काश
काव्य साहित्य | कविता दिविक रमेश12 Jan 2016
काश कि मैं एक नागरिक न होता
दबा
सभ्य होने के बोझ से
तो न करता इन्तज़ार
किसी गवाही
किसी अदालत की।
उखाड़ फेंकता जहरीले वृक्षों को
कर डालता शिकार वर्जित क्षेत्र में भी
वहशी प्राणियों का
नहीं करता परवाह मंत्रालयों की,
विभागों की।
काश कि मैं पिशाचभक्षी हो पाता
तो खाता एक एक अंग
जिंदा ही भूनकर उनका
और अट्टहास करता
उनके गगनभेदी चीत्कारों पर।
देखता पूरी खिंची आँखों से।
नोचता उनकी स्मृतियों को।
कैसे चबाया होगा उन्होंने
मासूम बच्चों और महिलाओं के गोश्त को!
कैसे किया होगा उपेक्षित
उनकी आँखेां से टपकती मानवता को!
कैसे ?
काश !
नोटः निठारी, नोएडा के कांड से प्रेरित होकर।
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