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बालस्वरूप राही : नई चेतना एवं दृष्टि से सम्पन्न एक ऊर्जावान बाल-कवि

आजादी के बाद 30-40 वर्षों के दौर में जिन साहित्यकारों ने बाल-कविता-सृजन के क्षेत्र में ऊँचाइयों से भरपूर अत्यंत महत्वपूर्ण बाल-कविताओं को सम्भव किया है उनमें बालस्वरूप राही का नाम ऊपर की पंक्ति में आता है। इनके साथ ही सूर्य भानुगुप्त, शेरजंग गर्ग,दामोदर अग्रवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, योगेन्द्र कुमार लल्ला,श्रीप्रसाद आदि अनेक रचनाकार भी हिन्दी की बाल-कविता को नई बुलंदियाँ प्रदान कर रहे थे। इस समय के रचनाकारों ने अपने समय को उसकी सम्पूर्णता में बाल-कविता के साथ जोड़ने का सार्थक काम किया। अपने समय के बालक के मन की पहचान रखते हुए उसे समयानुकूल दृष्टि से सम्पन्न करने का प्रयत्न किया। कितनी ही कविताओं में आधुनिकता अपने बेहतरीन रूप में लक्षित की जा सकती है। और यह भाषा, शैली, वस्तु, दृष्टि आदि सब धरातलों पर सम्पन्न हुआ है। बालस्वरूप राही जी से पहले भी ‘चंदामामा’ को लेकर रचनाएँ हुई हैं। और अच्छी हुई हैं। लेकिन उनकी कविता ‘चंदा मामा’ पहले की चंदा मामा सम्बन्धी रचनाओं के पुरानेपन का एक बहुत ही विश्वसनीय ढंग से अतिक्रमण करने में समर्थ है। इसीलिए आज तक भी लोकप्रिय है। यह एक गीत, न केवल बालस्वरूप राही की बाल-कविताओं में मील का पत्थर है बल्कि हिन्दी बाल-कविता को भी उनकी अप्रतिम भेंट है। एक वैज्ञानिक समझ किस प्रकार रचना में पूरी तरह रचा-बसा कर पेश की जा सकती है कि वह एक कलात्मक अनुभव के आनन्द से लहलहा उठे, इसका नमूना है यह कविता। हमारे यहाँ विज्ञान और आधुनिकता का मात्र अलाप करते रहने वाले इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। कविता इस प्रकार हैः

चंदा मामा, कहो तुम्हारी शान पुरानी कहाँ गई,
कात रही थी बैठी चरखा, बुढ़िया नानी कहाँ गई?
सूरज से रोशनी चुराकर चाहे जितनी भी लाओ,
हमें तुम्हारी चाल पता है, अब मत हमको बहकाओ।
है उधार की चमक-दमक यह नकली शान निराली है
समझ गए हम चंदा मामा, रूप तुम्हारा जाली है।

कुछ विस्तार में जाने से पहले संक्षेप में कहा जा सकता है कि बालस्वरूप राही जी के यहाँ बाल-कविता अनुभव के और सुदृढ़तम शैली के धरातल पर भी विविधता से सम्पन्न है। और इसका कारण उनकी सहजता और बेबाकी है। उन्होंने शिशु गीत भी लिखे हैं और ऐसी कविताएँ भी जिन्हें किशोर अपनी कह सकते हैं। पूरी मस्ती के लेखक हैं राही जी। किस्सा याद आता है। किसी समय में मैंने अपनी एक कविता बाँची थी - ‘गुलाम देश का मजदूर गीत’। राही जी उपस्थित थे। कविता उन्हें बहुत पसंद आई। कहा साप्ताहिक हिन्दुस्तान के लिए दो। उन दिनों वे कहीं काम करते थे। कविता दे दी। कुछ दिनों बाद उनसे मिलना हुआ तो उन्होंने बताया कि सम्पादक यानी स्व. मनोहर श्याम जोशी जी को कविता पसन्द तो है पर .......। वे मुझे सम्पादक के कमरे में ले गए। स्व. जोशी जी ने कहा कि इस कविता का शीर्षक बदल दीजिए तभी साप्ताहक हिन्दुस्तान मे ्रकाशित हो सकती है। मैंने कछ सोचा पर तैयार न हो सका। हम खड़े खड़े ही बाहर निकल आए। मेरे निर्णय का राही जी ने स्वागत ही किया था। बाद में वह कविता ज्ञानरंजन द्वारा सम्पादित ‘पहल’ में प्रकाशित हुई थी। तभी से मुझे उनके व्यक्तित्व में एक अनूठापन, एक बेबाकपन नजर आता रहा है। पूरी आत्मीयता और विनम्रता के साथ।

