भेंटवार्ता - दिविक रमेश से
साक्षात्कार | बात-चीत दिविक रमेश12 Jan 2016
डॉ. लालित्य ललित, डॉ. देवशंकर नवीन एवं डॉ. जसबीर त्यागी एवं सुश्री अलका सिन्हा के द्वारा
लालित्य ललित :
कविता, कहानी दोनों से आप जुड़े हुए हैं, लेकिन कवि के रूप में ज्यादा सक्रिय हैं तो एक ही विधा तक केंद्रित क्यों नहीं रहे आप?
दिविक रमेश :
पहले तो बताना चाहूँगा कि मैंने सबसे पहले जो रचना लिखी थी, वह कहानी थी और उसके बाद भी अनेक कहानियाँ लिखी थी। यूँ समझिए कि ८० के दशक तक मैं कहानियाँ भी सहज ही लिख लेता था। एकाध कहानी तो किसी बहुत अच्छे संकलन में भी रखी गई हैं। एक कहानी पर फिल्म भी बनी। एक कहानी अंग्रेजी अनुवाद के माध्यम से विदेशी विश्वविद्यालय में पढ़ाई भी जा रही है। सातवीं-आठवीं में रहा हूँगा जब मैंने कविताएँ लिखनी शुरू की थी। लेकिन विशेष रूप से जब मैं बी.ए. में आया तो कुछ मेरे साथी थे उनका सान्निध्य शायद सक्रिय लेखन के लिए जिम्मेदार रहा होगा। साथ ही अपने कालेज की पत्रिका ’रजनीगंधा‘ का छात्र-संपादक भी बनाया गया था। तब मैं जरा लयात्मक लिखता था। बाद में, मेरे एक अध्यापक होते थे डा. गंगाप्रसाद विमल। उन्होंने बताया कि ’फ्रीवर्स‘ में भी कविता लिखी जाती है। तुम खूब पढो। तब मेरा रूझान धीरे-धीरे कविता की ओर ज्यादा होता गया। और कहानी एक तरह से पीछे छूटती गई। लेकिन जहाँ तक बाल-कथाओं का प्रश्न है वे तो मैं अब तक लिख ही रहा हूँ।
लालित्य ललित :
क्या कवि दिविक रमेश को असल जिंदगी के रमेश शर्मा को कोई नुकसान हुआ?
दिविक रमेश :
असल दिविक रमेश को रमेश शर्मा से तो कोई खासा नुकसान नहीं हुआ। लेकिन रमेश शर्मा को प्रारंभ में दिविक रमेश से जरूर नुकसान हुआ। आपको बता दूँ कि प्रारंभ में मैं रमेश शर्मा के नाम से ही रचनाएँ लिखता था और प्रकाशित होता था। तो जब दिविक (दिल्ली विश्वविद्यालय कविता) संकलन आया तो उसमें १५ कवि थे, जिनमें से एक मैं भी था। रमेश शर्मा। तब हम बहुत सक्रिय थे।
एक घटना घटी। डा. नरेन्द्र कोहली जो महाविद्यालय में मेरे वरिष्ठ साथी थे और जो कि नाम देने में बहुत ही प्रसिद्ध हैं, के घर पर। उन्होंने कहा जब सब तुम्हें दिविक बोलते ही हैं तो दिविक के साथ रमेश भी लगा लो। उनसे निकटता थी। एक तो हमारे ही कालेज के वरिष्ठ साथी थे दूसरा व्यंग्यकार मित्र प्रेम जनमेजय के काफी करीब थे। प्रेम जनमेजय का नामकरण भी कोहली जी ने ही किया था। जनमेजय वाला। मैं संकोच में रहता था। मेरे नाम के साथ दिविक जुड गया था। शुरू में जरूर कुछ अटपटा सा लगता था। लेकिन बाद में प्रो. आर.एस. शर्मा ने जो संस्कृत/इतिहास के बड़े विद्वान हैं, उन्होंने इस अर्थ की व्यापक व्याख्या की थी। प्रो. निर्मला जैन के निवास स्थान पर। प्रो. जैन के निदेशन में शोध कार्य कर रहा था। अर्थ बताया गया दिव्य से सम्बद्ध।
बहरहाल, ’रास्ते के बीच‘ मेरा पहला कविता संग्रह था जिसकी कविताओं का चयन शमशेर ने किया था। इस पर मुझे बहुत ही अच्छी और व्यापक प्रतिक्रियाएँ मिली थीं। केदारनाथ अग्रवाल ने तो लगभग २० पृष्ठों का लेख ही लिख दिया था। जो लहर में प्रकाशित भी है। उनके संकलन विवेक विवेचन में संकलित भी।
कुछ आलोचक थे, ’समीक्षा‘ पत्रिका में, जिन्होंने मजाक भी उड़ाया था। १४ लाइनों की समीक्षा थी। जिसमें उन्होंने कहा था -- न कवि को लिखना आता है, न शिल्प का पता है। इस कवि ने ’दिविक‘ शब्द का प्रयोग कर अपने को लोकप्रिय बनाने की कोशिश की है। तब मुझे लगा था कि रमेश शर्मा को दिविक से कोई नुकसान तो नहीं हो रहा है। धीरे-धीरे वह बात कब्र होती गई। बाद में लोकप्रिय पत्रिका ’धर्मयुग‘ में मैं खूब छपा। इसी नाम से। अन्य पत्रिकाओं में भी। इस नाम को प्रसिद्धि दिलाने में भारतभूषण अग्रवाल को भी श्रेय जाता है।
लालित्य ललित :
मानसिक शांति किस रचना से मिलती है?
