिए। यह संग्रह त्रिलोचन का है। आपका।‘ पर त्रिलोचन इस समय मानो निर्वेद में थे। चुप। बिना प्रतिक्रिया के। कुछ कविताओं के हवाले भी दिए। ’आँवला कविता‘ का भी ज़िक्र किया। लेकिन जैसे उन्हें कोई सरोकार न रह गया हो। अमित ने बताया था कि अब तो अपना ’नाम‘ लिखना भी भूल गए हैं। लेकिन तभी श्याम सुशील ने आग्रह किया कि वे ’जीने की कला‘ पर अपना नाम लिख दें। त्रिलोचन जी ने कहा - ’कहाँ‘। सुशील ने बताया - ’यहाँ‘। यानी उनके प्रकाशित नाम के आसपास ही। त्रिलोचन जी ने नाम लिख दिया। बिल्कुल पहले ही की तरह - मोती से अक्षरों में - लहरनुमा शिरोरेखा के साथ। उसके बाद उन्होंने आग्रह पर तिथि भी लिखी और अन्त में ’श्याम सुशील को।‘ सब कुछ हम तीनों के लिए ’अद्भुत और संतोषप्रद था। बिल्कुल ऐसा सुख था जैसा एक बच्चे के लिखने या कविता सुनाने पर होता है।
इस बीच यह तो पता चल ही गया था कि अमित अकेले ही थे। और वे ही उन्हें अकेले संभाल रहे थे। गन्दा भी खुद ही साफ करते थे। कार्यालय जाने पर त्रिलोचन जी को अकेले ही रहना पड़ता है। सिरहाने पानी रहता है। जाने से पहले अमित ही त्रिलोचन जी को खाना खिला जाते हैं। उनकी पत्नी ऊषा जी स्वयं बीमार हैं और बच्चे भी व्यस्त हैं।
जाने कब अमित प्लेट में ’चावल‘ ले आए थे और उनमें से कंकड़ आदि बीनने लगे थे। समझ आ गया था कि वे आज दोपहर के भोजन के रूप में चावल पकाएँगे। भोजन के बाद कार्यालय भी जाएँगे क्योंकि उनकी छुट्टी का दिन शनिवार है न कि रविवार।
यह भी पता चला कि त्रिलोचन जी को केला खाना मना है। जबकि मैं उनके लिए केले ही ले गया था। नरम फल जानकर। पूछने पर अमित ने बताया कि कब्ज करने वाली वस्तुएँ उनके लिए वर्जित हैं। हाँ ’पपीता‘ खा सकते हैं। दूध भी नहीं पीते।
त्रिलोचन जी जो अब तक चुप थे, श्याम सुशील से बोले - ’उसी घर में रहते हो।‘ श्याम सुशील ने कहा - ’हाँ‘ और उनकी खुशी का ठिकाना न था। मुझे भी और अमित को भी खुशी हुई कि त्रिलोचन जी को श्याम सुशील की पहचान का भी संदर्भ मिल गया था।
लग रहा था कि अब त्रिलोचन जी को आराम करना चाहिए। और फिर अमित को भी तो सब काम निपटा कर कार्यालय जाना है। दोपहर के १२ बजे। जो लगभग बज चले थे। सो मैंने ही कहा कि अब चलना चाहिए। हाँ इस बीच जब मैंने अमित से कहा कि लेखकों, लेखकों की संस्थाओं को हमारे इस बड़े लेखक की मदद के लिए सामने आना चाहिए तो उन्होंने चौंकाने वाली बात कही - ’एक संस्था‘ ने प्रस्ताव दिया था। लेकिन त्रिलोचन जी को स्वीकार न था। क्योंकि वे उसके कभी सदस्य नहीं रहे। उन्होंने यह भी कहा कि हाँ कोई लेखक निजी तौर पर सहायता करना चाहें तो शायद आपत्ति न हो। मुझे इस सूचना से राहत मिली। लगा कि चलते चलते मन की मुराद पूरी हो जाएगी। हुई भी। लेकिन इस दूसरी बात से आघात भी पहुँचा - अमित ने बताया कि लेखकों से जुड़े आयोजन होते रहते हैं। अमिताभ ने बच्चन जी से सम्बद्ध कार्यक्रम इंग्लैंड में किया। उन्होंने त्रिलोचन से सम्बद्ध अपनी एक रचना एक प्रसिद्ध व्यावसायिक पत्रिका को भेजी थी जिसके सम्पादक स्वयं अच्छे कवि, व्यंग्यकार, कहानीकार एवं चिन्तक हैं। लेकिन एक महीने बाद उसे लौटा दिया गया यह कहते हुए कि वैसी रचना वे अपनी पत्रिका में नहीं छाप सकते। खैर। त्रिलोचन को जब पहले ही ऐसी हरकतों से कुछ लेना देना नहीं था तब अब तो क्या होगा। उन्हें तो पता भी नहीं।