राही जी की कविताएँ ‘दादी अम्मा मुझे बताओ’, ‘हम जब होंगे बड़े’, ‘हम सबसे आगे निकलेंगे’, ‘बंद कटोरी मीठा जल’ और ‘गाल बने गुब्बारे’ पुस्तकों में विशेष रूप से पढ़ सकते हैं। यूँ राही जी आज भी सक्रिय हैं और यह सुखद सूचना है।

राही जी अपनी बाल कविताओं में प्रायः एक सहज गम्भीर व्यक्ति नजर आते हैं जो आज के बालक को विश्वास में लेकर उसे नई सोच, नई समझ और नई दृष्टि से सम्पन्न देखना चाहते हैं, जो आगे चलकर एक योग्य इन्सान सिद्ध हो सके। यूँ उनकी कुछ कविताओं में हास्य भी है और मजा भी। देशप्रेम की सीधी भावनात्मक कविताएँ भी उन्होंने रची हैं और ऐसी तुलनात्मक कविताएँ भी जिसमें नया-पुराना एक साथ उजागर हो सका है और ठीक नए को सहज ही समर्थन भी मिला है। हिन्दी में ऐसी तुलनात्मक कविताएँ दुर्लभ हैं। उनके यहाँ परी, पेड़,चिड़िया, जानवर, कीट, चाँद, सूरज, बादल, आकाश, गंगा आदि भी हैं तो बच्चों की शरारतें उनका नटखटपन और उनकी हरकतें भी हैं। उनके यहाँ नानी, माँ, पिता आदि संबंधों की खुशबू भी है तो इंडिया गेट, कुतुबमीनार आदि इमारतों एवं लाल बहादुर शास्त्री, न्यूटन आदि महापुरूषों की भव्यता भी। उनके यहाँ होली-दीवाली भी है तो गुब्बारे और जोकर भी हैं। उनके यहाँ जिज्ञासा और प्रश्नाकुलता भी है तो जानकारी भी। उनके यहाँ रचनात्मकता भी है तो संवाद शैली भी। कहीं कहीं तो उनकी शब्द-सजगता चौंकाने की हद तक का आनन्द दे देती है। तो कहीं ध्वनि सम्पन्न शब्द-प्रयोगों की रूनझुन महसूस करते ही बनती है। कहने का अर्थ यह है कि राही जी की बाल-कविताओं में इतना कुछ है कि उन पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। उनकी कविताओं में ‘इतना कुछ’ को बिना बानगियों के समझना शायद कठिन हो और नीरस भी। अतः थोड़ा और विस्तार।

राही जी की ऐसी कविताएँ जिनमें नए पुराने की तुलना के साथ एक नए अनुभव से साक्षात्कार कराया गया है, विशेष उपलब्धि कही जा सकती हैं। ऐसी कविताओं में एक कविता है ‘कार’। यहाँ कोरी तुलना नहीं बल्कि बड़ी ही सूझ के साथ प्रदूषण और अनुशासन की समझ भी पिरो दी गई है। बिना कृत्रमिता के। कुछ सायास नहीं लगता। इतनी कम पंक्तियों में इतनी बड़ी बात कहना राही जी का ही कौशल है जो कदाचित उन्हें ग़ज़ल जैसी विधा पर अधिकार से मिलता है। देखिएः

पापा जी की कार बड़ी है
नन्हीं-मुन्नी मेरी कार।
टाँय टाँय फिस उनकी गाड़ी,
मेरी कार धमाकेदार।

उनकी कार धुआँ फैलाती
एक रोज़ होगा चालान,
मेरी कार साफ-सुथरी है
सब करते इसका गुणगान।

यहीं यह भी पता चलता है कि आज का बालक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी चाहता है। चाहता तो हर समय का बच्चा होगा लेकिन आज आज़ाद बच्चों को उसे व्यक्त करने में सक्षम भी किया जा रहा है। इस सत्य का अनुभव राही जी की एक कविता मेंहदी में बखूबी मिलता है --

सादिक जी पहुँचे भोपाल
लाए मेंहदी किया कमाल।
पापा ने रंग डाले बाल,
मेंहदी निकली बेहद लाल
बुरा हुआ पापा का हाल,
महंगा पड़ा मुफ्त का माल।
अगर जरा बैठे हों दूर
पापा लगते हैं लंगूर।

