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चुनौती

 

“श्रवण! तुम यहाँ! फिर से?” 

“हाँ माधवी! . . . मैं फिर से तुम्हारी देहरी पर आ खड़ा हूँ! फिर से।”

“कहो! क्या अभिप्राय है इस ‘फिर से’ का! कहो न?” 

“अभिप्राय, ओहह . . . क्या बताऊँ मैं। मैं इसे शब्दों में गढ़ नहीं सकता। एक खोखलेपन से जो व्यथा उपजती है उसे व्यक्त करना बहुत मुश्किल है। 

“अभी चाहता हूँ कि मैं चीख-चीखकर अपनी घुटन को बहा दूँ, अब अँधेरे से लड़ नहीं पाता।”

“तुम शायद थक गये हो श्रवण! लंबा सफ़र तय कर के आए हो। इसलिए ऐसी बातें कर रहे हो। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। 

“प्रेयसी और पत्नी दोनों में कोई समानता है तो बस स्त्रीदेह। मैंने ना कभी तुमसे अपना अधिकार माँगा और ना ही अपना अधिकार जताया। 

“तुमने तो अधिकार ही अधिकार जताया, यही मेरी दिशा तय करती थी। 

“तुम भटक गये, मैं ना भटकी . . .

“तुम आज़ाद हो . . .”

“नहीं!। नहीं!। ऐसा मत कहो, ये आज़ादी नहीं है मेरी सज़ा है। उस गुनाह की जो तुमने सहा है। मैं इतना दुर्बल होता जा रहा हूँ कि सारी शक्ति लगाकर भी . . .

“मेरा गला रुँध रहा है, बोल नहीं पाऊँगा . . .

“समझ लो कि मैं हार गया ख़ुद से, अपने दंभ से, किसी झूठी शान की ख़ातिर कल तक मैं एक पुरुष था! सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरुष। 

“शायद तुम समझ पाओगी, क्या कहना चाह रहा हूँ तुमसे।”

“अब तक मैंने तुम्हें समझने का ही तो प्रयास किया है श्रवण! इस देह की ज़रूरत क्या देह तक ही है, मन का मन से कोई सम्बन्ध नहीं। 

“किसी स्त्री का प्रेम उस पुरुष को ही मिलता है जिससे वह प्रेम करती है। अधिकार जताकर पिपासा बुझाई जाती है। 

“तुमने प्रेम कितना किया था ये तुम्हारा मन जाने। ज़मीन से लेकर शिखर यात्राएँ तुमने की थीं। मैं तो उसकी अनुभूति मात्र थी श्रवण!! . . . 

“तुम्हारे चेहरे पर जब विजयी भाव देखती तो मैं भी ख़ुश होती। प्रेम में अपना कहाँ देखते हैं या सोचते हैं। बस मैंने वही तो किया। मेरा प्रेम, प्रेम था छलावा नहीं। 

“अब मैं तुमसे बहुत दूर जा चुकी हूँ, वापस लौटना स्त्री ने सीखा ही नहीं। 

“ये मेरी चुनौती थी ख़ुद से।”

“मैं एक पुरुष होने के नाते इतना ही जान पाया स्त्री से जीतना, स्त्री को जीतना छल, बल से मुमकिन ही नहीं। 

“मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता माधवी! लौट आओ! लौट आओ।” 

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