दिविक रमेश :
हर रचना से ही मिलती है यदि वह रचना है। ’खंड-खंड अग्नि‘ काव्य-नाटक से विशेष रूप से मिली। दो वर्ष के लंबे अंतराल पर वह लिखा गया था। आज भी जब कभी परेशान होता हूँ तो उसे पढ़ता हूँ। हालांकि मंचित नहीं हो सका है पर सराहना और आत्मीयता खूब मिली है। एम.ए. स्तर के पाठ्यक्रम में भी प्रवेश मिला।
जसबीर त्यागी :
आपकी कवि दृष्टि किन जीवन मूल्यों से प्रभावित होती रही है?
दिविक रमेश :
जसबीर ऐसा है, आर्थिक दृष्टि से देखें तो मैं गरीब परिवार से आता हूँ। मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि आगे पढ़ सकूँ। लेकिन शुरू से ही गरीबी, उसका और उस पर समाज में क्या प्रभाव होता है, मुझे पता है। दो बातें गाँव-देहात की अच्छी हैं। कम से कम अपने गाँव के अनुभव से कह सकता हूँ। एक तो जात-पात का नगण्य झगड़ा और दूसरा अपनापन।
इन संबंधों का जिक्र मैंने अपने प्रथम संग्रह ’रास्ते के बीच‘ में भी किया था। मैं हरियाणवी बैक ग्राउंड से हूँ। ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ।
मैं यह मानता हूँ कि जो मुझे परिवेश मिला उसने मुझे कई कुंठाओं से बचाया भी है। मैंने भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ भी काम किया है। मार्क्सवाद ने बड़ा प्रभावित किया। जेल भी गया हूँ, उसके कारण।
देवशंकर नवीन :
आप एक बहुभाषी रचनाकार हैं। यह भी देख रहा हूँ कि जन्म आपका गुलाम भारत में हुआ और आँखें आपकी आजाद भारत में खुली हैं। छात्र जीवन से आप लिखने में गंभीरता से लीन रहे हैं। उन दिनों आपके गुरू गंगाप्रसाद विमल थे जो अकविता से जुड़े रहे। कई सारी चीजें चल रही थी। वह समय ऐसा था, जब लेखक कई सारी विधाओं में रत थे। ऐसे में आपने कविता को ही क्यों चुना। क्या कारण थे? कविता की कौन-सी धारा सबसे अधिक प्रभावित कर सकी?