तुलना की दृष्टि से लिखी गई कविताओं में ‘दुनिया नई पुरानी’ की ओर भी ध्यान जाता है। यही नहीं एक सजग रचनाकार बालक की ‘सावधानी’ को भी गौर से रेखांकित कर रहा है। ‘टेलीफोन’ कविता के माध्यम से राही जी ने यही किया है :

उनका बेटा बोल रहा हूँ
मुझे बताओ क्या है काम!
पहले अपना नाम बताओ
तभी पूछना मेरा नाम।

राही’ जी में बालकों का संकल्प है :

झूठों को बेइमानों को 
हम ऐसा मजा चखाएँगे
सीधे रस्ते पर आएँगे।

राही जी की ऐसी अनेक कविताएँ हैं जिनमें टेलीविजन, हैलीकॉप्टर, ध्रुवतारा, पंखा आदि वैज्ञानिक उपलब्धियों की जानकारी है। ऐसी कविताएँ राही जी ने अपने बाल-जीवन के प्रारम्भ में ही लिख कर यह घोषित कर दिया था कि अब बच्चों की दुनिया में इनके अनुभव भी लाने होंगे। ‘दादी अम्मा मुझे बताओ’ में ऐसी कविताएँ उपलब्ध हैं और 1976 में एन.सी.ई.आर.टी. ने इस कृति को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित भी किया था। सुखद यह है कि राही जी ऐसी कविताएँ लिखते समय केवल विवरण-वमन नहीं करते बल्कि कलात्मक अनुभव का सौन्दर्य स्थापित करते हैं। ‘पंखा’ कविता की ये पंक्तियाँ सबूत हैं :

कितनी ही गर्मी हो बाहर
कमरा ठंडा कर देता
तीन परों वाला यह पक्षी
हवा सुहानी भर देता।

या फिर आज के मोबाइली युग में भी ‘टेलीफोन’ कविता की इन पंक्तियों की ताज़गी देखिए :

इस पर छपे हुए जो नम्बर
शायद वे ही हैं जादूगर
सब के हाल जान लेने का
एक भरोसा टेलीफोन।

राही जी ने ऐसा नहीं है कि तितली, मुर्गा, परी आदि पर कविताएँ नहीं लिखी हैं। खूब लिखी हैं। लेकिन जैसी मेरी मान्यता है कि श्रेष्ठ बाल रचनाएँ विषय आधारित नहीं होतीं और न ही उनका आकलन विषयाधारित ही किया जाना चाहिए। जो ऐसा करते हैं वे अपनी नासमझी का ही परिचय देते हैं। बल्कि बालक और बाल रचनाओं पर अपने को भद्दे तरीके से थोंपने का प्रयत्न करते हैं। वे भूल जाते हैं कि बाल रचना भी अनततः एक कलात्मक अनुभव ही होता है और उसका अनूठापन रचनाकार की नई दृष्टि पर निर्भर करता है। राही जी की ही कुछ कविताओं से इस तथ्य की परख की जा सकती है। ‘तितली’ और ‘कहानी’ कविताओं को यहाँ क्रमशः उद्‍धृत कर सकते हैं :

तितली
तितली रानी, इतने सुन्दर
पंख कहाँ से लाई हो?
क्या तुम कोई शहजादी हो
परी-लोक से आई हो?

फूल तुम्हें भी अच्छे लगते
फूल हमें भी भाते हैं।
वे तुम को कैसे लगते जो
फूल तोड़ ले जाते हैं?

कहानी
नानी बोली - सुनो कहानी
एक परी थी बड़ी सयानी।
सोनू ठिठका ..... ‘नानी, नानी,
रोज़ पुरानी वही कहानी।
परी परी रटती रहती हो,
बात वही फिर-फिर कहती हो
आगे भी बात बढ़ाओ,
इसमें एक ‘प्रिंस’ ले आओ।
हम लड़के भी खुश हो जाएँ,
परियों के किस्सों में आएँ।

क्या यहाँ तितली और परी को खारिज़ करके आधुनिक कहलाने का मूर्खतापूर्ण प्रयास है? नहीं। बात आगे बढ़ाने की है। इसे समझना होगा वरना बच्चा ही खारिज़ कर देगा।

राही जी की दृष्टि में तो
सब को अपना समय सुहाता
हम को यह युग भाता है
रोज बदलता जाता है।

