हर कहीं सब कहीं
काव्य साहित्य | कविता दिविक रमेश12 Jan 2016
देख लीजिए न नरेन्द्र जी को
हैं न ’कहीं‘।
और राजेश जी को भी
कैसे तो विराजमान हैं वे भी ’कहीं‘।
इन्हें ही देख लीजिए
और उन्हें भी
तभी तो छाए हैं न अखबार के कॉलम से।
देखिए तो इनके चेहरे
इन्हें क्या परवाह उनकी
और अब देख लीजिए उनके भी चेहरे
उन्हीं का कौन बाँध सकता है घर घाम में।
अपनी अपनी हवा है
अपना अपना बदन
अपना अपना आकार है
अपना अपना समाचार
खबरदार
खबरदार
खबरदार
जान लेना चाहिए
कि हर बड़ा है वही
जो दिखता है ’कहीं‘।
और एक आप हैं मियाँ दिविक
जो हैं ही नहीं कहीं
न कोई अपनी हवा है
न बदन ही
न कोई अपना आकार है
न समाचार ही।
मुझे तो शक है
कोई पूछेगा भी जब पड़ोगे बीमार
आ चला बुढ़ापा अब कुछ सोचो भी यार
काहे की फसल जब खेत है न क्यार।
’’अरे भाई यह कैसी खिटपिट यह कैसी तकरार
अब छोड़ो भी रटन्त और यह तुकान्त
यह आर आर
तुमने तो बना डाला
आदमी का भी अचार
मानता हूँ नहीं हूँ ’कहीं‘ मैं
पर जानता हूँ
जो होता नहीं ’कहीं‘
होता है ’सब कहीं‘
और मानेंगे न आप भी
कि असल तो वही होता है
जो ’सब कहीं‘ होता है
जैसे कि हवा
जैसे कि आग
जैसे कि साँस
जैसे कि आस।
कोई भी हो यात्रा
यहीं से शुरू होती है
और यहीं पर खत्म भी।
युद्ध हो या शांति
भीख हो या क्रांति
यहीं से जन्म लेती है
और यहीं पर दफन।
हिलाने पर वृक्ष
वृक्ष ही हिलता है
मरने पर आदमी
आदमी ही मरता है।
लगता होगा किसी को अच्छा
किसी के उतारना कपड़े
किसी को मारना भूखा
किसी को रखना दरिद्र
ऐश करना किसी की छाती पर
पर अन्ततः करता है एक ही यात्रा
एक ही यात्रा
जैसे करता है कलैण्डर
जनवरी से दिसंबर तक
(जानते हैं न ज से जनवरी, ज से जन्म
दि से दिसम्बर, दि से दिवंगत)
इसीलिए तो
नहीं अफ़सोस मुझे
कि मैं नहीं हूँ ’कहीं‘
पर हूँ तो
और खुशी है मुझे
कि हो सकता हूँ ’हर ’कहीं‘।‘
लो फिर कहूँ
होता तो वही है सही
जो होता है सब कहीं
जैसे कि आदमी
जैसे कि प्रश्न।
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