दिविक रमेश :
जब भी कवि रचना करता है, उसके सामने कई चुनौतियाँ होती हैं। उसके आस-पास क्या लिखा जा रहा है, या किसी आंदोलन के साथ चलना चाहिए अथवा नहीं। आपने ठीक कहा कि उस समय अकविता का बोलबाला था। इसका मुझे पता था। मुझे विचारधारा ने बचा लिया। वह मार्क्सवाद था। मैंने लेनिन को पढ़ा। रूसी साहित्य भी काफी पढ़ा। एक हद तक मैं ’एक्टिविस्ट‘ भी था और दूसरी ओर मैं साहित्यकार भी था। दोनों में तालमेल बैठाते रहना भी एक चुनौती थी।
मार्क्सवाद मुझे शुरू से ठीक लगा। मैं गरीब परिवार से था। मैंन थेगली वाली निकर भी पहनी है। ुझे धूमिल, जगूडी से भी बल मिला। यूँ उनमें बड़बोलापन और मैनेरिज्म था जो बाद में मुझे पसंद नहीं आया।
अपने द्वारा सम्पादित आठवें दशक की कविता ’निषेध के बाद‘ के संकलन में मैंने चंद्रकांत देवताले, राजेश जोशी, सोमदत्त आदि १३ कवि प्रकाशित किए। तीन की ओर सात की परंपरा को मैंने तोड़ा था। कविता संबंधी शोध भी करना चाहा। मैंने डा. नगेन्द्र के परामर्श के तहत ’नये कवियों के काव्य शिल्प संबंधी सिद्धांत‘ पर कार्य शुरू किया। मैंने कवियों को खूब पढ़ा और यह महसूस किया कि जिनको नए कवि कहा गया उनकी श्रेणी से घोषित रूप से कई मार्क्सवादी कवियों को जबरन निकाल दिया गया। नागार्जुन, त्रिलोचन नहीं आ पाये। हमने सिद्ध किया कि ये श्रेष्ठ कवि हैं, इनको भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। जिस शिल्प की ताजगी और नएपन की चर्चा की जाती है वह इन कवियों में भी है। मैं स्वयं को आठवें दशक के कवि के तौर पर ही मानता हूँ। इसी क्रम में। सकारात्मक सोच से सम्पन्न। ’निषेध के बाद‘ शीर्षक ’निषेध‘ (अकविता का संकलन) के निषेध के ही लिए था। शमशेर और त्रिलोचन को मैं अपने काव्यगुरू मानता हूँ। प्रारम्भ के मित्रों में सुखबीर सिंह का ऋणी हूँ।
देवशंकर नवीन :
आपके अभी के वक्तव्य और पुस्तक देखने के बाद यह लगता है कि आपकी तर्कशक्ति एकदम प्रभावी रही है। नकारात्मक दृष्टिकोण आप में कभी भी नहीं रहा। इसके पीछे कारण क्या है?
दिविक रमेश :
देखिए मेरे सामने एक बात तो स्पष्ट थी कि अगर सीमा पर जाना है तो बंदूक लेकर जाऊंगा। सारी क्रांति कोरे शब्दों में करना बड़बोलापन है। आठवें दशक की देन है कवि का धैर्य के साथ रचनात्मकता की ओर लौटना। केवल दिखावटी सरोकार नहीं। कोरी नारेबाजी नहीं। एकदम से आत्मीय संबंधों, फूल-पत्तों और चिड़ियों की बातें हमारी कविताओं ने की। देखिए ये बातें सृजनशीलता की ओर, गंभीर निर्माण की ओर हमारे समय की कवि-दृष्टि कही जा सकती है। आज भी बहुत सी कविताएँ आपको मिलेंगी, जिनमें बहुत अच्छी बातें हैं। लेकिन अच्छी बातें कविता भी हो जाएँ, आवश्यक नहीं। कविता में अनुभव का रचाव-बसाव बेहद जरूरी है। जहाँ पर कविता होनी चाहिए थी या जहाँ से कविता खिसकी थी, उसको ठीक लीक आना ही था।
आप ’बेटियाँ‘ कविताएँ, चंद्रकांत देवताले की देखें। या सोमदत्त की ’हमें ब्रहमाण्ड होना है‘ जैसी कविताएँ। त्रिलोचन की कविताएँ देख लें, जो आपको सकारात्मक दृष्टिकोण की ओर ले जाती हैं। सृजनशील भी बनाती हैं।
आज कविता ’लोक‘ से ताकत ले रही है। ललित की कविता ’गाँव का खत शहर के नाम‘ लोक की कविता है। इसलिए कविता अब, काफी होम की चीज नहीं है। कवयित्री निर्मला पुतुल है जिसकी शक्ति उसके आदिवासी जीवन में खोजी जा सकती है।
आज कविता में जुझारूपन है लेकिन उसके संस्कार भी हैं। इसीलिए ’नकारात्मकता‘ गायब है। ’कुंठित मानसिकता‘ की सड़ांध नहीं है। खेद है कि आज भी आठवें-नौवें दशक की कविता का सही मूल्यांकन सपने की बात है। ’प्रोपेगेण्डा‘ और ’उठा-पटक‘ की नीति अधिकतर इसके लिए जिम्मेदार है। विचित्र बात है कि ’खेमेबाजी‘ वहाँ भी है जहाँ उसके विरुद्ध नारेबाजी होती रहती है।
अलका सिन्हा :
मेरे मन में एक बात आई है कि माफिया के चलते, जो आतंकित भी करता है, अपने-आपको बनाए, बचाए रखने के लिए भी वह समझौते करता है यह सवाल आपकी बेबाकी से भी जुड़ा हुआ है। क्या कहना चाहेंगे आप?