काफी भरे-पूरे से हम लौट आए थे। रास्ते में त्रिलोचन जी से जुड़े कितने ही किस्से याद आते रहे और श्याम सुशील सुनते रहे। मैं उनसे आग्रह कर रहा था कि आज की इस संक्षिप्त भेंट बल्कि मुलाकात को लिखकर कहीं जरूर छपा देना। मुझे क्या पता था मैं ही लिखने पर विवश हो जाऊँगा। चित्र तो मैंने अपने मोबाइल में सुरक्षित कर ही लिए थे। सुशील को यह सूचना मैंने दे दी थी कि भोपाल से दिल्ली आने पर जब त्रिलोचन मॉडल टाउन के एक घर की पहली मंजिल पर रह रहे थे तो मैंने दूरदर्शन की टीम के साथ उनके घर पर जाकर उन पर छोटी फिल्म बनवायी थी। अगर वह कहीं मिल जाए तो बहुत ही अच्छा रहेगा। इसका ज़िक्र मैंने ’फल भी और फूल भी‘ नामक अपनी पुस्तक में भी किया था। कदाचित वह उन पर पहली फिल्म थी।
हाँ चलते चलते उनके अगले दाँत के टूटने की बात का भी तो जक्र हुआ। त्रिलोचन जी फिर मुस्कराए थे। हँसे भी। जब मैंने बताया कि आपके दाँत पर मेरी कविता है तो वे चिरपरीचित हँसी के साथ दिव्य लग रहे थे। कविता इस प्रकार हैः
(बतर्जः न हुआ, पर न हुआ अन्दाज़ मीर का नसीब
यारों ने जोर बहुत मारा ग़ज़ल का)
दाँत
... दिविक रमेश
खबर है कि नहीं रहा एक अगला दाँत कवि त्रिलोचन का
न हुआ पर न हुआ अफ़सोस मीर का नसीब
सामने साक्षात् थे वासुदेव, कि न चल सका जोर, यूँ मारा बहुत था।
भाई, बाकी तो सब सलामत हैं, बेकार था, सो गया, अफ़सोस क्या?
सुनो, शोभा के लिए अधिक होते हैं ये अगले दाँत। और भाई
त्रिलोचन और शोभा! ऊँ! वहाँ दिल्ली का क्या हाल है?
सर्दियों में खासी कटखनी होती है सर्दी।
कहूँ, यूँ तो वार दूँ दुनिया की तमाम शोभा आप पर
तो भी लगवा लें तो हर्ज ही क्या है, त्रिलोचन जी!
नकली? जो मिलता है, ऊँ, यानी वेतन
या तो दाँत ही लगवालूँ या फिर भोजन जुटा लूँ, महीनेभर का।
वेतन!
पर आप तो पाते हैं प्रोफेसर का!
ऐसा,
तो मैं चुप हूँ भाई
त्रिलोचन भीख तो नहीं माँगेगा।
चुप ही रहा।
गनीमत थी, नहीं मिली थी उपाधि उजबक की।
क्या सच में शोभा के लिए होता है अगला दाँत, महज
और इसीलिए बेकार भी
कहा, काटने के भी तो काम आता है त्रिलोचन जी!
रहता तो काटने में सुविधा तो रही होती न?
ठीक कहा, त्रिलोचन हँसे-मुस्कराने की शैली में -
तुम उजबक हो
काटने को चाकू होता है।
अजीब उजबक था मैं भी
त्रिलोचन और काटना!
आता काटना तो क्या कटे होते चिरानीपट्टी से
क्या कटे होते हर वहाँ से
जहाँ जहाँ से काटा जाता रहा है उन्हें!
नहीं जानता त्रिलोचन सहमत होते या नहीं इस बात पर
सो सोच कर रह गया
और सपने को सपना समझ कर भूल गया
हालाँकि निष्कर्ष मेरे हाथ था --
त्रिलोचन और काटना !
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