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लिबास

 

नीना की उम्र लगभग पच्चीस को होने चली थी। दो वर्ष पूर्व ही तो विवाह हुआ था। परन्तु नियति ने घोर अन्याय किया था। 

खाने-खेलने के लिए अभी भरी-पूरी उम्र और ये ईश्वर का दंड। ऑफ़िस से लौटते समय पति रमेश की एक ट्रक के चपेट में आने से मृत्यु हो गई थी। 

गोद में छह माह की बच्ची, कैसे दोनों की ज़िन्दगी कटेगी। ये सोच-सोचकर घरवाले चिंतित रहते थे। 

कुछ ने नये सिरे से ज़िन्दगी शुरू करने की सलाह दी तो कुछ ने यादों की समाधि पर ख़ुद को मिटा देने की। आख़िर औरत को इसी समाज में रहना है तो ऊँच-नीच का ख़ासा ख़्याल भी रखना होगा। 

गली-मोहल्ले की कुछ औरतों का तो बस एक ही काम था, दूसरों के घर की ताका-झाँकी। कौन किसके यहाँ अभी आया, कौन अभी गया; एकदम पैनी निगाह लिए ताकती रहतीं। 

छोटी ननद की ज़िद करने पर माथे पर छोटी-सी बिंदी लगाई थी। थोड़ी-सी रंग-बिरंगी चूड़ियाँ भी हाथों में डाली थीं। इंसान का रंगों से कितना गहरा नाता है ये उसने महसूस किया था। 

हद तो तब हो गई जब किसी ने कहा, “देखो! आईने के सामने ज़्यादा वक़्त मत गुज़ारना। लिबास जितना सादा होगा उतना ही अच्छा रहेगा। ये भटकने नहीं देते।” 

नीना की नज़रों में कई सादे लिबास तैरने लगे थे। जो भटके हुए थे। 

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