दिविक रमेश :
देखिए यह जो समझौतावादिता है, किसी भी रचना या रचनाकार को बहुत दूर तक लेकर जाने वाली नहीं है। समझौता किए बिना भी बहुत कुछ प्राप्त होता है। मैं तो कई मायनों में अपने आपको बहुत ही सौभाग्यशाली मानता हूँ।
पहला पुरस्कार ही मुझे ’सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार‘ मिला था। तब तक मैंने एक अक्षर भी रूसी से अनुवाद नहीं किया था। जबकि मेरी उम्र मात्र ३६-३८ की रही होगी। उस समय उस उम्र के किसी रचनाकार को यह नहीं मिला था। कोई पत्रिका ऐसी नहीं थी जहाँ मैं प्रकाशित न हुआ हूँ। हाँ, ऐसी परिस्थिति बनाई जाती है कि रचनाकार समझौता करे। टुकड़े फैंके भी जाते हैं या छीने भी जाते हैं। अगर दोनों से आप बच निकलेंगे तो आप आगे बढ़ सकेंगे। मैं यह मानता हूँ कि जो साहित्य में अपने को निरंकुश नियामक मानते हैं वह बहुत ही भ्रम में होते हैं। उन्हें केदार अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन जैसे कवियों ने ठेंगे पर रक्खा है। सच तो यह है कि ऐसे कवियों ने उन्हें ही समझौता करने पर विवश किया है। रिरियाते नजर आए हैं वे। मैं खुद को इसी क्रम में पाता हूँ। मुझे पता चला था कि ’सोवियत लैंड‘ पुरस्कार मुझे त्रिलोचन और शिवदान सिंह चौहान के कारण मिला था। नामवर जी ने तो उसकी एक श्रेणी कम ही करायी थी। उन्हें खामाखाँ गाली खानी पड़ी थी। नामवर जी ने मेरे चौथे कविता संग्रह ’छोटे से हस्तक्षेप‘ (विष्णु खरे द्वारा चयनित कविताएँ) पर पहली बार ’सुखद‘ मुँह खोला था।
नई पीढ़ी जो है थोड़ी उतावली है। तत्काल प्रतिक्रिया देती है और चाहती है। असहमति या सहमति व्यक्ति की अपनी निजी राय है। ’रास्ते के बीच‘ पर सम्पन्न गोष्ठी में बाबा नागार्जुन ने कहा था कि उदित कवि को प्रशंसा और निन्दा दोनों के प्रति सावधान रहना चाहिए। खैर मुझे जगदीश गुप्त से भी स्नेह मिला। तकलीफदेह बातें भी हुई।
एक आलोचक ने जब मुझे कहा था कि पार्टी (मार्क्सवादी) में टिके रहो मैं तुम्हारी किताब राजकमल से छपवाऊँगा। तो ये ऐसी बातें हैं जिन्हें सुनकर दुःख होता था। भुनाने वाली वृत्ति थी।
साहित्य अकादेमी की शोक सभाओं में जब आप बोलते हैं तब आपका मन भरा हुआ होता है। लेकिन वहाँ भी ’राजनीति‘ को भोगा है। उन अपनी ओर के लोगों को वहाँ खोजा जाता है जो वहाँ नहीं होते। जो होते हैं उनकी उपेक्षा की जाती है, उनके आग्रह के बावजूद। ’सोमदत्त‘ की असमय मृत्यु ने मुझे झकझोर दिया था। कुछ बोल कर श्रद्धा प्रकट करना चाहता था। लेकिन आखिर तक सभा के संयोजक ’शानी‘ ने नहीं बोलने दिया। वर्ष के आकलन में भी उन लोगों के नाम तक नहीं लिए जाते जो आकलनकर्ताओं के लिए जरूरी नहीं होते। विदेशों में भी यही बात है। कुछ लोगों को वहाँ भी श्रेष्ठ मनवाया जाता है, कुछ को व्यर्थ। यह विचित्र बात है। हमें अपनी दृष्टि को व्यापक स्तर तक ले जाना चाहिए। यदि साहित्य का भला चाहते हैं। टुच्चापन और अहंकार छोड़ना होगा।
कोई न कोई व्यक्ति जरूर आपको प्रोमोट करता है। नहीं तो संस्था ’पूछती‘ तक नहीं। यह हकीकत है जिसे हर रचनाकार अपने संदर्भ में जनता है लेकिन पाखण्डवश हर कोई बोलता नहीं।
अलका सिन्हा :
यह हितैषी मेरिट के लिहाज से सम्मान देता है या इसके पीछे कोई और वजह भी रहती है?
