समझदारी
कथा साहित्य | लघुकथा सपना चन्द्रा1 Jan 2025 (अंक: 268, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
सुबह जब मालती टहलने गई तो वहाँ बैठी कुछ महिलाओं ने पूछ ही लिया, “अरे मालती! आजकल बहुत कम दिखाई दे रही हो। ये तो मालूम है कि तुम्हारे बेटे की शादी होने वाली है। पर अभी तो बहुत देर है।”
“हाँ ज़रा व्यस्त हो गई हूँ। छोटी-छोटी चीज़ें कहीं रह न जाए इसलिए अभी से ही तैयारीयों में लग गई हूँ।”
“ऐसा भी क्या कर रही हो भई, हमें भी तो मालूम चले। आख़िर क्या चल रहा है?”
“आजकल मैं अपने मकान के ऊपरी तल्ले पर कमरा बनवा रही हूँ। बैठकर एक-एक काम समझाना होता है। नयी बहू जो आने वाली है। उसमें सब कुछ उसकी पसंद का होगा।”
“अच्छा! इसका मतलब तो यही है कि बहू के घर वाले पहले ही सब कुछ दे चुके हैं। बस तुम्हें उसे कमरे के हिसाब से रखवाने हैं।
“बहू जब आएगी तब भी ख़ाली हाथ तो नहीं ही आएगी। देखना एक कमरा और न बनवाना पड़े।”
“सही कह रही हो, सब कुछ मिल गया है मुझे। वो मेरी बहू नहीं बेटी है; हमेशा कहती है मुझसे। अब बेटी के लिए क्या तैयारियाँ करनी पड़ती हैं ये भी बतानी पड़ेंगी। सम्बन्ध क्या लेन-देन का ही नाम है। इस सास नाम को मैं बहुत पीछे छोड़ आई हूँ।
“तुम सब भी समझ लो तो अच्छा है।”
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