काश कि ऐसी सम्यक और संतुलित दृष्टि से हर बाल रचनाकार सम्पन्न होता।

‘हम जब होंगे बड़े’ और ‘सूरज का रथ’ की कविताएँ यदि बड़े, बच्चों और किशोरों के अनुकूल कही जा सकती हैं तो ‘हम सबसे आगे निकलेंगे’ और ‘बंद कटोरी मीठी जल’ की कविताएँ छोटे बच्चों और शिशुओं के अनुकूल पड़ती हैं। बड़ों या किशोरों के लिए लिखी कविताओं में उनकी एक कविता है ‘छोटा मुँह बड़ी बात’। उसी से कुछ पंक्तियाँ हैं।

जब भी देखो बड़े बड़ों को
बड़े बोल बोला करते
लेकिन वे सारी चीज़ों को
पैसे से तोला करते
जो हर चीज बना दे सोना, ढूँढ रहे जादुई छड़ी।
------
मम्मी-पापा अच्छे तो हैं
लेकिन रूखे-सूखे हैं
भूल गए वे, हम चीजों के
नहीं प्यार के भूखे हैं।
फुर्सत हो तो सुनें हमारे दिल में है जो बात गड़ी।
कहने के लिए कहें भले ही - छोटा मुँह पर बात बड़ी।

यहाँ आपका ध्यान विशेष रूप से ‘फुर्सत’ शब्द और उसके गहरे आशय की ओर दिलाना चाहूँगा।

इसी कड़ी में एक और बेहतरीन कविता का ज़िक्र करना चाहूँगा जिसका शीर्षक है‘वहम’। ‘वहम’ को लेकर शायद ही इतनी अच्छी कविता उपलब्ध हो --

चले पाठशाला पप्पू जी
काट गई बिल्ली रस्ता
पप्पू जी ने घर में लाकर
पटक दिया अपना बस्ता।
पापा ने डाँटा, मम्मी ने --
बड़े प्यार से समझाया
घबराहट में पप्पू जी को
कुछ भी समझ नहीं आया।
दीदी बोली - ‘पप्पू भैया
वहम किसलिए करते हो
होकर बब्बर शेर ज़रा सी
पूसी से क्यों डरते हो।
जोश आ गया पप्पू जी को
निकल पड़े घर से बाहर
चले लैफ्ट-राइट सी करते
जैसे कोई नर-नाहर!

गौर कीजिए कि पापा ने डाँटा और मम्मी ने बड़े प्यार से समझाया। और वहम दूर किया नई पीढी की ही दीदी ने। ये तीन प्रकार के आचरण लेखक की गहरी सूझ का परिचायक नहीं है क्या?

छोटे बच्चों के लिए लिखी कविताएँ भी मज़ेदार हैं। मज़े मज़े में ही जानकारी और सीख भी दे दी गई है। यहाँ भी कवि रोबोट, नई तरह की रेल, लाल हरी बत्तियाँ आदि के संबंध में अपने अनुभव बाँटने से नहीं चूके हैं। लेकिन जिन कविताओं में उन्होंने चुटकियाँ ली हैं वे कहीं ज्यादा दिलचस्प बन पड़ी हैं। जैसे

छोटा भैया
मेरा नन्हा-मुन्ना भैया
नहीं किसी से डरता है
ताली अगर बजाता हूँ मैं
आँखें मिच मिच करता है।
मम्मी उसे बिठा गोदी में
मालिश कर नहलाती है।
बुद्धू नहीं जानता ऐसे
‘शेम शेम’ हो जाती है।

या ‘डर’ कविता :

चूहा डरता है बिल्ली से
बिल्ली डरती टामी से
पर सबसे ज़्यादा डरते हैं
मेरे पापा मम्मी से।

यूँ अगर आखिरी पंक्ति ‘मेरा मामा मामी से’ होती तो लय-नाद का मजा कुछ ज़्यादा बढ़ जाता और टामी के साथ मम्मी के बजाय मामी खप जाती। और हँसी में कहूँ तो पापा की इज्जत, झूठे ही सही कुछ बच जाती। यूँ जैसे मैंने पहले भी संकेत किया था, राही जी शब्द-सजग कवि हैं। उनकी एक कविता ‘बिल्ली’ में ‘साधना’ शब्द का जैसा सचेत प्रयोग हुआ है वह कम ही मिलता है :

बल्लू जी ने बिल्ली पाली
चूहों की छुट्टी कर डाली
सब उसको पूसी कहते हैं
गोदी उसे लिए रहते हैं।