दिविक रमेश :
बहुत अच्छी बात आपने कही। लाभ के लिहाज की बात नहीं है। जब मुझे पुरस्कार मिला तो मेरी स्थिति नहीं थी कि मैं किसी को कुछ देता। त्रिलोचन जी ने शिवदान सिंह चौहान का ध्यान मेरी रचनाओं की ओर दिलाया। देखिए हितैषी केवल ध्यान दिलाता है आपके गुणों की ओर। बिना लेन-देन की सोचे। सच्चा हितैषी आपके ’गुणों‘ के कारण ही ’सच्चा हितैषी‘ बनता है। मैंने ’राजेश जोशी‘ के संबंध में एक ’बड़े‘ आलोचक को यह भी कहते सुना था कि यदि हम उसे उठा सकते हैं तो ......। सच्चा हितैषी ऐसा कभी नहीं कहेगा। यह कदाचित तब की बात है जब राजेश जोशी ने प्रगतिशील लेखक संघ छोड़ दिया था।
अलका सिन्हा :
मुझे लगता है कि आज लाभ केन्द्रित हो गया है।
दिविक रमेश :
यहीं पर रचनाकार का विवेक काम करता है। डा. नामवर सिंह का मैं बड़ा सम्मान करता हूँ। उन्होंने ’छोटा सा हस्तक्षेप‘ की कविताओं की पहली बार ’मौखिक‘ प्रशंसा की - रूसी सांस्कृतिक केन्द्र में। कहा कि कुछ कविताएँ हिन्दी में पहले कभी नहीं लिखी गई। ’भूत‘ कविता का जिक्र उन्होंने इसी संदर्भ में किया। त्रिलोचन ’भूत‘ की अनेक वर्ष पहले प्रशंसा कर चुके थे। विष्णु खरे ने भी की।
मैं यह कहना चाहता हूँ कि रचनाकार की रचना में गुणवत्ता जरूर हो। अगर सद्भाहवनावश कोई आपसे सहानुभूति रखेगा तो रास्ता जरूर लंबा हो सकता है। अब चलन यह है कि कुछ लोग अपने अपने ’समूह‘ तक सिमट जाते हैं। इससे हटना होगा। ’जगदीश चतुर्वेदी‘ ने ’खण्ड-खण्ड अग्नि‘ को एक सिद्ध रचनाकार की रचना कहा और उसे एक राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाने में अहं भूमिका भी अदा की।
जसबीर त्यागी :
कविता में आपके प्रिय और आदर्श कौन हैं?
दिविक रमेश :
प्रिय और आदर्श तो तमाम लोग हैं, अगर आप सच में पूछें तो। रचनाकारों में एक नहीं अनेक आदर्श हैं। कबीर, तुलसी, केशव और बाद के कवियों में मैथिलीशरण गुप्त ने बहुत प्रभावित किया है। नागार्जुन की ऊँचाई ने प्रभावित किया है। किसी कवि को परखना है तो उसकी ऊँची कविता से परखिए। त्रिलोचन जी की कुछ कविताएँ या सोनेट्स भी क्या खूब हैं! इसलिए अज्ञेय, मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे की कविताएँ भी मुझे पसंद हैं।
मुझे रघुवीर सहाय पसंद हैं। लेकिन सर्वेश्वर हमेशा बेहतर लगे हैं। ’निषेध के बाद‘ के सभी कवि मुझे पसंद रहे हैं।
अलका सिन्हा :
आपने कहा, जब सीमा पर जाना है तो बंदूक लेकर जाऊँगा, कलम लेकर नहीं। आपकी बात को मैं कहूँगी कि जब बाल साहित्य की रचना करता है तब मनोबल सुलभ होता है या केवल चैनल बदलने की बात होती है?
