सोचूँ
काव्य साहित्य | कविता दिविक रमेश12 Jan 2016
जरा सोचूँ
सोचूँ बावजूद डर के
सोचूँ बावजूद डरे हुओं के
सोचूँ
डर सिपाही में है या हमारी चोरी में
डर मृत्यु में है या जीने की लालसा में
डर डरा रहे राक्षस में है या खुद हममें
सोचूँ
मरता वह है
डर हमें लगता है
गुनाह वह करता है
काँपते हम हैं
सोचूँ
छूट गया डरना
तो क्या होगा डर का
सोचूँ
बारिश में भीगने का डर
क्यों भागता है बारिश में भीगकर
सोचूँ
क्या होता है हव्वा
जिसे न बच्चा जानता है, न हम।
सोचूँ
हम रचते ही क्यों हैं हव्वा?
सोचूँ
एक कहानी है भस्मांकुर
या विजय डर पर।
अच्छा, इतना तो सोच ही लूँ
कि जब पिट्टी कर देते हैं हव्वा की
तो क्यों भाग जाता है
सचमुच
बच्चे की आँखों से हव्वा।
बच्चा बजाता है तालियाँ।
आओ, कभी कभार बिने सोचे
मात्र भगाने की बजाय
कर दें हत्या हव्वा की
क्या हम नहीं चाहते
कि बजाता रहे तालियाँ बच्चा
लगातार...... लगातार.........
सोचूँ
लेकिन !
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