दूध-मलाई कर जाती चट
जब उस से कहते - ‘पीछे हट’
कुत्ते जैसी है गुर्राती
पंजे दिखा आँख चमकाती।
उसको अभी साधना होगा
जंगलीपना हटाना होगा।

एक और चुटकी देखें थोड़े बड़े बच्चों के लिए। रामू का कबूतर में। शैली बालस्वरूप राही की। जानी-पहचानी। बड़े शौक से ‘पाला हुआ कबूतर जब ‘बोलो अच्छा हूँ, अच्छा हूँ’ का पाठ पढ़ाने पर भी ‘‘गुटरूँ गूँ, गुटरूँ गूँ’ ही बोलता है तो यह होना ही था --

‘जब पढ़ने की बारी आती झट पट वह सोता था।
कैसे पाठ याद करता, वह क्या कोई तोता था।

इसी क्रम में राही जी की प्रसिद्ध कविता ‘ऊँट’ भी पढ़ते ही बनती है। पहली ही पंक्ति मजेदार है : ऊँट बड़े तुम ऊट-पटाँग!

कुछ मजेदार कविताएँ वे भी हैं जिनमें भोली भाली जिज्ञासाएँ भी हैं और प्रश्न भी!

दादी अम्मा मुझे बताओ
कैसे बनते हैं बादल?
कौन उन्हें देता है बिजली?
कौन उन्हें देता है जल?

अथवा

सब पशु-पक्षी शोर मचाते
जब भी आ जाता है जोश
आप मगर चुप ही रहते हैं
ऐसा क्यों मिस्टर खरगोश?

यहाँ ‘मिस्टर’ शब्द का प्रयोग भी मजेदार है।

अथवा

अगर न होता चाँद, रात में
हम को दिशा दिखाता कौन?
- - - -
अगर न होते हम तो बोलो
ये सब प्रश्न उठाता कौन!

मैंने बताया कि राही जी कुछ कविताओं में - चाहे वे सचमुच कुछ ही हैं हास्य का पुट भी आया है और वह सुखद हैं। लेकिन अंत में मैं उनकी एक ऐसी विरली कविता की ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा जिसकी ओर शायद सामान्य दृष्टि न जा सके। यह एक मार्मिक कविता है और ऐसी कविताओं की भी निःसंदेह बहुत जरूरत है। यूँ आज हिन्दी के बाल साहित्य में अनेक सशक्त कविताएँ इस तरह की भी हैं। आज के कवियों का ध्यान गाँव-देहात की ओर भी जा रहा है। राही जी की कविता है - ‘पलँग’

एक पलँग पर बच्चे चार
कैसे सोए टाँग पसार?

भारत के संदर्भ में ये पंक्तियाँ बहुत ही मार्मिक और सार्थक हैं। मैं नहीं जानता कवि की दृष्टि में यह बात थी की नहीं लेकिन इसके साथ दिए गए चित्र ने इस कविता को थोड़ा हलका जरूर कर दिया और उसे चार सम्पन्न बच्चों की खींचातानी का अर्थ दे दिया।

खैर मैंने प्रयास किया है राही जी की बाल कविताओं के सरोवर से मोती-मोती चुन लूँ। भर पेट चुन भी लिए। बहुत से कल के लिए छोड़ दिए हैं। आप भी चाहें तो गोता लगा लें। हाँ राही जी से तो हम ऐसी ही, और भी अच्छी, तरह-तरह की मोतीनुमा कविताओं की माँग करते रहेंगे। वैसी ही माँग जैसी ‘नानी’ कविता में बच्चों ने ‘नानी’ से की है और नानी को हलवाई बना कर छोड़ा है :

गर्मी की छुट्टियाँ मनाने
नानी के घर पलटन आई।
धुन्नू, मन्नू, तन्नू, कन्नू
चिंकी, पिंकी बहिनें - भाई।
कोई माँगे गर्म पकोड़े
कोई माँगे दूध-मलाई
माँगे पूरी करते-करते
नानी बन बैठी हलवाई।

पूरा विश्वास है कि राही जी बच्चों की कविता रूपी पकवानों के संदर्भ में हिन्दी के बड़े-बड़े रचनाकारों रूपी हलवाइयों में सदा जगमगाते रहेंगे और दूसरों को भी हलवाई बनने की प्रेरणा देते रहेंगे। साथ ही, वे तो बालस्वरूप हैं, हम तो बस बालक ही हैं। और ऊपर से ‘राही’ भी हैं यानी साधक। न जाने अभी कितनी सिद्धियाँ उनसे मिलनी ही हैं।

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