दिविक रमेश :
रघुवीर सहाय कहते हैं कि मैं लिखने बैठता हूँ कविता लिखी जाती है कहानी। जैसे मैं बताऊँ कि ’खंड-खंड अग्नि‘ लिखने बैठा तो नहीं सोचा था क्या लिखने जा रहा हूँ। देवेन्द्रराज अंकुर, प्रताप सहगल को पसंद आया। पाठिकाओं को बहुत पसंद आया। मुझे लगता है कि बच्चों के लिए जब भी मैंने लिखा वह प्रयास करके नहीं लिखा है। बाल-लेखन की रचना प्रक्रिया भी वही होती है जो बड़ों के लेखन की, ऐसा मेरा अनुभव है।
मैं यह हमेशा मानता हूँ कि कविता कलात्मक अनुभव है। मेरा कलात्मक अनुभव जो ’पेड‘ से शुरू हुआ है उसका अर्थ कहाँ तक किस रूप में पहुंचेगा यह किसी को मालूम नहीं। इसलिए हर रचना में, बाल कविता में, व्यंग्य में यही बात लागू है। मेरे परम प्रिय मित्र प्रेम जनमेजय में और मुझमें एक होड़ है। उसे लगता है कि वह मुझे व्यंग्यकार बनाकर छोड़ेगा और मैं उसे कवि बनाकर। लेकिन सच यह है कि न वह मुझे व्यंग्यकार बना सका है और न मैं उसे कवि ही। कम से कम अब तक। लिखते जरूर हैं हम।
लालित्य ललित :
उम्र के पड़ाव पर जब गुलजार साहब ने लिखा कजरारे-कजरारे, तो ऐसे समय में आपका मन नहीं होता कि कुछ प्रेम कविताएँ दुबारा लिखी जाएँ?
दिविक रमेश :
मैं अपनी सब कविताओं को प्रेम कविताएँ ही मानता हूँ। २००५ की बात है। मैं विदेश से लौट रहा था तो हवाई जहाज में कुछ गुनगुनाने लगा। वह गीतनुमा निकला। उस उन्माद में कब अमृतसर आ गया, पता ही नहीं चला। जब मैं सचेत हुआ तो मैंने पाया कि कुछ गीत बन गए हैं। ’प्रेम‘ की कविताएँ। प्रेम जनमेजय ने सुनी तो कहा कि ये तुम्हारी सर्वेश्रेष्ठ कविताएँ हैं। जानता हूँ नशे में, व्यंग्य में कहा था। पर ’प्रेम‘ मेरा अनन्य दोस्त है। शायद ही मानेगा, उसे तो मेरी ज्यादातर रचनाएँ पसन्द आ जाती हैं।
अजित कुमार, अशोक वाजपेयी, पाब्लो नरूदा हैं जिन्होंने प्रेम कविताएँ दीं। शमशेर की अनेक कविताएँ मुझे पसंद हैं। उनके अंदर एक सूक्ष्मता है जिसके भीतर उन्होंने मांसलता भरी है। लेकिन ६० के पार मैं ’प्रेम‘ कविताएँ लिखूँ और पत्नी से पिटूँ, ऐसी कोई मंशा नहीं है। मजाक अलग कर दूँ तो मैंने अपनी पत्नी को लेकर कुछ प्रेम कविताएँ अवश्य लिखी हैं जो मुझे पसन्द भी हैं।
जसबीर त्यागी :
आपके एकांत में कौन होता है?
दिविक रमेश :
मेरे एकांत में हर वक्त कोई एक ही होता है, यह नहीं कह सकता। असल बात तो यह है कि एकांत में अन्ततः आप ही अपने साथ होते हैं। बाकियों के नाम मैं नहीं बताना चाहता। यूँ भी जो होता है ’कोलाज‘ शैली में होता है। वेश्या कैसे बताए कि उसकी संतान किस एक की है।
जसबीर त्यागी :
आप अब एक प्रशासनिक अधिकारी हैं। क्या प्रशासन और कविता आपस में बाधक नहीं बनते?
दिविक रमेश :
कविता तो नहीं बनती बाधक। कविता निकल आती है। मेरे पास बहुत लोग हैं जो सहायक बनते हैं। इस पद पर होने से समय का अभाव कुछ बाधा बनता है। मैं मानता हूँ कि अच्छा आदमी ही अच्छा प्रशासक बनता है। और कविता किसी को अच्छा आदमी बनाए रखने की अचूक शर्त है।
आप जो कार्य कर रहे हैं, उसमें निष्ठा बनाए रखना जरूरी है। इससे आपकी ऊर्जा भी लगेगी। कोई भी आदमी काम करते हुए नहीं मरा। निठ्ठुला जरूर मर गया होगा। मैं निरा प्राचार्य नहीं हूँ। मैं अनेक जगह व्यस्त रहता हूँ। इंटरनेशनल, नेशनल गोष्ठियों में जाता हूँ। पढ़ाता हूँ, शोध-निदेशक हूँ। हाँ, अब गप्पबाजी जरूर कम हो गई है। लेकिन इतनी कम भी नहीं। मैं अपने प्रशासनिक कार्य को भी मजे से करता हूँ।
देवशंकर नवीन :
नरेश मेहता जी से एक बार अखरण आदित्य ने पूछा कि इस उम्र में आप प्रेम कविताएँ कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि अब समय मिला है तो प्रेम कविताएँ क्यों न लिखूं। खैर आप प्रेम कविताएँ लिखें। लेकिन राजेन्द्र यादव का मानना है कि क्या कविताएँ लिखकर जमीन खराब कर रहे हो?
दिविक रमेश :
राजेन्द्र जी तो अब चुक गए। वे, मुझे लगता है, ऊपर से अट्टहासकारी हैं लेकिन भीतर से क्रूर हैं। आपकी अच्छी से अच्छी रचना भी नहीं छापेंगे यदि आप उनकी मण्डली में नहीं हैं। अन्यथा आप पर अपार चर्चा भी करा देंगे। नरेश मेहता मुझे ’संशय की एक रात‘ में सक्षम लगते हैं। हाँ प्रेम कविताएँ जरूर लिखूंगा जहाँ तक मेरा प्रश्न है।
देवशंकर नवीन :
अब दलित विमर्श, संबंध परक कविताएँ, या ऐसी प्रथा, या शुरूआती आंदोलनों के बाद आज कविता कहाँ है? आज कविता हिंदी में कहाँ पर है? अपनी पीढ़ी और अपनी अनुजवर्ती पीढ़ी से आपकी अपेक्षाएँ क्या हैं?
दिविक रमेश :
गद्य में ’नरेशन‘ ज्यादा है। हमारे यहाँ विष्णु खरे माहिर हैं कविताओं में नरेशन लाने में। कविता आज विविध रूपी है। छंदविहीन कविता को लेकर आज तक कुछ लोगों को भ्रम है। बाकी, कविता लिखी जा रही है उस पर ’शिल्प‘ के आधार पर निर्णय लेना कि यह कविता है या नहीं, ठीक नहीं। कंटेंट बड़ा महत्वपूर्ण होता है, अन्ततः।
बहरहाल स्त्री विमर्श/दलित विमर्श, आंदोलन समय-समय पर हुए। छायावाद के बारे में कहा गया है कि यह तो प्रकृति केंद्रित कविता है। क्या ऐसा ही है? इसको शास्त्रीय ढंग से भी बता सकते हैं।
स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का यह मतलब कदाचित नहीं है कि ये कविताएँ उन पर केंद्रित नहीं हैं या स्त्री कभी प्रेम नहीं करती। या उसका रूप भयानक नहीं है। दलितों में भी कई स्थितियाँ देखने को मिल जाएँगी। दलित वर्ग में जो स्त्री है वह दोहरी मार खा रही है। लेकिन एक बात अज्ञय ने बड़ी अच्छी कही थी कि दु व दर्द आपको मांजता है।
स्त्री विमर्श और दलित विमर्श आने से एक बात अवश्य हुई है। विचारों का समन्वय हुआ है। कागजों में हम जरूर आ गये हैं स्त्रियों के पास, लेकिन क्या स्त्रियों को हक मिला है? कहने का मतलब है कि जितना उद्धार दलितों का होना चाहिए था वह उद्धार उनका अभी तक नहीं हुआ। इसके लिए कुछ दलित भी जिम्मेदार हैं जो दलितों की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों का नाजायज/झूठा हथियारनुमा इस्तेमाल भी करने से नहीं चूकते। इसकी प्रतिक्रिया प्रतिकूल होने की अधिक संभावना होती है। अच्छी बात यह है कि बहुत से दलित लेखक अब संतुलित सोच के पक्षधर हैं। दलित लेखक और दलित चेतना के लेखक की कृत्रिम खाई ढह रही है।
सामाजिक रूप से स्त्री का शोषण हुआ है। केवल धनी बनाने से बात नहीं बनेगी। मैं तो कहता हूँ कि उसे सामाजिक रूप से भी संपन्न बनाइए। दलित को भी। दोनों को हीन-भावना एवं कुंठित मानसिकता से उबारना होगा। कैसे? कम से कम प्रतिक्रियावादी बन कर नहीं।
लालित्य ललित :
स्त्री को आप क्या जानते हैं?
दिविक रमेश :
स्त्री और पुरूष पहले व्यक्ति हैं। अब यह जो भेद है, जेंडर, जाति के आधार पर करिए या व्यक्ति के आधार पर। जेंडर के आधार पर देखना गलत बात है। पत्नी के तौर पर स्त्री का शोषण उसी की सास कर रही है।
लालित्य ललित :
यानी स्त्री पहले एक व्यक्ति है?
दिविक रमेश :
समाज कैसे निकल कर आया। आप राहुल सांकृत्यायन की ’वोल्गा से गंगा तक‘ देखिए लक्षद्वीप के पुरूष हुक्का पीते हैं याने घर बैठते हैं। वहाँ की औरतें कमा करके लाती हैं। वहाँ स्त्री का कोमल पक्ष खत्म हो गया है? सोचने की बात है। इसलिए मैं मानता हूँ व्यक्ति मायने मनुष्य।
इसलिए कोई भी कविता सबके लिए होती है। किसी भी कविता में सब होते हैं। कम से कम बड़े रचनाकार की कविता (रचना) में।
लालित्य ललित :
अगर कवि दिविक रमेश न होते तो क्या होते?
दिविक रमेश :
अगर कविता ना हुई होती तो मैं कविता का पाठक तो होता ही।
लालित्य ललित :
पाठकों की प्रतिक्रियाएँ कैसे लेते हैं?
दिविक रमेश :
मैं सबका जवाब जरूर देता हूँ। पूरा प्रयत्न करके। पत्रिका से भी कोई रचना माँगता है तो मैं मना नहीं करता। इसलिए एक समय ऐसा था कि प्रायः हर प्रवेशांक में मेरी कविताएँ होती थी।
बच्चन जी सभी पत्रों का जवाब देते थे। उनका कहना था कि जब तक पत्र मेरे मेज पर रहते हैं, वे कहते रहते हैं कि जवाब दो, जवाब दो। और यही आदत मेरी भी है। मैं भी जवाब सभी प्रतिक्रियाओं का जरूर देता हूँ।
हाँ प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती? मुझे भी लगती है। अपने प्रति भरोसा जगता है। प्रेरणा मिलती है। रचना के प्रति नापसन्दी में कहे गए शब्दों ने मुझे कभी इस हद तक विचलित नहीं किया कि मैं रचनारत न रहूँ। मानता रहा हूँ, और मानता हूँ कि रचनाकार का उत्तर एक बेहतर रचना देना होता है।
जसबीर त्यागी :
दूसरों के व्यक्तित्व में क्या पसंद करते हैं?
दिविक रमेश :
सादगी, बनावटीपन मुझे पसंद नहीं। विश्वासघाती आदमी मुझे खराब लगता है।
अलका सिन्हा :
आज इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का जोर चल रहा है। ऐसे में संवाद खत्म हो गया है। आप नाटक से भी जुड़े हैं? इसके भविष्य पर क्या कहेंगे?
दिविक रमेश :
नाटकों का भविष्य काफी अच्छा है। अब तो एन.एस.डी. के द्वारा नाट्य उत्सव भी मनाए जा रहे हैं। नुक्कड़ नाटकों का एक दौर आया था। इधर कम हैं। नुक्कड़ नाटकों के साथ यह मान लिया गया है कि जनवादी संघ ने इसे अपनाया। तात्कालिक समस्या पर ये नाटक केंद्रित होते थे।
महाराष्ट्र, बंगाल के लोगों में उत्साह है। ये ’यात्रा‘ के रूप में मशहूर हैं। लेकिन नुक्कड़ नाटकों को भी अन्य विधाओं की तरह होना चाहिए।
लालित्य ललित :
सारी बातों में ’प्रेम‘ ही केंद्रित बिंदु है? कारण क्या है?
दिविक रमेश :
नहीं, मैं तो सबसे प्रेम से ही मिलता हूँ। और ’प्रेम‘ से प्रेम करने में या उस पर केन्द्रित रहने में क्या बुराई है।
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कहाँ है वह धुआँ जो नागार्जुन ढूँढ रहे थे
बात-चीत | प्रदीप श्रीवास्तवनागार्जुन आजीवन सत्ता के प्रतिपक्ष में रहे…
कुमार रवीन्द्र से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत
बात-चीत | डॉ. अवनीश सिंह चौहान[10 जून 1940, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में जन्मे…
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